Mayavi Amba-47

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

तहखाने में जंगली पौधे बोल्डो की अजीब सी गंध भरी थी। उसमें अम्लीय नमक और रात भर खौलते सरसों के तेल में डुबोई गईं बादाम के पेड़ की टहनियाँ भी मिली हुईं थीं। इस कवायद का मकसद बुरी आत्माओं को दूर भगाना था। तहखाने में बनी पटाला की यह प्रयोगशाला पत्थर की दीवारों से घिरी थी। इसमें बाहर से भीतर कुछ भी घुस नहीं सकता था, न धूल के कण, न सूरज की किरणें।

शाम होने को थी, जब अंबा इमारत के उस अंदरूनी हिस्से में दाखिल हुई। लेकिन जल्द ही पथरीले रास्तों की भूल-भुलैया में फँस गई। उसे समझ नहीं आया कि वह किस ओर जाए। तभी उसे कूछ दूरी से पटाला के मंत्रोच्चार की आवाज सुनाई दी। उत्सुकतावश वह उसी जगह ऊँचाई पर चढ़ गई और बाहर निकली चिमनी से झाँककर नीचे देखने लगी। वह जानना चाहती थी कि आख़िर पटाला इतनी देर से कर क्या रही है।

चिमनी के दूसरे छोर पर अंबा को अप्रत्याशित नजारा दिखा। एकदम हतप्रभ कर देने वाला। उसने देखा कि बड़ी गोलाकार मेज के अलग-अलग सिरों पर तीन घड़ियाँ रखी हैं। तीनों सटीक रूप से समान समय पर मिली हुईं हैं। पास में बैठी पटाला पूरी तल्लीनता के साथ पत्थर की बड़े भारी ओखल और मूसल की मदद से कुछ चूर्ण बनाने में लगी थी। चूर्ण की अपेक्षित मात्रा, आदि का वह पूरा ख्याल रखती जाती थी। सभी तरह के चूर्ण वह खास तरह के छोटे-छोटे बरतनों में रखती थी। फिर उसने बड़ी सावधानी से कोयले की आँच में पकाए गए रंग-बिरंगे मिश्रणों को उन बरतनों में डाला। मिश्रण डालते ही उनसे तेज धुआँ उठा और चटचटाने की आवाजें निकलने लगीं। लेकिन इससे बेपरवा पटाला ने उन बरतनों को अपनी बड़ी मेज पर एक-एक कर सजाना शुरू कर दिया। मेज पर उन छोटे-छोटे बरतनों की बढ़ती संख्या थोड़ी ही देर में ऐसी लगने लगी, जैसे दुश्मन पर हमले के लिए किसी सेना ने व्यूह बनाया हो।

और इसके बाद जो नजारा सामने आया, उसने अंबा को स्तब्ध कर दिया। पटाला पाताल लोक के उभयलिंगी देवता भदलोकी का आवाहन करने लगी। ताकि वे उसकी उस तांत्रिक क्रिया के साक्षी बनें, जो वह शुरू करने वाली थी। छोटे कद की वह डायन इस दौरान ऐसे झूमने लगी, जैसे अदृश्य नगाड़ों की धुन पर नाचती हो। इसके साथ वह अपनी लंबी अँगुलियों वाले हाथों में पकड़े पात्र से मगुए के फल का नशीला रस पीने लगी। कमरे की मद्धम रोशनी में नाचती हुई वह कुछ गाने लगी। उसके पैरों की धमक से आस-पास जमा की हुई काई जैसी मिट्‌टी नीचे गिर गई। इस वक्त वह अपने खूँख्वार पालतू जानवरों से कम खतरनाक नहीं लगती थी। उसी हालत में उसने कड़ाही में उबलते रंग-बिरंगे घोल को बड़े चमचे से हिलाया तो उसके सुर वातावरण में गूँज गए। इस वक्त एक कोने में लुंज-पुंज सी हालत में बैठा विशालकाय डोमोवई भी उसे घूर रहा था। लगता था, जैसे उसकी आत्मा भी वैसी ही राख में बदल गई हो, जैसे बूढ़ी डायन की त्वचा पर लगी कालिख।

पटाला के कुछ शब्द ऊपर से झाँक रही अंबा के कानों में पड़े थे…

छिपे रहो… काले परदे के पीछे… जैसे धुंध मेरी काली कामनाओं को छिपाए रखती है… बस, थोड़ा इंतजार और… मैं भी राह देखूँगी… फिर मैं तृप्त हो जाऊँगी… वह मेरी नजर में है… इस वक्त निराशा से भरी हुई… मेरे ठिकाने में… सहमी हुई… तसल्ली ले रही है… झपकी ले रही है… पर वही कमरा जिसमें उसने शरण ली है… जल्द ही… उसकी कब्र बन जाएगा… उसकी दर्द भरी चीखें मेरी आत्मा की खुराक बनेंगी… उसके दु:स्वप्न मुझे ताकत देंगे… फिर जैसे-जैसे वह कमजोर होती जाएगी… मैं निवाला-निवाला उसे खा जाऊँगी… दावत करूँगी…

मैं उसकी माँसपेशियों… और हडि्डयों… की दावत करूँगी… वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी… अंत में मेरी भूख कम होती जाएगी… मेरी लालसा… बढ़ती जाएगी… मैं और अधिक चाहूँगी… फिर किसी बेपरवा आत्मा का इंतजार करूँगी… जो मुझे तलाशती हुई आएगी… एक और…

इस तरह के भयानक बोल धीरे-धीरे धीमे पड़ गए। लेकिन अंबा पर्याप्त सुन चुकी थी। वह बुरी तरह डर गई। लिहाजा अपनी टॉर्च, पानी की बोतल और बंदूक हाथ में लेकर वह रेंगती हुई चुपचाप पीछे के दरवाजे से बाहर की ओर निकल गई। सामने का दरवाजा बंद था। आपातकालीन दरवाजा कुछ इस तरह ढँका-छिपा था कि उसे सिर्फ वही देख पाता, जिसे पहले से उसके बारे में पता हो।

एकदम घने अँधेरे में लड़खड़ाते हुए उसने इस नई जगह को देखने के लिए टॉर्च से रोशनी डाली। वह गुफा जैसी जगह थी। छत बहुत नीची। धूल से भरा, खाली और बर्फ सा ठंडा गलियारा था। टॉर्च की रोशनी से दीवारों पर कुछ विचित्र से चित्र चमक उठे थे। उनमें अजीब-व-गरीब जीव थे। मरे हुए उल्टे पड़े चूहे, बर्फ से फूले भंगुर और ऐसा ही कुछ ऊटपटाँग सा नजर आता था। 

#MayaviAmbaAurShaitan
—-
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
—- 
पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!
44 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “मुझे डायन कहना बंद करो”, अंबा फट पड़ना चाहती थी
43 – मायावी अम्बा और शैतान : केवल डायन नहीं, तुम तो लड़ाकू डायन हो
42 – मायावी अम्बा और शैतान : भाई को वह मौत से बचा लाई, पर निराशावादी जीवन से…. 
41 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अनुपयोगी, असहाय, ऐसी जिंदगी भी किस काम की?
40 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह
39 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह कुछ और सोच पाता कि उसका भेजा उड़ गया
38- मायावी अम्बा और शैतान : वे तो मारने ही आए थे, बात करने नहीं
37 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम्हारे लोग मारे जाते हैं, तो उसके जिम्मेदार तुम होगे

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *