Mayavi Amba-13

‘मायावी अंबा और शैतान’ : देश को खतरा है तो हबीशियों से, ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

“उसने शिकायत की है कि तुम्हारे आदमियों ने उस पर बे-इंतिहा ज़ुल्म किए हैं और ये सब तुम्हारी जानकारी में है।”

“सब मनगढंत बातें हैं।”

“इतनी यातना के बाद उसके पैर बेकार हो गए हैं।”

“ओह, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। तब भी, यह मौत की सजा तो नहीं है। हम बैकाल में किसी को यातनाएँ नहीं देते। मैं कभी किसी को इसकी इजाजत नहीं देता। कल्पनाशक्ति का अभाव दुखांत की ओर ले जाता है। अगर सवाल यह है कि अपराधी का मुँह कैसे खुलवाया जाए, तो उस पर अत्याचार करना इसका कोई सही जवाब नहीं है। यातना से तो झूठ और भटकाव ही मिलेगा। सही जवाब नहीं मिलेंगे। यह सब बर्बरता के मध्ययुगीन तरीके हैं। मैं तो कहता हूँ कि उस आदमी के सिर पर बोरी बाँध दो, हाथ बाँध दो, कानों में रुई ठूँस दो और एक हफ्ते के लिए पानी से भरे गड्‌ढे में पटक दो। यह तो कोई यातना नहीं है न?” मैडबुल की भारी आवाज में व्यंग्य था।

“कुछ के लिए बिलकुल है। और मैं तो इसे बहुत अमानवीय ही कहूँगा।”

“जेल सभी के लिए नहीं है। खासकर दिमागदारों के लिए तो कतई नहीं,” मैडबुल बोला। फिर सवाल किया, “आपको बताया किसने?”, “ये कोई अमानवीय जेल नहीं है”, “वह तो बीते ज़माने की बात है। अब समय बदल गया है। पुरानी जेल अब कहीं नहीं है”, “इन दिनों हर कोई जेल जाता है”, और अंत में जैसे स्वीकार करते हुए बोला “वैसे, जेल आख़िर जेल है और कैदी, कैदी।”

“अच्छा! अगर छिपाने के लिए तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, तो फाइलें नष्ट करने वाली मशीन रात-दिन क्यों चल रही हैं? मुझे अपराधियों की कोई फाइल क्यों नहीं मिल सकती? खासकर अगर फाइलें अपराधियों की जरूरी और नियमित पूछताछ से संबंधित हैं तो? वे गायब क्यों हैं?”

“आप क्या सोचते हैं कि फाइलों में क्या है?”

“एक ठीक-ठाक अनुमान तो यह हो सकता है कि इनमें पूछताछ करने वाले अफसरों, मैदानी एजेंट, मुखबिरों और सामुदायिक सहयोगियों के नाम हों। वैसे, आपको पता होना चाहिए कि आपको सरकार की ओर से भेजे गए अफसर का सहयोग करना है।”

“तो प्यारे दोस्त, आपने जो भी ठोस सबूत मेरे ख़िलाफ जुटाए हैं, आप उनको आला अफसरों को सौंपने के लिए स्वतंत्र हैं। आप से ऊपर भी अधिक प्रतिबद्ध लोगों की एक समिति है। उसके ऊपर उससे ज्यादा प्रतिबद्ध लोगों की। और उससे भी ऊपर हैं अंकल ‘हो’। जब तक आप उन तक नहीं पहुँच जाते, मुझे सबकी परवा करनी है।”

और इसके बाद नाथन कुछ जवाब दे पाता, इससे पहले ही मैडबुल ने अपनी बात में जोड़ा, “और हाँ, आपको पता होना चाहिए कि मैं अपनी जेल में इस तरह के औचक दौरों को पसंद नहीं करता।”

“क्या तुम मुझे धमकी दे रहे हो?”

“नहीं। बैकाल जैसी जगह पर धमकी तो ये होगी कि यहाँ आप ज्यादा शोर-शराबा न करें। नहीं तो, आप यहाँ के लोगों की निगाह में आ जाएँगे। और उनमें से कई ऐसे हैं, जो आपको ज्यादा बरदाश्त नहीं करेंगे। पर मैंने ऐसा कहा क्या? वैसे, हमारे महान देश को अगर किसी से खतरा है तो केवल हबीशियों से। ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं।”

बदले में, नाथन ने भी भद्दा सा जवाब दिया। शायद इसलिए कि वह उसकी रक्तरंजित पटकथा में शामिल नहीं होना चाहता था। उसकी साजिशभरी कहानियों में भी कोई योगदान देना नहीं चाहता था।

“तो क्या करने का इरादा है आपका?”

“कानून के दायरे से बाहर कुछ भी नहीं। मैं मथेरा से कह देता हूँ, वह आपको पूरे परिसर का भ्रमण करा देगा। आप खुद सब कुछ देख सकते हैं। गुड बाय।”

मैडबुल की बातों से अब कुछ खुशी झलक रही थी। वह चाहता था कि उससे कुछ भी अपेक्षित हासिल न कर पाने की हताशा को नाथन खुद स्वीकार करे। 
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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