Mayavi Amba-56

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : समय खुशी मनाने का नहीं, सच का सामना करने का था

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

खड़ाक——-क

अचानक सनसनाती हुई उसके कान के पास से गुजरी गोली ने पास में एक पत्थर के टुकड़े कर दिए थे।

हवा में छिटके पत्थर के टुकड़ों से बचने के लिए अंबा ने सिर झुका लिया लेकिन वह पूरी तरह बच नहीं पाई। तुरंत ही उसके सिर में अजीब सा दर्द होने लगा। जैसे बिजली का करंट लगा हो। यह नसों का दर्द था। वह दाहिनी आँख से कुछ भी देख नहीं पा रही थी। उसने जल्दी-जल्दी आँख साफ की। वह उम्मीद कर रही थी कि आँख में गंभीर चोट न आई हो। कुछ देर में आँख थोड़ी साफ हुई तो उसने राहत की साँस ली। लेकिन आँख से खून अब भी लगातार बह रहा था। ऐसे में एक बार में वह जितना खून अपनी हथेली से पोंछ सकती थी, पोंछ लिया, ताकि आँख पूरी तरह साफ हो जाए। लेकिन उसके बजाय उसका हाथ ही खून से लाल हो गया।

पत्थर के टूटने से उड़ा एक नुकीला टुकड़ा उसकी दाहिनी आँख के ऊपर टकराया था। हालाँकि शुक्र था कि आँखों की पुतली जख्मी नहीं हुई थी। जख्म ऊपरी था, गहरा नहीं। उतना गंभीर भी नहीं था, जितना दिख रहा था। ऐसे में उसे कमजोर नहीं पड़ना चाहिए। अभी तो बिलकुल नहीं। वह अच्छी तरह जानती थी कि अगर उन लोगों ने उसे जिंदा पकड़ लिया तो वे उसके साथ क्या कर सकते हैं।

अंबा यह अंदाजा लगाने की कोशिश में थी कि उसके पीछे आ रहे लोगों में से भी कोई गोली या टूटे पत्थर के टुकड़ों से जख्मी तो नहीं हुआ है। उसने बायीं ओर दम साधे खड़े एक आदमी को पहचान भी लिया था। उस पर गोली यकीनन उसी आदमी ने चलाई थी। वह मथेरा था। उसी ने जेल में रोजी मैडबुल के साथ मिलकर उससे पूछताछ भी की थी।

उसने सिर झुकाकर अँगुलियों के पोरों की तरफ देखा तो पाया कि उनमें भी खून लगा है। उसकी आँख से अब भी खून बह रहा था। सो, उसे पोंछने के लिए इस बार उसने गीला कपड़ा ले लिया। खुशकिस्मती थी कि चोट उसकी दाहिनी आँख में लगी थी। जबकि वह निशाना अपनी बायीं आँख से लगाती थी। दाहिनी आँख के ऊपर हुआ घाव अलबत्ता उथला ही था। लेकिन शायद पत्थर के धारदार हिस्से ने नस में चोट की थी। इसीलिए इतना समय बीतने के बाद भी सिर में तेज दर्द बना हुआ था। बल्कि कई गुना बढ़ ही गया था। मगर अच्छी बात ये थी कि वह कम से कम दोनों आँखों से देख पा रही थी। उसकी नजर पहले की तरह दुरुस्त थी। लिहाजा अब वह पलटकर पेट के बल लेट गई। करीब एक घंटे से ज्यादा समय तक बिना हिले-डुले वैसी ही लेटी रही। इतना समय हमलावरों की उत्सुकता बढ़ाने के लिए बहुत था। सो फिर उसने अपनी बंदूक सँभाली और पलक झपकते ही गोली दाग दी। गोली ठीक निशाने पर लगी। इसका अंदाज होते ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।

निशाने पर गोली लगते ही एक दर्दभरी चीख भी सुनाई दी थी। पहाड़ी के दाहिनी तरफ धुआँ उठा था। लेकिन इस सफलता से खुश होने के बजाय उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था। वह अपनी बंदूक क्यों नहीं लाई? इस बंदूक से तो वह लाख दर्जे बेहतर थी? क्यों, आखिर क्यों? हालाँकि उसे इस प्रश्न का उत्तर भी पता था। वह आधी रात को अपने सुरक्षित ठिकाने से भागने पर मजबूर हुई थी। उस वक्त कुछ सोचने-समझने का वक्त ही कहाँ था? भागते समय पटाला ने उसे चमड़े का एक थैला जरूर दिया था। उसमें करीब 40 कारतूस थे। अंबा को उम्मीद थी कि इतने कारतूसों में दिनभर उसका काम चल जाएगा। सो, उसने अपनी बंदूक की मैगजीन निकाली और उसमें नए कारतूस भर दिए। इसके बाद वह सँभलकर, हर तरफ चौकन्नी निगाह रखते हुए रेंगकर आगे बढ़ी। अब तक उसे तेज प्यास लग आई थी। लिहाजा, उसने कमर के पीछे बँधी चमड़े की बोतल निकाली और जल्दी-जल्दी पानी के बड़े-बड़े घूँट गले से नीचे उतारे। फिर बोतल वापस उसकी जगह पर पहुँचा दी।

पूरे कारतूस अभी उसके थैले में खनखना रहे थे। सो, वह धीरे से सरक कर एक बड़ी चट्‌टान की आड़ में पहुँच गई। यहाँ से हमलावरों पर निशाना लगाना उसके लिए आसान था। इसके बाद उसने बंदूक का घोड़ा खींचा और एक हमलावर को निशाने पर लेकर लगातार तीन गोलियाँ दाग दीं। लेकिन वे सब बेकार हो गईं। हमलावर एक मजबूत आड़ के पीछे था। इसलिए वह निशाने पर नहीं आया। लिहाजा, कुछ देर वह भी चट्‌टान की अपनी आड़ में चुपचाप पड़ी रही। अलबत्ता, कुछ देर तक जब किसी तरफ से कोई हलचल नहीं हुई, कोई आवाज नहीं आई तो अंबा अपने छिपने के स्थान से रेंगते हुए दूसरी तरफ निकल पड़ी। वह कोई सुरक्षित रास्ता खोजने की मंशा में थी, ताकि वहाँ से बचकर निकल सके। लेकिन तभी उसे नीचे पहाड़ी की ढलान पर एक और हमलावर की झलक मिल गई। अंबा चुपचाप जहाँ की तहाँ ठिठक गई। वह समझने की कोशिश करने लगी कि वह हमलावर आगे करता क्या है कि तभी एक दूसरा आदमी भी दिख गया, जो छिपते-छिपाते आगे बढ़ रहा था। सो, अंबा ने बिना समय गँवाए दो और कारतूस दाग दिए। लेकिन वे भी सही निशाने पर नहीं लगे। ऐसे में अंबा अब यह सोचने पर मजबूर हो गई कि क्या उसका अंदाजा गलत हो रहा है या उसकी ताकत कम हो रही है? बावजूद इसके कि उसका निशाना बहुत सटीक है?

“अरे वाह! ये बात! चलो ये गोली तो निशाने पर लगी!”

वह खुशी से उछल पड़ी। हालाँकि यह खुशी मनाने का वक्त नहीं था। हकीकत का सामना करने का समय था। उसने बंदूक की मैगजीन निकाली, थैले में हाथ डाला और नए कारतूस निकालकर फिर उसमें भर दिए। अलबत्ता उसे यह अंदाजा भी था कि कारतूसों की संख्या कम हो रही है। इससे भी अधिक परेशानी की बात यह थी कि वह बीते 72 घंटों से भी अधिक समय से सोई नहीं थी। इसलिए नींद उस पर हावी हो रही थी। शरीर निढाल हो रहा था। नींद को रोकना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा था। ऊपर से तेज धूप उसकी त्वचा को जला रही थी। आँखों के लिए जानलेवा साबित हो रही थी। लिहाजा, उसने अपनी नजरें दूर घास के मैदान की तरफ घुमा दीं, जहाँ थोड़ी छाया दिखाई देती थी।

हालाँकि इससे उसकी आँखों को जो राहत मिली, उससे नींद उस पर हावी हो गई। अब वह उसे रोकने में सक्षम नहीं थी। उसका सिर इतना भारी हो चुका था कि उसे हल्का करने के लिए वह अपनी बाँहों के सहारे कुछ सेकेंड की झपकी लेने को विवश हो गई। तब उसने खुद से कहा कि बस, कुछ सेकेंड की ही तो बात है और फिर उसने अपना सिर लुढ़क जाने दिया। उसकी बाँहों में बहुत गंदगी लगी थी। सो, पहले उन्हें उसने अपनी छाती से थोड़ा घिसकर साफ किया और सिर को बाँहों के सहारे टिका दिया। कुछ देर तक वह यूँ ही पड़ी रही। अलबत्ता, कुछ ही देर में गोलियों की तेज आवाज ने उसे फिर चौकन्ना कर दिया। उसने सिर उठाया तो देखा कि जिस आँख से खून बह रहा था, उसकी चोट का निशान बाँह पर भी बन गया है। उसमें खून भी लग गया है। लिहाजा, उसने फिर गीले कपड़े से आँख का खून साफ किया। लेकिन सिर अब दोबारा दर्द से फटने लगा था और गोलियों की आवाज ने इस तकलीफ को और बढ़ा दिया था।

#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

55 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पलक झपकते ही कई संगीनें पटाला की छाती के पार हो गईं 
54 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जिनसे तू बचकर भागी है, वे यहाँ भी पहुँच गए है
53 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम कोई भगवान नहीं हो, जो…
52 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा, ज़हर को औषधि, औषधि को ज़हर बना देती है
51 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : न जाने यह उपहार उससे क्या कीमत वसूलने वाला है!
50 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे लगा, जैसे किसी ने उससे सब छीन लिया हो
49 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें
47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा 

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