ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
लेकिन रोजी मैडबुल की किस्मत भी जोरदार थी। दूर-दराज के होरी पर्वतीय इलाके में जहाँ उसे सजा के तौर पर तैनात किया गया, वहाँ जमीन के नीचे सोने की मौज़ूदगी के संकेत मिल गए। इसके बाद तो रातों-रात कर्नल मैडबुल के खिलाफ शिकायतें दबा दी गईं। इस मौके को मैडबुल ने भी पूरी तरह अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की। अपनी व्यावसायिक बुद्धि का इस्तेमाल किया और सोने की खोज के लिए मिलने वाले संभावित लाइसेंस पर एक मानक कटौती की माँग कर डाली। इस तरह वह अपनी नई तैनाती को मुनाफे का सौदा बनाने में जुट गया। अब कैदियों के बारे में यहाँ कोई किसी से पूछ नहीं रहा था। व्यापार के गणित में वे गौण हो गए थे। बस, नाथन रे को ही उनकी चिंता थी।
नाथन के बैकाल पहुँचने पर मैडबुल के दिमाग में पहला ख्याल यही आया कि वह उसे काबू करने के मकसद से वहाँ आया है। वैसे, यह परिसर मूल रूप से पहले मठ था। इसकी दीवारें असाधारण रूप से मजबूत कंक्रीट से बनाई गई थीं। पत्थर की छत 15 फीट ऊँची थी। दिन और रात के समय कभी भी छन-छन कर धुंध भीतर घुस आया करती थी। इससे पूरा माहौल रहस्यमय हो जाता था। परिसर 83 एकड़ में फैला हुआ था। उसे छोटे-छोटे खंडों में बाँट दिया गया था। उन खंडों को फिर और छोटे कक्षों में बाँटा गया था। लोहे के दरवाजों और यांत्रिक जालियों ने भीतरी हिस्से को और छोटे, कबूतर के दड़बों जैसी कोठरियों में तब्दील कर दिया था। इन कोठरियों में कैदी रखे जाते थे। गलियारे में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दरवाजे थे, जहाँ कैदियों को हर दो कदम पर रोका जाता था। जेल के भीतर 10 फीट का एक कमरा था। वहाँ कैदियों को आते-जाते वक्त दो बार ठहरना होता था। यह ठहराव कितनी देर का होगा, ये इस बात पर निर्भर करता था कि कैदियों को भीतर आने या बाहर जाने की अनुमति कितनी तत्परता से दी गई है।
ये देखकर नाथन को यह समझने में देर नहीं लगी कि पूछताछ के लिए बनी कोठरियाँ बिलकुल वैसी ही थीं, जैसी चिट्ठी में बताई गईं थीं। जहाँ रात को “चीखें और सिसकियाँ” सुनी जाती थीं। जिनके बारे में पहरेदारों ने बताया था कि वे “पहले सजा देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कोठरियाँ थीं। वहाँ नियमित रूप से कैदियों को नकाब ओढ़ाकर लाया जाता था। फिर कुरेद-कुरेद कर, तरह-तरह की यातना देकर पूछताछ की जाती थी। पता लगाया जाता था कि वे किसके लिए काम करते हैं? उनके सहयोगी, साथी कौन हैं? उन्होंने क्या, कैसे, कितने अपराध किए हैं? आदि।” करीब 200-300 साल तक इस जेल का इस्तेमाल राजनीतिक बंदियों के लिए किया गया। यहाँ कालकोठरियों की दीवारों पर उनमें से कईयों के नाम अब तक खुदे हुए थे। यह सब जायजा लेते-लेते वह ये तक भूल गया कि कितनी ही बार उन कैदियों के बारे में सोच-सोचकर उसका दिल बैठ गया था, जिन्होंने यहाँ जिंदगियाँ गवाँ दीं। उन बेचारों के नाम-ओ-निशान तक मिट चुके थे। उनके नाम, पते सहित कोई भी जानकारी अब नहीं बची थी, सिवाय उसके जो उन्होंने मरने से पहले यहाँ की दीवारों पर कुछ थोड़ी-बहुत कुरेद दी थी। चिट्ठी में बताया गया एक-एक शब्द यहाँ के हालात से मेल खा रहा था। मसलन, “लाइटें हमेशा के लिए जली हुई छोड़ी गईं थीं। कोठरियाँ ऐसी थीं कि जहाँ पूरी-पूरी रात आँखों में कट जाए। नींद की कमी से किसी की भी जान निकल जाए। चमकदार नीली वरदी में तैनात पहरेदार। उतनी सी कोठरियों में एक चारपाई, बाल्टी और जंजीर से बँधा हुआ जग। यह सब होता था।”
निरीक्षण के दौरान अब वह गलियारों में आ चुका था, जहाँ “कैदियों को सजा के तौर पर लगातार पैदल चलाया जाता था। जंजीरों से बँधे उनके पैर चलते वक्त चौड़े हो जाया करते थे। हाथ पीछे पीठ की तरफ बँधे हुए और ऊपर की तरफ। इससे सिर से कमर तक शरीर आगे की तरफ झुक जाता था। उसी हाल में उन्हें तब तक चलाया जाता, जब तक वे थक कर गिर नहीं जाते। होश न खो बैठते। लेकिन तब भी, उन्हें फिर लोहे की छड़ों से पीट-पीट कर जगाया जाता था।” मैडबुल की जेल में दी जाने वाली यातनाओं का कच्चा-चिट्ठा खोलने वाली बेनाम चिट्ठी जब नाथन को मिली, तो वह चुप नहीं बैठ सका। पत्र में इतनी बारीकी से हर जानकारी दी गई थी कि उस पर भरोसा न करने का कारण ही नहीं था।
दिन ढलने वाला था और अब तक नाथन सिर भन्नाने लगा था। उसे अब तक उस रहस्यमय ‘निजी सेना’ का कोई सुबूत नहीं मिला था, जो वास्तव में निर्मम लोगों का गिरोह थी। यह ‘फौज’ मैडबुल के लिए तमाम अवैध गतिविधियाँ चलाती थी। लेकिन उसकी सच्चाई तक पहुँचने के लिए अब तक कोई सुराग उसके हाथ नहीं आया था। भरसक कोशिशों के बाद भी अभी उसके हाथ खाली थे। नाथन के लिए इससे ज्यादा तकलीफदेह क्या ही हो सकता था कि एक तरफ जहाँ उसे एक व्यक्ति के नैतिक रूप से दोषी होने का पूरा यकीन था, वहीं इसे साबित करने के लिए एक भी सुबूत हाथ में नहीं था। दूसरी तरफ, कर्नल ने भी अपनी उग्रता को दबाए रखते हुए अभी दिमाग ठंडा रखा हुआ था। पर उसकी हताश मशक्कत का दबा हुआ प्रवाह साफ नजर आ रहा था। इससे लगता था कि वह कुछ दबाने-छिपाने के लिए संघर्ष कर रहा है। नाथन एक ऐसे इंसान के रूप में रोजी मैडबुल को जानता था, जो अपने ही बनाए नैतिक मापदंडों पर चलता था। ये मापदंड उसके सनकी दिमाग की उपज थे। वह ऐसा शख्स था, जो अपनी समझ की जड़ता में ही उलझा हुआ था।
नाथन को अपने चारों ओर कुछ अजब सा एहसास हो रहा था। ऐसा महसूस होता था जैसे सहज, सामान्य से दिखने वाले आवरण के पीछे कुछ विचित्र सा खदबदा रहा हो। जो बाहर आने को बेताब हो। जो दुनिया को दो हिस्सों में बाँट देने वाला हो। वहाँ मौजूद लोगों के देखने के अंदाज, उनकी खुसुर-फुसुर और चिंदी-चिंदी कर दी गईं फाइलों से उसे ये एहसास हुआ था। कुछ संदिग्ध सा महसूस हो रहा था। कहीं कुछ तो गड़बड़ थी। अभी वह एक जगह ठहर कर भीतर से मिल रहे अनुमानों को आँकने की और उनसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी तहखाने की तरफ से कुछ आवाजें सुनाई दीं। ये किसी औरत की चीखें थीं, जो लगातार तेज होती जा रही थीं।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
14- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मैडबुल को ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ से सख्त नफरत थी!
13- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : देश को खतरा है तो हबीशियों से, ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं
12- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बेवकूफ इंसान ही दौलत देखकर अपने होश गँवा देते हैं
11- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : तुझे पता है वे लोग पीठ पीछे मुझे क्या कहते हैं…..‘मौत’
10- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : पुजारी ने उस लड़के में ‘उसे’ सूँघ लिया था और हमें भी!
9- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मुझे अपना ख्याल रखने के लिए किसी ‘डायन’ की जरूरत नहीं!
8- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह उस दिशा में बढ़ रहा है, जहाँ मौत निश्चित है!
7- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुअरों की तरह हम मार दिए जाने वाले हैं!
6- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बुढ़िया, तूने उस कलंकिनी का नाम लेने की हिम्मत कैसे की!
5. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : “मर जाने दो इसे”, ये पहले शब्द थे, जो उसके लिए निकाले गए
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