Mayavi Amba-25

‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

ये सन्नाटा तब टूटा, जब ‘उस पैर’ ने उसे फिर कुरेदा। नींद के बोझ से उसकी आँखें बोझिल थीं। चिपचिपी जुबान सूजकर दोगुनी मोटी हो गई थी। सिर भयानक दर्द से फट रहा था। आधी नींद से वह बेसुध हो रही थी कि तभी उसके उस बेजान से शरीर को घसीटते हुए दूसरी कोठरी में ले जाया गया। उसके हाथ बँधे हुए थे और वह जमीन पर पड़ी हुई थी, असहाय। यूँ कि जैसे कोई परकटा पंछी पड़ा हो। तभी उसके हाथों और पैरों के चारों ओर फोम जैसा कुछ लपेट दिया गया। सिर को कपड़े से ढँक दिया गया। अब तक उसने भी छटपटाना बंद कर दिया था। बजाय अब चेहरे पर ओढ़ाए गए कपड़े के भीतर से साँसों को नियमित रखने की कोशिश करने लगी थी। दिमाग में भयंकर ख्याल आ रहे थे कि क्या वह अकेली है? या उसे कोई देख रहा है? उसके आस-पास कोई एकाध आदमी है? या फिर कई सारे लोग उसे अपनी हवस का शिकार बनाने वाले हैं? अपने जिस्म की भूख मिटाने के बाद ये लोग उसे जिंदा छोड़ेंगे? या मार देंगे? ऐसे न जाने कितने ख्याल दिमाग में दौड़ रहे थे। दिल में नफरत उभर आई थी। उसके असर से वह काँप रही थी।

दूसरी तरफ, उन लोगों के चेहरे किसी धारदार हथियार की तरह चमक रहे थे। अंबा ने उन आदमियों को अब तक देखा नहीं था। लेकिन वह उन्हें महसूस कर पा रही थी। इसी बीच, किसी ने उसकी शर्ट के बटन खोलकर उसे उसके जिस्म से हटा दिया। खुरदुरे हाथों ने उसकी पैंट को भी बंधन मुक्त कर उसे उसके टखनों के नीचे तक सरका दिया। इसके बाद एक परछाई उसके ऊपर सवार हो गई। अंबा अब कुछ और सोचने-समझने की हालत में नहीं थी। उसने कराहते हुए अपने पैर मोड़ लिए और पूरे शरीर को भींचकर खुद को किसी गेंद की सूरत में बदल लिया।

आँखों पर बँधी पट्‌टी की वजह से अंबा को ज्यादा कुछ दिख नहीं रहा था। अब तो उसने सोचना भी बंद कर दिया था। कौन कब आया। कब उसके ऊपर सवार हुआ। कब उसने खुद को खाली किया और कब चला गया। उसके जेहन में कुछ भी दर्ज नहीं हो रहा था। और इस हाल में संघर्ष करने का तो कोई मतलब ही नहीं था। वह तो बस, इंतजार में थी कि उसके शरीर से लेकर आत्मा तक को रौंद देने वाला यह सिलसिला कब रुकेगा। उसकी आँखों पर पट्‌टी थी। फिर भी वह उन चेहरों की चमक को महसूस कर रही थी कि तभी वह पट्‌टी आँखों से‌ सरक गई।

“देखा, मैंने कहा था तुम लोगों से, ये कोई डायन-वायन नहीं है। ये सिर्फ एक छिनाल है, छिनाल।”

“सुना तूने? किस्मत वाली है तू। कर्नल तुझे जिंदा रखना चाहता है।”

“वैसे, इसकी आँखों को तो देखो! कैसे घूर रही है!”

“तू हम सब को कोई शाप-वाप तो नहीं दे रही है चुड़ैल?”, इसके बाद एक जोर का ठहाका गूँजा। वे सभी उस पर तरह-तरह के तंज कस कर उसका मजाक उड़ा रहे थे।

“जल्द ही पता चल जाएगा तुम सबको”, जख्मी अंबा जैसे फुफकार उठी।

“अच्छा, एक बात बता, अगर तू डायन होती तो क्या मैं तुझे यूँ छू भी पाता? तुझे ऐसे पैरों से ठोकर मार पाता? और तू ऐसे बेबस देखती रहती? नहीं न? तू कोई डायन-वायन नहीं है, समझी!”

“ये बस, छिनाल है। देखो, इसके साथ मैं क्या करता हूँ अभी!” इसके बाद उस आदमी ने अपना हाथ उसकी छातियों पर रख दिया और उन्हें बेरहमी से मसलने लगा।

“लगता है, इसे भी मजा आ रहा है!”, इसके बाद फिर वहाँ जोर का ठहाका गूँजा।

तभी अंबा ने न जाने कहाँ से पूरी ताकत जुटाकर खुद को आजाद करने के लिए जोर लगाया। चेहरे पर ढँका कपड़ा दाँतों से काटकर फाड़ने लगी वह। उसके होंठों के पास ही एक आदमी की अँगुली थी। वह उसके मुँह में आई तो उसने उसे भी चबा डाला और अँगुली का कटा हुआ टुकड़ा दूसरी तरफ थूक दिया। उसके मुँह से अब उस आदमी का खून बह निकला था।

“आहहहह….. साली डायन ने काट लिया मुझे, काट लिया! मेरी अँगुली – मेरी अँगुली आग की तरह जल रही है”, वह दर्द से बिलबिलाकर चीख उठा। उसकी चीखें पूरे कमरे में गूँजने लगीं।

“इस नीच पर कपड़ा डालो – अब तू देख, तूने कितनी बड़ी गलती कर दी है और इसका अंजाम क्या होता है।”

इधर, अंबा की आँखों में चमक थी। उसने हँसकर उन सबको पास आने के लिए ललकारा।

“सुई लेकर आओ रे। अब जल्दी ही इसकी अकल ठिकाने आएगी। अच्छे-अच्छों की आ चुकी है।” वे खुद को क्रूर और सख्त दिखाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन वास्तव में डर के निशान उनके चेहरों पर दिखने लगे थे। उसके प्रतिकार ने उन सभी के सामने एक लक्ष्मण-रेखा खींच दी थी, जिससे वे बुरी तरह घबराए हुए थे।

“इतने से ही डर गए कुत्तो”, अंबा उन्हें इस हाल में देखकर मुस्कुराते हुए बोली। हालाँकि, वह अब तक समझ नहीं पा रही थी कि उसमें हितनी हिम्मत आई कहाँ से।

“धोखेबाज, दोगली! मैं साबित कर दूँगा कि तू कोई डायन नहीं है, तू छिनाल है।”

उसके चेहरे पर अब एक मुक्का पड़ चुका था। इसकी वजह से बह निकले खून को चाटते हुए उसने हमलावर को यूँ घूरा, जैसे कह रही हो, “तुम सबको तुम्हारे गुनाहों की सजा मिलेगी। सब मरोगे।”

“इसकी आँखें! देखो तो इसकी आँखें! आँखें ढँको, इसकी! फोड़ दो इस डायन की आँखें! मैंने सुना है आँखों में ही डायनों की शक्ति हुआ करती है”, किसी ने कहा और दूसरे ने उसके कानों तथा मुँह में फोम ठूँस दिया। इसके बाद कपड़ा ठूँसा और उसे बेहोशी की इंजेक्शन लगा दिया।

अभी एक पल भी नहीं बीता था कि उस पर ताबड़तोड़ घूँसों की बरसात होने लगी। यह तब तक होती रही, जब तक कि उसके मुँह का कपड़ा खून से लथपथ नहीं हो गया। कुछ देर बाद मुक्के बरसाने वाले ही थक गए शायद। या फिर उन्हें अपनी मौज-मस्ती की याद आ गई। शराब, कबाब, औरतें और रंगरेलियाँ उनका इंतिजार कर रही थीं। लिहाजा, एक-एक कर वे वहाँ से चल दिए। बहकर आया खून अंबा के कानों के पास जमा हो गया था। वह निढाल हो चुकी थी। कान सुन्न हो चुके थे। बर्बर हमलों से उसका शरीर बुरी तरह टूट गया था। वह दर्द से कराह रही थी।

सुबह होने तक पूरी रात वह फर्श पर बेजान सी पड़ी रही। माँ के गर्भ में जैसे बच्चा सिकुड़ कर रहता रहता है, वैसे। रात भर वह अकेली थी। लेकिन डर के कारण उसने शरीर का एक हिस्सा भी हिलाया-डुलाया नहीं था। हालाँकि मन न जाने कहाँ-कहाँ भाग रहा था। बीती यादें मूक फिल्म की तरह जेहन में चल रही थीं। माँ के पैरों से उस रोज खून टपक रहा था। उसके साथ कई आदमियों ने बलात्कार किया था। लेकिन छोटी सी अंबा को पता भी नहीं था कि बलात्कार होता क्या है। वह तो माँ को खो देने के डर से सहमी हुई थी। उसे डर था कि रहस्यमयी ताकत वाली ‘मौत’ कहीं उसकी माँ को उससे छीन न ले जाए। उसने अपनी माँ के शरीर में मौत की झलक देखी थी। उसके चेहरे की निर्मल शान्ति गायब थी। चेहरा विकृत हो गया था। सूजी हुई पलकों के पास की चमड़ी कई जगह से फट गई थी। उन दरारों से माँस बाहर झाँक रहा था। इस वक्त सब याद आ रहा था अंबा को। माँ की त्वचा राख के जैसे रंग वाली हो गई थी। अँगुलियाँ आपस में चिपक गईं थीं। कपड़ों पर जगह-जगह खून के निशान थे। माँ को इस हाल में देखकर उसके भाई तो उस रोज जैसे लकवा मार गया था। निसहाय हो गया था वह। “वे तीन लोग थे, वर्दीधारी। तीन लोग थे, तीन लोग!” एक अलग किस्म की गंध भी आ रही थी। “उन्होंने मुझ पर पेट्रोल फेंका – वे मुझे जलाने वाले थे, जलाने…”। उस अभागे दिन से मौत आने तक माँ लगातार यूँ ही बड़बड़ाती रही। काँपती रही, थरथराती रही।

स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता। यह तो फावड़े से जमीन खोदने जैसा होता है। फावड़ा चलता जाता है और जमीन कुछ न कुछ उगलती जाती है। कभी भूली-बिसरी यादें। कभी मानसिक उद्वेग। कभी भावनाएँ। रात में जैसा किसी दु:स्वप्न में होता है, अंबा ने पूरा जोर लगाकर चीखना चाहा। लेकिन आवाज नहीं निकली। उसने देखा कि उसका अतीत आज उसी का वर्तमान बन चुका है।
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
21- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी, निर्वस्त्र!
20- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : उसे अब यातना दी जाएगी और हमें उसकी तकलीफ महसूस होगी
19- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : फिर उसने गला फाड़कर विलाप शुरू कर दिया!
18- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : ऐसे बागी संगठन का नेतृत्त्व करना महिलाओं के लिए सही नहीं है
17- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सरकार ने उनकी प्राकृतिक संपदा पर दिन-दहाड़े डकैती डाली थी
16- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अहंकार से ढँकी आँखों को अक्सर सच्चाई नहीं दिखती
15- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : ये किसी औरत की चीखें थीं, जो लगातार तेज हो रही थीं

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