Mayavi Amba-32

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह वापस लौटेगी, डायनें बदला जरूर लेती हैं

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

जितना उसे याद था, रोजी मैडबुल किसी की हत्या की योजना बना रहा था। किसी को मारने में उसे बड़ा मजा आता था। हत्या के लिए उसे कोई भी चीज उकसा सकती थी। कोई भी ऐसी चीज, जिसे लोग अमूमन अनदेखा कर दिया करते हैं, लेकिन वह नहीं करता था। बल्कि उसकी दिमागी क्रूरता का बही खाता, ऐसी ही चीजों पर नजरें गड़ाए रहता था।
किसी को मारने के बाद अक्सर वह कहा करता था, “देखो, कितना मजा है इसमें। मार डालने के आनंद को हमेशा से कमतर ही समझा गया है।”

मौत के साथ उसका यह याराना वर्षों पहले तब शुरू हुआ, जब उसके पिता की निर्ममता से हत्या की गई थी। उसके पिता ने तब अपने एक कामगार को इतना पीटा था कि वह मर गया। इसके बाद भड़के आदिवासियों ने उन्हें पीट-पीटकर मार डाला। वे अपने कर्मचारी पर इसलिए भड़क गए थे, क्योंकि उसने पगार बढ़ाने की माँग की थी। उनके लिए यह किसी गुस्ताखी से कम न थी। लिहाजा, वे उसे सख्त सजा देकर अपने उन दूसरे कामगारों के सामने नजीर पेश करना चाहते थे, जो तनख्वाह के लिए ऐसी ही उम्मीद बाँधे हुए थे। लेकिन उनकी बदकिस्मती कि जैसा उन्होंने सोचा था, वैसा नहीं हुआ। उसी दिन, जब वे अपने 12 साल बेटे रोजी के साथ बाजार से लौट रहे थे, तभी उन दोनों को आदिवासी लड़कों के एक समूह ने पकड़ लिया। वे बाप-बेटे को घसीटते हुए पहले से तय एक स्थान पर ले गए। वहाँ मचान जैसा बना हुआ था। उसे देखकर रोजी के मन में पहला खयाल यही आया कि उसे जल्दी-जल्दी में बनाया गया है। उस जगह रोजी को एक किनारे खड़ा कर दिया गया, ताकि वह घटनाओं को अपनी आँखों से देख सके। वहाँ उसने देखा कि एक जल्लाद किस्म का आदमी उसके पिता को फाँसी पर लटकाने की तैयारी कर रहा था। इसके लिए वह अलग-अलग रस्सियों को माप रहा था। अंत में उसने उपयुक्त रस्सी चुन ली और एक अतिरिक्त अपने पास रख ली। उन लोगों ने तब रोजी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया। वह तो उनके लिए बच्चा था, भोला-भाला और बेकसूर। उससे किसी को कोई खतरा भी नहीं था। हालाँकि उन्हें अंदाजा नहीं था कि यही बच्चा अपने दिमागी बहीखाते में जीवनभर इस घटना का हिसाब-किताब लिए घूमता रहेगा और उन्हें इसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगे।

निर्धारित समय पर स्थानीय लोगों का हुजूम उस मैदान पर जमा हो गया। रोजी के पिता को घोड़ों से जुती हुई बग्घी पर लाया गया और लकड़ियों के ढेर पर रख दिया गया। रोजी को बताया गया कि जल्द ही लकड़ियों का यही ढेर उसके पिता की चिता बनने वाला है। उसके पिता लगभग मृत अवस्था में पड़े थे। उन्हें इस तरह देखकर रोजी के मन में उनके प्रति दया का भाव नहीं आया। बस, बेचैनी हुई। बेइज्जती सी महसूस हुई और मन में एक सवाल आया कि उसके पिता उठते क्यों नहीं? अगर वह पूछ सकता, तो पूछता जरूर। पर हालात इसकी इजाजत नहीं देते थे। लिहाजा, वह ये देखने से पहले ही वहाँ से पैदल घर चला आया कि उसके अधमरे पिता को किस तरह उन लोगों ने फाँसी पर चढ़ाया और फिर जला डाला। लौटते वक्त उसके हाथ में पिता की खून से सनी कमीज थी और दिमाग में कभी न भूल सकने वाली बदसूरत यादें।

खून गंदा होता है, यह उससे बेहतर कोई नहीं जानता था। ये गंदा तब होता है, जब शरीर के दायरे से बाहर निकलता है। किसी प्राचीन समुद्री प्रणाली की तरह शरीर में लाखों छोटी-बड़ी नसों के भीतर दौड़ते हुए तो ये हमेशा साफ ही रहता है। पाँच लीटर खून शरीर के भीतर रोज नियमित रूप से करीब 19,000 किलोमीटर की कठिन यात्रा करता है। पर भटकता नहीं। उसकी एक बूँद भी कहीं बरबाद नहीं होती। लेकिन शरीर की सीमाओं से बाहर आते ही ये बेकाबू हो जाता है। सूख जाता है, अलग धाराओं में बँट जाता है, चटक जाता है, बदबू मारने लगता है, बेजान हो जाता है। खून को अगर जीवंत रहना है, तो उसे दायरे में रहना चाहिए।

रोजी मैडबुल मानता था कि बैकाल में कौन सा और कितना खून अपने दायरे में रहेगा, ये तय करने की ताकत सिर्फ और सिर्फ उसी में है। उसकी कैद से भाग निकलने की गुस्ताखी करके अंबा ने उकसावे की सारी हदें पार कर दी थीं। वहाँ की व्यवस्था छिन्न-भिन्न कर दी थी। सत्ता संतुलन बिगाड़ दिया था। एक लड़की उसे बेवकूफ बनाकर निकल गई, ये सोचकर उसके शरीर के भीतर उबाल मार रहा गुस्सा बेकाबू हुआ जाता था। लेकिन उसे पहले अपने गुस्से को काबू में रखकर भीतरी कमजोरियाँ दुरुस्त करनी थीं।

“उसने हाथ से हथगोले उठाए और उसे कुछ नहीं हुआ?”, रोजी मैडबुल ने अपने आदमियों से सवाल किया। इस वक्त उसके चेहरे पर क्रूरता के निशान खरपतवार की तरह फैले हुए थे।

“हाँ कर्नल, उसने हथगोले एक के बाद ऐसे उठाए, जैसे अंडे उठा रही हो”, पहरेदार ने घबराते हुए जवाब दिया।

“तुम कहते हो, इस आदमी ने खुद उसे ऐसा करते हुए देखा?”

“जी जनाब, बिलकुल।”

“अच्छा, तो गाँव में लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं?”

“मुसीबत। लोग उसे जीती-जागती मुसीबत समझते हैँ। उससे डरते हैं। सब उससे दूर रहते हैं।”

“लेकिन एक डायन? यदि वह ऐसी थी, तो उसने अपने तिलिस्म से सबको पत्थर का क्यों नहीं बना दिया? अभिशाप देकर पूरी जेल को भस्म क्यों नहीं कर दिया? उस विचित्र चुड़ैल औरत ने चुपचाप खुद को पकड़वा दिया! हमारी फौज के सामने हथियार डाल दिए! लगातार यहाँ पिटती रही! बार-बार उसके शरीर को रौंदा जाता रहा! और उसने पलक तक नहीं झपकाई?”

“शायद उसे मजा आ रहा था?”

यह सुनकर सभी ने जोर का ठहाका लगाया। लेकिन केवल मथेरा चिंतित लग रहा था।

“वह वापस लौटेगी”, उसकी बुदबुदाहट से अचानक पूरे माहौल में बेचैन सी खामोशी छा गई।

“डायनें बदला जरूर लेती हैं”, उसी वक्त किसी और की भी बुदबुदाहट सुनाई दी।

“मेरी खुशकिस्मती कि वह डायन नहीं थी।”

“वह डायन हो या न हो, पर जंगल में अब बचने वाली नहीं है। वहाँ खून के प्यासे इतने भयानक जानवर हैं कि हम सोच भी नहीं सकते।”

“वह डायन है या नहीं, इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं। वह गुलामजात धरती की किसी भी खोह में क्यों न छिपी हो, मुझे वह यहाँ, बैकाल में वापस चाहिए।”

मैडबुल की गरजदार आवाज में यह फरमान यूँ गूँजा, जैसे सेना के नगाड़े पूरी क्षमता से बज उठे हों।

“जी कर्नल।”

“वह अपने लिए मौत की भीख माँगेगी”, मथेरा ने वादा किया। उसने ऐसे इंसान की तरह यह बात कही, जो हमेशा जंग के लिए भूखा रहता था। ऐसा, जिसके लिए जितनी अधिक खूनी जंग, उतना बेहतर।

“लेकिन कुछ भी हो, बहुत दमदार वहशी थी वह! पूरी रात उसे लड़कों ने रौंदा, फिर भी वह लड़खड़ाई नहीं।”

“उसकी जगह कोई सभ्य औरत होती तो शरम न सही, दर्द से ही मर जाती। बेहया। जंगली”, मथेरा ने कहा।

“ये सब वहशी हैं। इनमें सभ्यता जैसी कोई चीज नहीं है। अधकचरे इंसान हैं ये। इसीलिए हमें इनसे छुटकारा पाना है। यहाँ अच्छी सभ्यता की नींव डालनी है।”

“अगर जोतसोमा के जंगलों के आस-पास डायन की मौजूदगी की कहानियाँ यूँ ही फैलती रहीं, तो यहाँ खनन के लिए लाइसेंस लेने कौन आएगा? यह तो एक अच्छे जीवन का अंत है?

“अगर यूँ हर तरफ चुड़ैलें मँडराती रहीं, तो कोई भी शख्स यहाँ कारोबार नहीं कर सकता।”

“कारोबार के लिए यह बहुत बुरी बात है। यहाँ कारोबार करने की इच्छा रखने वालों को पूरे समय डायनों के अभिशाप की ही चिंता लगी रहेगी।”

“भगवान की कसम, हम उन्हें मार गिराएँगे। हमें यही करना होगा।”
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

32- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह अचरज में थी कि क्या उसकी मौत ऐसे होनी लिखी है?
31- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब वह खुद भैंस बन गई थी
30- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून और आस्था को कुरबानी चाहिए होती है 
29- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं
28 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह तब तक दौड़ती रही, जब तक उसका सिर…
27- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-” उसने इतना कहा और…
26 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता
25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?

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