Mayavi Amba-28

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

धुंध में घिरा जोतसोमा जल्दी ही जमीन के नीचे से बाहर निकल आए जीव-जंतुओं के लिए जानलेवा खेल का मैदान बन गया था। सूरज ढलने के साथ भयानक माँसाहारी जानवर भी अपनी माँद से बाहर निकल आए थे। दिल दहलाने और खून जमा देने वाली उनकी आवाजों से पूरा जंगल गूँज रहा था। उसे अब तक ऐसे घने जंगल में झाड़-झंखाड़ और कटी हुई जड़ों के ऊपर से रास्ते का अंदाजा करते हुए चलने की आदत नहीं थी। इसीलिए वह जमीन पर किसी परछाई और खंदक में फर्क नहीं कर पा रही थी। भ्रमित हो जाती थी। भूख के कारण भी उसका बुरा हाल था। दिमाग काम नहीं कर रहा था। लिहाजा, उसने एक पेड़ पर से साही को पकड़ा और बहुत नजाकत के साथ उसे मारकर उसके काँटों को आग में झुलसा दिया। ताकि वह उसके हरेक अंग को पूरी तरह खाकर अपनी भूख मिटा सके। ऐसी भूख अक्सर उसे बचपन में महसूस हुआ करती थी। उन दिनों माँ उसे हमेशा एक-चौथाई भोजन ही देती थी। बाकी का तीन-चौथाई हिस्सा उसके भाई नकुल को दे दिया करती थी। माँ कहती थी कि लड़कों को ज्यादा खुराक की जरूरत होती है। हालाँकि इसके बावजूद उसे कभी माँ पर गुस्सा नहीं आया क्योंकि वह खुद कई-कई दिन तक भूखी रहती थी। लेकिन बच्चों को उनका एक-चौथाई और तीन-चौथाई हिस्सा हमेशा मिलता रहता था।

उसके सामने काली परत वाला बड़ा सा दलदल दूर तक फैला हुआ था। हालाँकि उसके चिपचिपे कीचड़ से बचते-बचाते किसी तरह उसने उसे पार किया। ठंड की वजह से उसकी नजर कमजोर सी हो गई थी। अब वह दौड़ने ज्यादा लड़खड़ाते और गिरते-पड़ते ही आगे बढ़ रही थी। अंदाज करती जाती थी कि जमीन पर किसी शिकारी जानवर के पंजों के निशान तो नहीं हैं। किसी शिकार को घसीटे जाने या पेड़ों के तनों पर किसी जानवर के पंजों की निशानियाँ तो नहीं हैं। हालाँकि उसे अपनी इस बेवकूफी पर हँसी भी आती थी क्योंकि वह समझ नहीं पा रही थी कि वह कितनी चीजों से डर रही है। इधर, ठंड भी लगातार बढ़ती जा रही थी। लिहाजा, उससे बचने के लिए वह एक गुफा में घुस गई। लेकिन वहाँ की हवा में अजीब सी गंध भरी हुई थी। माहौल एक अलग तरह के इतिहास की कहानी कह रहा था। किसी उन्माद की कहानी। मगर उसका कोई संकेत नहीं मिल रहा था। मालूम होता था जैसे समय के साथ घिस चुकी चट्‌टानों और सदियों पुराने पेड़ों ने मिलकर साजिश की है। उस इतिहास को छिपाने के लिए अजीब सा झाड़-झंखाड़ बना दिया है। इसमें सब था – गहरे लाल रंग की इधर-उधर फैली हुई जड़ें, काई, पत्थरों की चमकीली धार, देवदार की गिरी हुईं सूखी नुकीली पत्तियाँ। और इन सब के बीच उसे यूँ लग रहा था जैसे वह धरती के बड़े से गंदे टीले में घुस रहे किसी केंचुए की तरह हो। कि तभी तेज हवा के झोंके ने उसे पीछे धकेल दिया। अचानक सामने धुंध छा गई। उसमें सब कुछ ढँक गया और कुछ पलों में ही ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसकी त्वचा के हर खुले हिस्से पर बर्फीला स्प्रे कर दिया हो।

कुछ देर में धुंध कम हुई तो उसकी नजर सामने ठहर गई। वहाँ तीन शव पड़े हुए थे। तीनों पुरुष। उनके शरीरों पर बर्फ जमी थी। इससे वे डरावने भूरे नजर आ रहे थे। तीनों पीठ के बल पेड़ के तनों से लगकर बैठे थे। मरी हुई मछली की तरह उनकी आँखों की रंगत फीकी हो चुकी थी। खुला हुआ मुँह भी पीला, बदसूरत हो गया था। उनके चेहरों पर छोटी-छोटी लाल चीटियाँ रेंग रही थीं। वे उन सभी के खुले मुँह से कतारबद्ध भीतर-बाहर हो रही थीं। उनके भीतरी नाजुक अंगों को कुरेद-कुरेद कर अपने लिए भोजन का बंदोबस्त कर रही थीं। उसे बिल में जा रहीं थीं। यह सब देखकर पहले तो उसने उन शवों से दूर रहना ही ठीक समझा। उसे अपनी माँ की बात भी याद आ गई। वह अक्सर कहा करती थी कि मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं और उनके आस-पास किसी तरह के भी शोर से उन्हें भारी परेशानी होती है।

हालाँकि अगले ही पल उसके जेहन पर व्यावहारिकता हावी हो गई। उसका असर होते ही उसने खुद से कहा कि मरने वाले तो मर चुके। इनमें से कोई वापस नहीं आने वाला। तो फिर पीछे हटने का क्या मतलब है? ऐसा सोचकर उसने अपनी उबकाई रोकते हुए मरने वालों के लिए भगवान से दुआ की और सबसे छोटे कद वाले शव पर लिपटी वुडमैन की जैकेट खींच ली। लेकिन उसके भीतर शायद कोई छोटा-मोटा जानवर था, चूहा जैसा कोई। जैकेट खींचते ही वह उछलकर चट्‌टान से टकराया। हल्की सी आवाज भी हुई, जिससे वह एकदम सहम गई। ठिठक कर छिपने का ठिकाना तलाशने लगी। मगर जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि खतरे जैसी कोई बात नहीं है। उसने जैकेट को झटक कर साफ किया और कसकर अपने ऊपर लपेट लिया। फिर आस-पास नजर दौड़ाई तो पास ही गड्‌ढे में घास-फूस से ढँका हुआ एक पिंजरे जैसा कुछ दिखाई दिया। उसके इर्द-गिर्द भी झाड़-झंखाड़ और मलबा जमा था। उसे देखकर उसने सोचा कि इसमें घुसकर ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम जंगली जानवरों से तो वह बच ही सकती है। लिहाजा, उसे झाड़-फूँककर वह उसमें छिपकर बैठ गई। उस समय वह ठंड से ठिठुर रही थी। भूखी और थकी हुई भी थी। इसलिए तुरंत ही उसकी आँख लग गई। सपना देखने लगी कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे हैं। वह उनसे बचने की हरसंभव कोशिश कर रही है लेकिन उन्हें उसके हर अगले कदम का सटीक अनुमान है। सपने में यह सब देखकर वह बुरी तरह कसमसाने लगी। प्यास से गला सूख गया। सिर घूमने लगा। आती-जाती हर साँस के साथ छाती दर्द से फटने लगी और उसकी नींद टूट गई।
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

28 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह तब तक दौड़ती रही, जब तक उसका सिर…
27- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-” उसने इतना कहा और…
26 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता
25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
21- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी, निर्वस्त्र!
20- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : उसे अब यातना दी जाएगी और हमें उसकी तकलीफ महसूस होगी
19- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : फिर उसने गला फाड़कर विलाप शुरू कर दिया!

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