ऋचा लखेड़ा की पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’
ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
# नवीनीकरण #
हर बार जब हम कोई शिकार करते, तो वह दिल से हमारा साथ देती थी। ऐसे मौकों पर वह हमारा विस्तार बन जाती थी। लेकिन हर बार जब हम अपने शिकार को मारते, तो वह खुद को हमसे दूर कर लेती थी। वह फिर इंसान की तरह बरताव करने लगती थी।
शिकार उसको हमारे साथ जोड़ता था, लेकिन उसी शिकार की मौत से होने वाला अफसोस और दुख उसे हमसे दूर भी कर देता था। यह एहसास उसे फिर इंसान बना देता था। यही उसके और हमारे बीच का अंतर था। यह बड़ी पहेली थी, जिसका बार-बार दोहराया जाना निश्चित था। जो बार-बार दोहराई जा रही थी।
वह बहुत आजादख्याल थी। उसकी और हमारी हदें हमारे शिकार और उसके दुख के बीच में ठहरी थीं। इसलिए हम कभी एक नहीं हो सके।
विचार ईथर की तरह हलके और इतने घने थे कि किसी दिमाग में समाहित नहीं हो सकते थे। ऐसे उमड़ते-घुमड़ते की धारा के साथ वह उतने नीचे तक गई, जहाँ से यह सब शुरू हुआ। जहाँ उसके भविष्य की बुनियाद पड़ी। फिर उसके बाद जो कुछ भी दर्ज हुआ, सब समझ से परे और अराजक था।
वह नव-जागरण बहुत पीड़ादायक था। इतना कि दिमाग सुन्न हो जाए। अपने खुद के शरीर को जन्म देना भी शायद उस पीड़ा की तुलना में कम कष्टकारक होता होगा। अपनी त्वचा से अलग होकर हरेक कोशिका का दोबारा जीवित होना। हर कोशिका का फिर जीवंत रक्त से भर जाना। माँसपेशियों का टूटना और दोबारा आकार लेना। इस सब के दौरान उसकी दर्दनाक चीखों ने पूरी घाटी को दहला दिया था। उसकी चीखें घाटी की तलहटी तक सुनी गई होंगी। समय तक हाथ से फिसल गया था, जैसे कई बार खतरनाक दरारों से बरतन फिसल जाता है। उसने एक साथ कई वास्तविकताओं में जिया था। इनमें से जब वह किसी एक अस्तित्त्व से दूसरे में प्रवेश करती, तो पिछले वाले को भूल जाती थी। तब ऐसे हालात में उसने उन तमाम वास्तविकताओं के बीच खुद को ढीला छोड़ दिया। वह उनके साथ डूबने-उतराने, गोते लगाने लगी। वरना, वह उनके बीच फँस सकती थी।
इस बीच, उसने कई बार वापस लौटने की कोशिश की। कई बार जागने का प्रयास किया। लेकिन हर बार उसके सफल होने से पहले ही इंसानी दुनिया के दरवाजे बंद होते रहे।
फिर जब उसने साँस लेना बंद कर दिया, तो उसकी आत्मा एक ठंडी सी धुंध में तब्दील हो गई। अब उसे न भूख महसूस होती थी, न प्यास, न ठंड, न गरमाहट। वह निराकार हो गई। अस्तित्त्व की बाहरी हदों तक पहुँच गई। अब उसका स्वयं का अस्तित्त्व न्यूनतम हो गया। वह हडि्डयों, ऊतकों के बीच कहीं सिमट गई थी। बाहर किसी और दुनिया से घिरी हुई थी। उसकी आत्मा माँस के पिंजरे से आजाद हो गई थी। चरम सीमा तक पहुँच गई थी। ऐसा न पहले हुआ और न आगे होने वाला था। यह सब बस, उसी दौरान हो रहा था।
एक वक्त ऐसा भी आया, जब भौतिक रूप से उसका अस्तित्त्व लगभग शून्य हो गया। इस बीच, हम कई बार सतह पर नजदीक आए। तब उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। वह कोई प्रतिरोध करने की स्थिति में ही नहीं थी। तब समय रहते हमने दखल दिया। उस वक्त जब जीवन अपनी आखिरी डोर छोड़ने के लिए रास्ता खोज रहा था, हमने हालात का रुख मोड़ने की कोशिश की, और हमने उसे पा लिया।
हमने बीज लगाया। उसे बढ़ाया, और तब तक बढ़ाया जब तक कि हमने उसको पूरी तरह अपने घेरे में नहीं ले लिया। हमने सभी द्वार बंद कर दिए। तब कहीं जाकर बाहर की ओर उसके रुख का रिसाव बंद हुआ।
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नाथन रे ने कुछ दिन पहले सिटी अस्पताल के जिस डॉक्टर की देखरेख में अंबा को भर्ती किया था, वह हतप्रभ था। ऐसी अकल्पनीय घटना देखकर कोई भी भौंचक रह जाता। चिकित्सकीय रूप से जिस लड़की को मरा हुआ मान लिया गया था, वह फिर जिंदा हो गई थी। वह भौंचक्का डॉक्टर जब थोड़ी देर बाद कुछ बोलने की हालत में आया, तो उसने इस घटना को ‘चमत्कार’ घोषित कर दिया। आगे की जाँच-पड़ताल के दौरान उस लड़की के गले में लटके लॉकेट में एक हरा-भूरा सा पत्थर जड़ा हुआ पाया गया। वह पत्थर बीच से दो टुकड़ों में टूटा हुआ था। पत्थर के अंदरूनी हिस्से में ठोस लोहे से भी मजबूत काँच जैसा हरा पदार्थ मिला। बाद में अस्पताल ने यह मामला बंद करते हुए जो रपट बनाई, उसमें इसी पदार्थ को लड़की की जान बचाने का जिम्मेदार माना। रपट में लिखा गया कि लड़की को लगी प्राणघातक गोली को इसी पदार्थ ने झेला होगा।
उसके शरीर पर और गोलियाँ भी लगी थीं, लेकिन वे सब उसके दिल, जिगर, आँतों जैसे तमाम नाजुक अंगों को बाल-बाल बचाते हुए शरीर से बाहर निकल गई थीं। एक तरफ से जैसे आईं, दूसरी तरफ से वैसे ही निकल गईं। अलबत्ता, इनमें से कोई भी गोली एक मिलीमीटर भी इधर-उधर होती, तो उस लड़की की दर्दनाक मौत तय थी। इतनी गोलियाँ लगने के बाद उसका खून भी खूब बहा था, लेकिन वह लड़की बड़ी किस्मत वाली थी। इसीलिए, भौंचक्का डॉक्टर बार-बार दोहरा रहा था- वह बच गई, वह बच गई, ये चमत्कार है।
अंबा के भीतर एक ज्वार की तरह जीवन का संचार हुआ। उस ज्वार में तमाम अपशकुन-निवारक भी घूमने लगे। कई विचार जेलीफिश और उसके तनों की तरह झूलते महसूस हुए। ऐसे, जैसे गर्भनाल से जुड़ा कोई भ्रूण तैरता है। या फिर पेड़ से कटकर गिरा पत्ता लहराता है या अपनी जड़ों से कटा कोई शरणार्थी होता है। बेहोशी की हालत से वह लड़खड़ाती हुई होश में आई तो उसकी नसों में गरमी दौड़ गई। सीने में ऐसी भन्नाहट होने लगी, जैसे सरदियों के मौसम में मधुमक्खियाँ भिनभिनाया करती हैं।
उसके जेहन में यादों का सैलाब फूट गया। ये यादें किसी क्रम में नहीं आईं, बेतरतीब आईं। वे तमाम हालात जिनका इस जन्म में उसने सामने किया, वे खुशियाँ, वे दुख, जो उसने भोगे। वह गुस्सा, जो उसने महसूस किया। वह दर्द, जो उसने झेला। सब कुछ उसके दिमाग में घूमने लगा। इसके साथ ही बड़ी तेज रोशनी के साथ एक विचार भी कौंधा।
विचार यह कि अब तक उसका पूरा जीवन अंधकार और गहराई में था।
लेकिन अब वह खुद अथाह गहरा पानी है।
उसके भीतर रहने वाला प्राणी है वह।
वह क्यों किसी से डरे?
वह स्रोत है।
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# जब हम आएँगे, तो तुम क्या करोगे? #
उस आदमी के बाल पूरे सफेद हैं। उसकी चमड़ी प्रयोगशाला में प्रयोग के लिए लंबे समय तक कैद रखे जाने वाले जानवरों की तरह चमक रही है। उसका मोम जैसा चेहरा पीला पड़ चुका है। मानो पीला चाँद हो। उसका सिर उसके कंधों और पैरों के लिए भारी बोझ की तरह महसूस होता है। जिस जगह वह है, वहाँ सूरज की रोशनी न के बराबर है। वह भारी-भारी साँसे ले रहा है। गले से नीचे थूक गटकते हुए पागलों की तरह यहाँ-वहाँ भाग रहा है। बर्फ सी ठंडी त्वचा में गरमाहट लाने के लिए वह बार-बार हथेलियों से चेहरे को रगड़ रहा है।
ये… ये क्या हो रहा है……. ये मेरी त्वचा को क्या हो रहा है?…….. मैं कुछ महसूस नहीं पा रहा हूँ…….. मैं अपनी त्वचा को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ…… ये मेरी त्वचा, मेरी जीभ जलती हुई क्यों महसूस होती है?
शायद उसने हमारे आने की आहट सुन ली है। या शायद हमारे गुबार ने उसे हमारे आने का संकेत दे दिया है। उसकी आँखें फट रही हैं। उसका सिर कंकाल खोपड़ी में बदल रहा है। डर के मारे वह एक कोने में जा दुबका है।
हमने उसके डर को भाँप लिया। ये डर सचमुच का है, जीवंत है, लगातार बढ़ता हुआ। हम उसे भकोस लेना चाहते हैं। हमने उसके भय की डोरी को जोर से खींचा और ऐंठ दिया। मैडबुल के गले से लंबी चीख निकली और उसका चेहरा अकड़ गया।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
80 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल के कृत्यों को ‘आपराधिक कलंक’ माना गया
79 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जीवन की डोर अंबा के हाथ से छूट रही थी
78 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वहाँ रोजी मैडबुल का अब कहीं नामो-निशान नहीं था!
77 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह पटाला थी, पटाला का भूत सामने मुस्कुरा रहा था!
76 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन को जला दो! उसकी आँखें निकाल लो!
75 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन का अभिशाप है ये, हे भगवान हमें बचाओ!
74 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : किसी लड़ाई का फैसला एक पल में नहीं होता
73 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल दहाड़ा- बर्बर होरी घाटी में ‘सभ्यता’ घुसपैठ कर चुकी है
72 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: नकुल मर चुका है, वह मर चुका है अंबा!
71 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: डर गुस्से की तरह नहीं होता, यह अलग-अलग चरणों में आता है!
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