Media VS Social Media

सत्य, विश्वसनीयता और नैरेटिव पर वर्चस्व के लिए मीडिया व सोशल मीडिया की भिड़न्त शुरू

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

पारम्परिक मीडिया और सोशल मीडिया के बीच लोकरंजक नैरेटिव पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हो गया है। तकाजा चूँकि सत्य का या चाहे कह लें कि सत्य के आभास का है, तो दोनों पक्ष विश्वसनीयता के नाम का झंडा लिए बेतहाशा दौड़ रहे हैं। सत्ता और उससे जुड़े ऐबों की दलदल का आकर्षण ऐसा है कि हर कोई उसमें आकंठ डूबने के लिए बेताब है। सच दिखाने की जिम्मेदारी ही ताकत और शोहरत पैदा करती है। यानि जितनी बड़ी ‘सच’ दिखाने की शोहरत, उतनी ज्यादा ताकत।

नैरेटिव की ताकत आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिए तो आवश्यक है। साथ ही, उन तमाम संस्कृतियों में जहाँ कृतज्ञ-कर्त्तव्य आधारित सामाजिक अनुबन्ध और विवेक आधारित न्याय दृष्टि नहीं हैं, वहाँ नैरेटिव की जरूरत और ताकत अकथनीय है। मजहब, देश, काल, नस्ल के संकीर्ण परिवेश में सत्य की खोज भी भोगवादी सियासत का उज्र बन जाती है। उपनिवेशियत से पनपी आधुनिक मानवता के लिए सत्य किसी समाधि या निर्वाण को प्राप्त होने के लिए नहीं बल्कि भौतिक भोगों को सुलभ करने वाले नैरेटिव गढ़ने का बहाना होता है। नैरेटिव यानी जनमत मैन्यूपुलेट कर संचालक को सत्ता के सूत्र प्रदान करना। यह कीमिया है, लोहे को सोना बनाने की कला है।

अद्यतन प्रभावशील यूरोपीय उपनिवेशवाद का इतिहास देखें तो उसकी जड़ें उस पुनर्जागरण तक जाती हैं, जिसकी पृष्ठभूमि गटेनबर्ग बाइबिल के प्रकाशन ने तैयार की थी। यह अब्राहिमी सभ्यता का यूरोपीय परिवेश में एक वैश्विकता की रचना का उपक्रम था। इसे बाद में अखबार, पत्र-पत्रिकाओं ने लपक लिया और फिर आगे बढ़ाया। तकनीकी विकास से आज नैरेटिव सेट करने की ताकत परम्परागत मीडिया से होते हुए सोशल मीडिया के हाथ में पहुँच गई है। नकेल कसने के प्रयासों के बावजूद सोशल मीडिया की ताकत बदस्तूर बढ़ती जा रही है। ऐसा अक्सर होता भी है क्योंकि जब किसी विचार का समय आया हुआ होता है तब उसके विरोध में जो कुछ भी लिखा, कहा या सोचा जाता है उसके बरक्स उस विचार को ही मजबूती ही मिलती है।

सोशल मीडिया पर अप्रामाणिक, विघटनकारी, नस्ल, मजहब के संकीर्ण विचारों को विस्तार देने के लाख आरोप लगते हैं। अरब स्प्रिंग के नाम से लोकप्रिय हुई ट्यूनिशिया, मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन आदि में सत्ता और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठी लहर, फ्रांस और ब्राजील से लेकर शाहीनबाग और दिल्ली में हुए दंगों के पीछे सोशल मीडिया के प्रभावी उपयोग के सबूत सामने हैं। मुख्तलिफ वॉट्सएप ग्रुपों में भीड़ को जमा होने की जगह, आगजनी, रसद, भागने के रास्ते से लेकर मीडिया को दिए जाने वाले बयान तक सब सोशल मीडिया से ही फैलाए गए। इन सब के बावजूद तथ्य यह है कि सोशल मीडिया एक तकनीक के रूप में अपरिहार्य है। तो अन्त में बात साइंस की अन्य तकनीकों की तरह ही इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए तंत्र विकसित करने पर आकर सिमट जाएगी।

आज सोशल मीडिया के माध्यम से समाज में उद्दाम उच्छृंखलता, अनैतिकता, कदाचार के हो रहे प्रसार पर कुछ कहना तत्काल रूढ़िवादी दकियानूसी विचारधारा वाला तमगा प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। जो आरोप आज सोशल मीडिया पर है, कमोबेश कुछ वैसे ही आरोप दशकाें से परम्परागत मीडिया पर लगते रहे कि वह व्यवसायिक हितों के चलते बाजारू-भोगवादी कल्चर को बढ़ावा देते हैं। वे भी तो लम्बे समय से ऐसी सामग्री परोसते रहे हैं, जो परम्परावादी लोगों की नजर में फूहड़, सनसनीखेज होती है। और इसके विरोधियों का भी पोंगापन्थी, प्रगतिविरोधी कहकर मखौल उड़ाया जाता रहा है! तो पुराने मीडिया की आलोचना से सोशल मीडिया का कुछ बिगड़ेगा ऐसा कुछ नहीं लगता।

खरा संघर्ष नैरेटिव स्थापित करने की ताकत के लिए ही होता है। बीती सदी में आई लोकतंत्र की बहार में यह पारंपरिक मीडिया का एकाधिकार था। आज वह सोशल मीडिया की ओर खिसक रहा है। इसके साथ विज्ञापनदाताओं का फोकस, आय के स्राेत की स्थिति में भी बदलाव आ रहे हैं। यह यूँ ही नहीं कि हर पारम्परिक माध्यम भी सोशल मीडिया पर अपने लिए जगह बनाने की जद्दोजहद में जुटे हुए हैं।

सोशल मीडिया कम्पनियों में प्रभावशाली देशों के कॉरपोरेशन्स की सुनवाई हो जाती है और उन्हें अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इन पर बड़े जुर्माने देने पड़ते हैं। अन्यथा इन सोशल मीडिया कम्पनियों की आर्थिक ताकत और नैरेटिव पर कब्जे की वजह से ये संस्थान किसी को कुछ नहीं समझते। गूगल, फेसबुक और वर्तमान एक्स के पूर्वजन्म की कंपनी (ट्विटर) ने हमारी अदालतों में बारम्बार तिरस्कार और दम्भ से सरकार के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी हैं। यह विद्रूप प्रहसनपूर्ण कार्यवाही किसी भी नागरिक को शर्मसार कर देने वाली पर्याप्त है। इसके बावजूद यह मानना पड़ता है कि सोशल मीडिया पर दुनिया भर के व्यवसायिक संगठन, अस्पताल, कॉलेज, उद्योग-धंघे, प्रदूषण, खनन, पर्यावरण, आतंकवाद, कानून व्यवस्था जैसे आम लोगों से सरोकार रखने वाले मुद्दों पर कच्ची-पक्की आलोचनात्मक खबरें धड़ल्ले से उजागर होती हैं।

पारम्परिक मीडिया जो विश्वसनीयता के लिए तमाम क्रॉसचैक, आरोपी के वर्जन जैसी प्रक्रियाओं का पालन करते हैं उनके लिए यह काल चुनौतीपूर्ण है। अब पाठक खबर सिर्फ दूसरी जगह प्रकाशित खबर की तुलना में तौल कर ही नहीं देख रहा है। किसी अमूर्त विश्वसनीयता से अधिक महत्त्व वह अपने सरोकार की खबर को उजागर होने को देता है। हालाँकि विश्वसनीयता का टैग लगाने के लिए दोनों मीडिया फैक्ट चैकर्स का आविष्कार किया है। किन्तु इनमें से अधिकांश किसी विचारधारा विशेष पक्षधर या विरोधी होने के कारण जमूरे ही साबित होते हैं।

निरंकुश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर एक्स (एक्स ट्विटर) ने एलन मस्क के नेतृत्त्व में ब्लू टिक का व्यवसायीकरण करने और नामी इंफ्लूएंसर्स को ब्लॉक कर फैक्ट चैकर खस्सीकरण मुहिम की शुरूआत कर दी है। सोशल मीडिया कम्पनियाँ कंटेंट के नियमन और नियंत्रण के लिए आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर विश्वसनीयता का तमगा देने के अधिकार अपने पास ही रखना चाहती है। इसके व्यवसायिक और रणनीतिक लाभ भी हैं। बहरहाल विभिन्न प्लेटफॉर्म पर प्रतिद्वंद्विता के बीच यह कितना प्रभावशाली होगा, यह समय ही बताएगा। और इसके लिए कोई ज्यादा चिन्तित भी नहीं है।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।) 

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