मायावी अम्बा और शैतान : भाई को वह मौत से बचा लाई, पर निराशावादी जीवन से….

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

अंबा के दु:स्वप्नों का सिलसिला तभी से शुरू हो गया था, जब वह पैदल चल रही थी। उस वक्त उसने खुद को न जाने कैसे-कैसे स्वप्न-दु:स्वप्नों के बीच उलझा हुआ पाया था। उन्हीं में से एक था उसके बचपन में हुए उस खौफनाक हादसे का। तब का, जिस दिन उसके माता-पिता ने खुद को जिंदा जलाकर जीवनलीला खत्म कर ली थी। अंबा ने तब एक बार फिर अपने आप को उस जले हुए घर में खड़े देखा था, जहाँ उसका बचपन बीता था। तब जलती हुई लकड़ियों को खुद उसने अपने हाथों से हटाया था। उस हादसे के बाद जो लोग वहाँ जमा हुए थे, उन सभी के धुँधले चेहरे भी वह देख पा रही थी। एक-एक कर सभी कुछ तो याद आ रहा था उसे।

अब से करीब 18 साल पहले हुआ था वह हादसा। उस दिन की शुरुआत आम दिनों की तरह ही हुई थी। माँ को बीते कई दिनों से खाँसी चल रही थी। फेंफड़ों में बलगम जमा हो गया था। लगातार खाँसते रहने के कारण उसका चेहरा अजीब सा हो गया था। हमेशा वह खोई-खोई रहती थी। जिस रात उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, तब से ही वह ऐसी हो गई थी। बीमार, गुमसुम। उन्हीं हालात में उसने अंबा को उस रोज कोई काम बताकर घर से बाहर भेज दिया था। अंबा भी बिना कोई सवाल किए चुपचाप चली गई। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कुछ पूछने की। जाते-जाते वह पाँच सिक्के भी ले गई, ताकि लौटते समय थोड़े चावल खरीदकर ला सके। लेकिन जब वह लौटी तो घर धुआँ-धुआँ हो चुका था। मुख्य दरवाजा अब भी अंगारे सा दहक रहा था। जैसे-तैसे उसे धक्का देकर वह भीतर गई। वहाँ देखा तो आग अब तक धधक रही थी। तपिश के कारण पत्थर का फर्श जगह-जगह से चटक गया था। खिड़कियों पर कालिख जमा हो गई थी। पूरा फर्नीचर बेढंगा हो गया था। तस्वीरें खाक हो गईं थीं। दीवारों पर फफोले से पड़ गए थे। पपड़ियाँ टूटकर गिर रही थीं। और वहीं पलँग पर उसके माता-पिता के शव जले हुए पड़े थे।

पास ही एक कोने में उसका छोटा भाई नकुल दुबक कर बैठा था। डरा, सहमा, सिकुड़ा हुआ। आग उसके कपड़ों तक पहुँच गई थी, लेकिन सदमे के कारण उसे इसकी खबर तक नहीं थी। उसकी अँगुलियाँ उस जलती हुई रजाई में उलझी थीं, जिसमें उसकी माँ की देह लिपटी थी। यह देख अंबा ने बड़ी तेजी से नकुल को पहले उस रजाई से अलग किया। फिर वह उसे किसी तरह बचते-बचाते बाहर ले आई। उसके माता-पिता तो खाक हो चुके थे। लेकिन उसने अपने भाई को मौत से बचा लिया था। हालाँकि वह उसे भी एक निराशावादी जीवन से नहीं बचा सकी। नकुल अब हमेशा इस सदमे और नैराश्य की जकड़ में रहने वाला था। समय के साथ उस पर यह जकड़न और मजबूत होने वाली थी।

पाँच दिन बीत चुके थे और अंबा अब तक लगातार बेहोशी की हालत में थी। इतने दिनों से उसका शरीर दर्द के चरम को महसूस कर चुका था। तेज बुखार था, जो आज कुछ कम हुआ था। उसकी भौंहों और नाक पर पसीने की बूँदें छलक आई थीं। हालाँकि शरीर अब भी टूट रहा था। दवा की लगातार मिली खुराक के कारण कमजोर भी हो गया था। वह कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं थी। बस, कराह ही सकती थी। आँखों में खास तरह की ललामी अब भी छाई हुई थी। पलकें बंद थीं, लेकिन उसे अंदाजा हो चुका था कि आसमान में सूरज की चमक बिखर चुकी है।

इसके साथ ही उसका दिमाग अब यह भी अंदाज लगाने लगा कि वह इस वक्त आखिर है कहाँ। उसने अपनी आँखें खोली लेकिन सूरज की तेज रोशनी की चकाचौंध की वजह से फिर तुरंत ही बंद करनी पड़ गईं। इसके कुछ देर बार फिर से धीरे-धीरे आँखें खोलने का जतन किया। रोशनी के साथ तालमेल बिठाते हुए। आख़िर में उसने खुद को ठीक से देख पाने में अभ्यस्त पाया। अब वह आस-पास की चीजें देखने लगी थी। लेकिन तभी उसे उस कमरे की हवा में किसी खतरे का एहसास हुआ।

अंबा को एक झटके में ही महसूस हो गया कि उस कमरे में कोई और भी है। लिहाजा, वह सतर्क हो गई। उसने उस तरफ देखा, जहाँ उसे किसी दूसरे की मौजूदगी का अंदेशा था। उसका अंदेशा सही निकला। वह एक अजनबी औरत थी, जिसके साथ आँखें चार होते ही अंबा को जोर का झटका लगा था। उसे देख अंबा को सहसा भरोसा नहीं हुआ। उस औरत की आँखें पतली और लंबी सी थीं।

अंबा उसे देखकर भावनाओं के ऐसे ज्वार से गुज़र गई, जिसे बता पाना मुश्किल था। वह पूरी तरह नि:शब्द थी इस समय। उस महिला को परिचय की कोई जरूरत नहीं थी। अंबा को पता था कि वह पटाला है, जिसे छोटे कद की डायन कहा जाता है। कमरे में अंबा अभी उसी के साथ थी। हालाँकि खुशकिस्मती से इस वक्त न तो पटाला की कंटीली जुबान बाहर निकली थी और न उसके सिर पर पतले कीड़ों जैसे साँप ही रेंग रहे थे।

उस बूढ़ी डायन की काया ऐसी थी, मानो हड्‌डियों के ढाँचे पर खाल लपेट दी गई हो। खाल भी जगह-जगह से कटी-फटी हुई। उसे बार-बार सिले जाने के कारण टाँकों के निशान साफ दिखाई देते थे। त्वचा आश्चर्यजनक रूप से चिकनी और पीली थी। जैसे ज्यादातर समय जमीन के भीतर रहने वालों की हो जाती है। गालों की हडिडयाँ खोपड़ी की हड्‌डी की तरह उभरी हुईं थीं। उसके बाल घने, काले और भीगे हुए थे। उसने सादा, सूती लबादेनुमा चोला पहना हुआ था। जैसे अक्सर लोग रात में सोते समय पहनते हैं। वह एकदम चुपचाप खड़ी थी। आँखें ऐसी उनींदी थीं, मानो वे अनंत काल से नींद से दूर हों। और वे भी माथे की हड्‌डी में एकदम धँसी हुई थीं।

जबड़े पर एक बड़ी सी खरोंच थी। कानों सहित वहाँ तक का पूरा हिस्सा लटकते बालों से ढँका हुआ था। ठुड्‌डी के नीचे भी बालों का एक छोटा सा सुनहरा गुच्छा लटका हुआ था। हालाँकि कोई ध्यान से देखे तो पता चलता था कि वह गले के इर्द-गिर्द माँस का लोथड़ा था जिसे बालों ने ढक लिया था। दिन के समय उसकी आँखें अजीब किस्म की आड़ी सी रहती थीं। पुतलियाँ भी किनारों को झुकी हुईं और आयताकार, जिनसे सामने का दृश्य और व्यापक दिखाई देता था उसे। बहुत अलग किस्म की थीं उसकी आँखें।

#MayaviAmbaAurShaitan
—-
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
—- 
पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

41 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अनुपयोगी, असहाय, ऐसी जिंदगी भी किस काम की?
40 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह
39 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह कुछ और सोच पाता कि उसका भेजा उड़ गया
38- मायावी अम्बा और शैतान : वे तो मारने ही आए थे, बात करने नहीं
37 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम्हारे लोग मारे जाते हैं, तो उसके जिम्मेदार तुम होगे
36 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: ऐसा दूध-मक्खन रोज खाने मिले तो डॉक्टर की जरूरत नहीं
35- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : इत्तिफाक पर कमजोर सोच वाले लोग भरोसा करते हैं
34- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जो गैरजिम्मेदार, वह कमजोर कड़ी
33- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह वापस लौटेगी, डायनें बदला जरूर लेती हैं
32- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह अचरज में थी कि क्या उसकी मौत ऐसे होनी लिखी है?

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Neelesh Dwivedi

Share
Published by
Neelesh Dwivedi

Recent Posts

चिन्ता यह कि लगातार 104 दिन काम करते हुए वह समझ भी न सका और शरीर छूट गया!

दुनियाभर में 10 सितम्बर को ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाया गया। इस दौरान आत्महत्या के जिन… Read More

5 hours ago

आत्महत्या रोकथाम दिवस : ‘स्थिर’, ‘राही’, ‘पुष्पांजलि’…, अपनी डिजिटल डायरी!

दुनियाभर में हर साल 10 सितम्बर को ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाते हैं। इस बार भी… Read More

1 day ago

#अपनीडिजिटलडायरी के 4 साल : प्रयास 3 लोगों से शुरू, पहुँच 24,000 लोगों तक!

हमारी, आपकी #अपनीडिजिटलडायरी को आज ऋषि पंचमी के दिन चार साल हो गए। #अपनीडिजिटलडायरी की… Read More

2 days ago

‘बेटा पढ़ाओ, बेटी बचाओ’, वर्ना नेता, सरकार, कानून के भरोसे तो दुष्कर्म नहीं रुकेंगे!

सनातन संस्कृति में जिन सात पवित्र नगरियों का उल्लेख है, उनमें से एक उज्जैन। महाकाल… Read More

3 days ago

अपनी भाषा पर गर्व कीजिए, देखिए, ‘एक टीचर’ के लिए हमारे पास कितने शब्द हें!

दुनियाभर में अंग्रेजी की लोकप्रियता का बड़ा कारण क्या है, जानते हैं? इस भाषा का… Read More

5 days ago

‘शिक्षक दिवस’, ‘शिक्षक’ और स्कूली बच्चियों का बवाल! सोचिए, मर्यादा क्यों टूट रही है?

देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन 5 सितम्बर को… Read More

5 days ago