Mayavi Amba-77

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह पटाला थी, पटाला का भूत सामने मुस्कुरा रहा था!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

दुनिया एकाएक आदिमयुगीन अराजकता में पहुँच गई।

बेलगाम नफरत और क्रोध की जहरीली हवा अंबा के फेंफड़ों में भर गई थी। वह अपने आप में एक जीते-जागते हथियार में तब्दील हो चुकी थी। किसी हिंसक जानवर की तरह हो गई थी। उसे इस बात का एहसास था। फिर भी उसने अपने भीतर की हिंसक शक्तियों को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। बल्कि खुद को उनके हवाले कर दिया। उन्हीं की धारा में बह जाने दिया। इसके बाद अब वह अपनी सोच को जल्द ही दुश्मन को ज्यादा से ज्यादा चोट पहुँचाने और भयानक मौत देने के इरादे की ओर मोड देने वाली थी।

नकुल, तनु बाकर और पटाला की मौत, ग्रामीणों की क्षत-विक्षत लाशें और अभी-अभी रोध के निर्मम अंत के मंजर ने उसे भयानक घृणा से भर दिया था। इतना कि वह साँस भी नहीं ले पा रही थी। उसे सबका बदला लेना था और जब तक वह समूचे अस्तित्व के साथ दुश्मन से नफरत नहीं करती, उसका खात्मा कर भी कैसे सकती थी? वह जानती थी कि दुश्मन का शिकार करने के बाद इंसान के रूप में उसका अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो जाएगा। यह कृत्य उसे वहाँ ले जाएगा, जहाँ बिलकुल भी मानवीयता नहीं होगी। फिर भी उसके पास और कोई विकल्प नहीं था।

अंबा ने अपने पुराने अस्तित्त्व को निकाल बाहर किया। पुरानी अंबा को कहीं अँधेरी खोह में बंद कर दिया। हालाँकि उसे अपनी चेतना खोने का कोई अनुभव नहीं हुआ, क्योंकि उसकी अंत:चेतना के नए हिस्सों ने उसे भर दिया था। उनके प्रति वह अब तक अनजान थी, उनकी उपेक्षा करती थी। अब वही उसकी पहचान बन रहे थे।

उसका शरीर लाखों-लाख टुकड़ों में टूटता हुआ प्रतीत हुआ। अलबत्ता, हर टुकड़ा स्वतंत्र चेतना से भरा हुआ था, जीवंत था। असामान्य शक्तियाँ उसे अलग-अलग दिशाओं में खींच रही थीं। उसका माँस फट रहा रहा था। शरीर के जोड़ खुल गए थे। हडिडयाँ चूर-चूर हो गईं थीं। लेकिन इस बदलाव से वह खुद को अनंत शक्तिशाली महसूस कर रही थी। उसके भीतर खौफनाक रासायनिक परिवर्तन हो रहे थे। ऐसा लगता था, जैसे उसके पैरों के नीचे की धरती फटी हो, उसने उसे निगला हो और फिर वापस उगल दिया हो। हर तरफ से आवाजें तेज, और तेज होती जा रही थीं। इतनी कि उसके कानों से खून बहने लगा था। चमड़ी उधड़ गई थी। उसकी त्वचा ऐसी सफेद हो गई थी, जैसे ताजा गरम कोयले की राख हो। देखते ही देखते भयानक आवाज के साथ उसके शरीर से आग सी धधकने लगी। फेंफड़े धुआँ उगलने लगे। हवा का उनमें कतरा भी बाकी नहीं रहा। लेकिन आश्चर्य कि उसने ऐसे भयानक परिवर्तन को सहजता से झेल लिया।
अंबा का यह रूपांतरण अद्भुत और अचंभित करने वाला था।

वह कुछ देर पहले तक इंसान थी, लेकिन अब किसी भयानक दैत्याकार हिंसक पशु के रूप परिवर्तित हो गई थी। वह फिर औरत के रूप में बदल सकती थी, बशर्ते कोई जादुई स्पर्श उसे छूता। हालाँकि ऐसी किसी संभावना के लिए फिलहाल कहीं कोई जगह नहीं थी। वह बहुत तेज गति से सफेद धुंध के भीतर-बाहर हुई थी। वह आई तो उसका मुँह खुला हुआ था। जबड़ों से झाग निकल रहा था। आक्रोश से वह दहाड़ रही थी। उसकी पूँछ एक से दूसरी ओर हिलती हुई पसलियों और कमर से टकरा रही थी। वह उछल-उछलकर दुश्मन को घूर रही थी। उससे बचने के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी, लेकिन बदला लेने के लिए देरी नहीं हुई थी।

लोहे की माँसपेशियों वाले उस क्रूर, क्रोधित जानवर के सामने खड़े होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसके सामने हर ताकत मामूली थी। वास्तव में उससे भिड़ने का अंजाम तय था- भयानक दर्दनाक मौत। बड़े-बड़े धुरंधर भी अंबा को इस रूप में देखकर थर्रा उठे। भूत-प्रेतों, मायावी शक्तियों का समूह उनके सामने था। ऐसे दृश्य को अधिकांश लोग सिर्फ ‘पागलपन’ ही कह सकते थे और कुछ नहीं।

उस आभासी समूह में सबसे पहले जिससे उनका सामना हुआ, वह अंबा की तरह था। फिर भी उससे अलग था। उसकी आँखें सुलग रही थीं। वे उन्हीं को घूर रही थीं। यह दृश्य उन लोगों के लिए अप्रत्याशित, अकल्पनीय था। उनके देखते-देखते वह चेहरा विलुप्त हो गया। वह दरअसल, चेहरा था ही नहीं। धुंध में बनी महीन आकृति थी, जो वापस उसी में विलीन हो गई थी। उसके बाद उन लोगों के सामने उस धुंध में ऐसे अन्य कई चेहरे उभरे और गायब हो गए। सब के सब निष्प्राण और निर्दयी।

फिर जो अगली परछाई उभरी, वह बहुत बड़ी थी। सफेद और धूसर रंग की, दहकती हुई। उसने अपने नथुनों में जोर से जहरीली हवा भीतर खींची और फिर उसे बड़े वेग से बाहर छोड़ दिया। इतने जोर से कि सामने वाले की आँखों की रोशनी छिन जाए। उस परछाई ने बाकी सभी परछाईयों को निस्तेज कर दिया।

अचानक वह परछाई एकदम नजदीक नजर आने लगी। इतनी नजदीक कि जैसे दूरबीन से देखने पर कोई चीज बिलकुल पास में दिखाई देती है। वह भुतहा परछाई करकश आवाज के साथ कराहते हुए लगातार आगे बढ़ने लगी। धुंध उसके आस-पास से छँटकर पीछे इकट्‌ठी हो गई थी। मानो उसे वही धुंध आगे धकेल रही हो। कुछ ही पलों में वह परछाई किसी जानी-पहचानी औरत की तरह नजर आने लगी। उसकी गरदन पर चाँदी जैसी खुरदुरी रेखा थी।

वास्तव में ये वह निशान था, जो फाँसी पर लटकाए जाने की वजह से गले में उभर आया था और अब अजीब सा चमक रहा था। उसकी आँखें धँसी हुईं और निरजीव थीं। जला हुआ चेहरा वीभत्स हो गया था। सिर पर बाल नहीं थे। भौंहें नहीं थीं। जलने के कारण नैन-नक्श पिघलकर बेढंगे हो गए थे। सूरत भयानक विकृत थी। हाथ-पैर असामान्य तरीके से मुड़े-तुड़े हुए थे। जैसे आसमान की ऊँचाई से नीचे गिराए गए शरीर के हो जाते हैं। धीरे-धीरे, आखिरकार, वह आकृति पहचान में आई।

वह पटाला थी। पटाला का भूत सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था।

#MayaviAmbaAurShaitan

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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 

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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ

76 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन को जला दो! उसकी आँखें निकाल लो!
75 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन का अभिशाप है ये, हे भगवान हमें बचाओ!
74 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : किसी लड़ाई का फैसला एक पल में नहीं होता
73 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल दहाड़ा- बर्बर होरी घाटी में ‘सभ्यता’ घुसपैठ कर चुकी है
72 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: नकुल मर चुका है, वह मर चुका है अंबा!
71 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: डर गुस्से की तरह नहीं होता, यह अलग-अलग चरणों में आता है!
70 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: आखिरी अंजाम तक, क्या मतलब है तुम्हारा?
69 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: जंगल में महज किसी की मौत से कहानी खत्म नहीं होती!
68 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: मैं उसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकता, वह मुझसे प्यार करता था!
67 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उस वासना को तुम प्यार कहते हो? मुझे भी जानवर बना दिया तुमने!

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