ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
भीड़ हक्का-बक्का होकर उस युवा ‘डायन’ को देख रही थी।
वे चाहते थे कि वह रोए। दया की भीख माँगे। जान बख्श देने के लिए गिड़गिड़ाए। लेकिन वह उन सबको उदासीनता से देखती रही, जिन पर पागलपन सवार था। और जब वह मुस्कुराती दिखी, तो वे लोग अधिक उग्र हो गए। वे उत्तेजित होकर खुसर-फुसर करने लगे कि इतनी बुरी तरह मारे-पीटे जाने के बाद भी इस लड़की में दहशत का नाम-ओ-निशान तक क्यों नहीं है! रैड हाउंड्स के जवान अंबा को कीचड़ भरे रास्ते से घसीट कर जुलूस की शक्ल में बैकाल जेल तक लाए थे। इस दौरान जगह-जगह उन्मादी भीड़ ने रास्ता रोक कर उसका तमाशा बनाया था। उससे छेड़-छाड़ की थी।
लेकिन ये वह लड़की नहीं, जो डर जाती। लोगों ने उसके चेहरे पर इस निडरता को बार-बार देखा था। यह देख वे अचरज में तो थे ही, घबराए हुए भी थे।
“क्या यह डायन है?”
“दिखती तो साधारण लड़की की तरह है। कुछ खास तो नहीं है!”
“अगर ये डायन होती, तो हम अब तक बचे रह पाते क्या?”
“बिलकुल। मुझे लगता है वे गाँव वाले इसके बारे में झूठ बोल रहे थे।”
“सच मानो, ये डायन-वायन नहीं है। मुझसे पूछो तो, मुझे यह धोखेबाज लगती है।”
“मुझे डायनों के बारे में ज्यादा नहीं पता, मगर मैं ये जानता हूँ कि किसी डायन का इतनी आसानी से जुलूस नहीं निकाला जा सकता। ऐसी सूरत में कुछ न कुछ बवाल तो जरूर होता है। ये कोई फर्जी, उपद्रवी किस्म की लड़की है।”
“पक्का, ये कोई आम लड़की ही है। इसे मेरे हवाले कर दो। देखना इसका क्या हाल करता हूँ! इसे जमीन पर पटककर कुतिया की तरह इससे अपने शरीर की भूख मिटाऊँगा। क्या इन बागी लड़कियों को इसी तरह से अपने जिस्म की आग शांत कर के मजा नहीं आता?”
इसी बीच, जब कुछ लड़कों ने उसे छेड़ा तो उसको उन पर हँसी आ गई। मानो, वह उस उन्माद से अब भी एकदम बेपरवाह थी, जो उसे मौत से बदतर हालात में धकेलने वाला था।
तभी अपने उन्मादी पिताओं की नकल कर शरारती आँखों वाले छोटे बच्चों ने भी जंगली लकड़ियों से उस पर चोट की। एक मोटे और गोल चेहरे वाले किसान ने उस पर चाबुक से वार किया। उस चाबुक में छोटी-छोटी गठानें थीं, जिससे वह ज्यादा चुभता था। वह चाबुक अंबा के गाल पर लगा और वहाँ से खून बहने लगा। इस पर जब उसने हमलावर को घूर कर देखा, तो डर के मारे वह वहीं जम गया।
यह जुलूस जब तक जेल के दरवाजे के सामने पहुँचा, तब तक माहौल भारी हो चुका था। आसमान पर बादल घिर आए थे, जो सूरज को ढँक रहे थे। थोड़ी ही देर में बादलों की विचित्र आकृतियाँ आकाश में दिखाई देने लगीं। लगा, जैसे आकाश ‘वहशी बादलों’ के खेल का मैदान हो। ऐसा महसूस होने लगा, जैसे ये बादल किसी आदिमयुगीन घटना की पूर्व सूचना दे रहे हों।
बैकाल खुद में नर्क के किसी प्रतीक की तरह था। भ्रष्टाचार उसके भीतर सड़े हुए माँस की तरह गंध मारता था। अंबा को जैसे ही इस जेल के भीतर लाया गया, पीछे से लोहे का भारी-भरकम दरवाजा जोर की आवाज के साथ बंद हुआ। इसे सुनकर अंबा एकबारगी सिहर उठी। उसे सीधे चलने के लिए अपनी पूरी ताकत बटोरनी पड़ी। उसने खुद को घिनौनी चिपचिपाहट और बदबू के मिले-जुले आवरण में घिरा हुआ महसूस किया। उसे लगा, जैसे दुनियाभर की गंद यहीं आकर समा गई है। ऐसे माहौल में उसे नहाने के लिए गर्म पानी की सख्त जरूरत महसूस हो रही थी।
उसके लिए बाकियों से अलग एक खास कोठरी नियत की गई थी। गंदे, मोटे, भूरे-पत्थर की दीवारें समय बीतने के साथ खारी भी हो गई थीं। एक मजबूत दरवाजा था। भीतर फर्श पर साँकल से बँधी थाली और स्टील का मग पड़ा हुआ था। लोहे का पलंग था। उस पर मोटे प्लास्टिक से लिपटा हुआ आधा इंच का फोम का टुकड़ा पड़ा था। गद्दे की तरह इस्तेमाल करने के लिए। हालाँकि वह उसकी कमर तक की लंबाई वाला ही था। इन हालात में सोने की उसे बिलकुल भी आदत नहीं थी। मगर उसके शरीर में इस वक्त ताकत भी नहीं बची थी। सो, वैसे ही अस्त-व्यस्त हालत में वह लेट तो गई, लेकिन थोड़ी सी देर में कई बार उसकी नींद टूटी। कोठरी में ऊपर छोटा सा एक रोशनदान था। वहाँ से सुबह सूरज की रोशनी आया करती थी। लेकिन बस, आधे घंटे के लिए। हालाँकि उस रोशनदान को भी कबूतरों ने गंदगी ने ढँक रखा था।
कुछ देर में ही, कुत्ते जैसी शक्ल वाला एक पहरेदार आया और चटखारे ले-लेकर उसे जेल के नियम-कायदे सुनाने लगा। पहरेदार ने बताया कि चूँकि उसे ‘खतरनाक कैदी’ माना गया है, इसलिए उस पर दूसरे कैदियों से अलग नियम लागू होंगे। इनमें एक यह है कि बाहर की दुनिया से उसका संपर्क पूरी तरह कटा होगा। इसके अलावा विशेष ‘परीक्षण नियम’ भी उस पर लागू होगा। इसके तहत उसे बर्फ जैसे ठंडे फर्श पर घंटों तक घुटने टेक कर बिठाया जाएगा। इस दौरान पूरे शरीर की जाँच होगी।
नियम-कायदे सुनाने वाला वह पहरेदार ठिगने कद का था। लेकिन मजबूत कद-काठी वाला। कुछ-कुछ सैनिकों जैसा ही। उसके जैसे लोग शायद ऐसे ही मौकों के लिए वहाँ रहते थे। वह पहरेदार हर 20 मिनट के अंतराल में उसकी कोठरी का मुआयना करता था। अंबा पर टॉर्च की रोशनी डालता और गौर से उसके पूरे शरीर का जाइजा लेता। उसकी जाँच करता। उसके ‘सुरक्षित’ होने की तसदीक करता और चला जाता। इस बीच, अगर किसी बार वह ‘थोड़ी भी सचेत’ मिलती, तो उसे इसकी सजा दी जाती। पीने के लिए पानी तक नहीं मिलता। इस प्रक्रिया के दौरान बार-बार कोठरी का दरवाजा खुलने और बंद किए जाने के शोर से अंबा के सिर में भयंकर दर्द होने लगा। उसे महसूस होता, जैसे अभी सिर फट जाएगा। तिस पर, लंबे समय से लगातार प्यासे रहने के कारण उसकी हालत और बिगड़ गई। शरीर का रक्षा तंत्र ध्वस्त हो गया। शरीर धीरे-धीरे सुन्न होता गया। अब न कोई वेदना थी, न संवेदना, और न ही किसी तरह की भावना। बेसुध हाल में उसने अपनी परवा छोड़ दी। समय बीतता गया। दिन से रात, रात से दिन…, कितने बीते उसे कुछ होश नहीं रहा।
ऐसे ही, एक रात जब अंबा की नींद टूटी तो उसने पाया कि दो खुरदुरे हाथ उसकी आँखों पर पट्टी बाँध रहे हैं। इसकी प्रतिक्रिया में उसने अपना एक हाथ थोड़ा ढीला किया और उस शख्स का शरीर तलाश कर उसके सीने पर अपने नाखून गड़ा दिए। फिर हाथ नीचे तक ऐसी जोर से खींचा कि उस आदमी के शरीर की चमड़ी उधड़ गई। वह दर्द से छटपटा उठा। लेकिन तुरंत ही, जवाब में उसने भी अंबा की छाती में जोर का मुक्का जड़ दिया। इससे पल भर के लिए उसकी भी साँसें थम गईं। इसके कुछ समय बाद उसने खुद को तहखाने में बनी काल-कोठरी में पाया। वहाँ धातु जैसी ठंडी और सीलन भरी गंध आ रही थी। आवाज के नाम पर सिर्फ उनके कदमों की आवाजें सुनाई दे रही थीं।
यहाँ उसकी आँखों से पट्टी हटा दी गई। नंगे बल्बों की रोशनी में अब वह अपनी साँसों की आवाजाही भी देख पा रही थी। उसने एक पुराने कैदी से इस यातना-कक्ष के बारे में सुन रखा था। इसे ‘जीरो लाइट स्ट्रेस पोजीशन आइसोलेशन रूम’ कहा जाता था। उसने ऊपर की तरफ नजर दौड़ाई और अंदाज लगाने की कोशिश की कि चौथी मंजिल से ऊपर छत पर पानी की टंकी कहाँ रखी होगी। फिर उसने छत के निचले हिस्से (सीलिंग) से लगकर कोठरियों की तरफ जाने वाली पाइप लाइनों पर निगाह दौड़ाई। वहाँ रखे लकड़ी के भारी मुड्ढों पर भी उसकी नजर गई। लेकिन पहले पहल वह सोच भी नहीं सकी कि वे कैदियों को बिठाकर प्रताड़ना देने के काम आते होंगे। जंजीरें भी थीं। सैकड़ों की संख्या में जंग लगी जंजीरें। छतों से, दीवारों से लटकी हुईं। कुछ जंजीरें कीलदार थीं, तो किन्हीं में लोहे की वजनदार गेंदें चिपकी हुई थीं। किन्हीं-किन्हीं में खूंटियाँ निकली थीं। जबकि लकड़ी वैसी ही चिकनी दिखाई देती थी, जैसी इंसानी त्वचा के लगातार घिसने के कारण हो जाती है।
तभी, जंग भरे बर्फीले पानी की मोटी, तेज धार उसके चेहरे से टकराई और वह बुरी तरह हाँफ गई। पानी में लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े थे, जो उसकी छाती से रगड़ खाकर नीचे गिरे। जुबान पर इस पानी से जिंक का स्वाद आ रहा था। पेड़ से झड़े हुए पत्तों की गंध आ रही थी। नाली के गंदे पानी की बदबू थी। ईंट, गिट्टी के टुकड़े भी थे। यह अच्छा था या बुरा, पता नहीं। मगर ऐसे पानी को पहचानती थी वह। अब वह कई घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी। अँधेरे में, निर्वस्त्र!
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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