गणेशोत्सव का सन्देश : सर्जन, अर्जन और फिर विसर्जन… यही जीवन है!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

इसी सोमवार, मंगलवार से देश भर में गणेशोत्सव की धूम शुरू हो गई। अब 10 दिन तक यूँ ही चलने वाली है। इस दौरान लगातार सोशल मीडिया पर सन्देशों का आदान-प्रदान हो रहा है। बधाई और शुभकामनाओं के सन्देश। इनमें अधिकांश कहीं से लिए और फिर खिसका दिए गए सन्देश ही होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सार्थकता की सूरत लिए निरर्थक कवायद के अंतहीन सिलसिले की किसी कड़ी की तरह। इसीलिए मैं अक्सर इस किस्म के सन्देशों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। कोई औचित्य ही नहीं लगता। 

लेकिन मेरे वरिष्ठ, कनिष्ठ या बराबर की उम्र के कुछ मित्र हैं, जाे इस भेड़चाल से अलग हैं। उनके सन्देश, जब भी आते हैं, वास्तव में सार्थकता लिए होते हैं। महज औपचारिकता भर नहीं होते। इसीलिए उन लोगों के सन्देश जब कभी भी आते हैं, मैं उन्हें शब्दश: पढ़ता हूँ। और आज सुबह जब मैंने फोन देखा, तो सबसे पहले ऊपर लिखे जिस सन्देश पर मेरी नजर गई, वह ऐसे ही मेरे घनिष्ठ मित्र का था। कहने के लिए तो यह गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ देने के लिए भेजा गया था। लेकिन असल में दे गया जीवन दर्शन। 

सन्देश में लिखा था, “श्रीगणेश उत्सव हमारी ज़िन्दगी जैसा है- हम आते हैं, मौज मस्ती करते हैं और एक दिन मिट्टी, पानी, धुआँ हो जाते हैं….। बप्पा सभी का मंगल करें… गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ!” इस सन्देश ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। बड़ी देर तक विचारों का झंझावात दिमाग में आता-जाता रहा। मैं सोचता रहा है कि हाँ, सच ही तो है। महज 10 दिनों के भीतर गणेश जी हमें ‘सर्जन, अर्जन और विसर्जन’ का पूरा जीवन-चक्र ही तो बताकर, समझाकर जाते हैं। बशर्ते, कोई समझना चाहे तो! 

अब देखिए न, सनातन परम्परा में गणेश जी सम्भवत: इकलौते ऐसे देव हैं, जिनका ‘सृजन’ ब्रह्म देव की सृष्टि से अलग हटकर हुआ है। कहा जाता है, ब्रह्मा जी ने परम-पुरुष और परम-प्रकृति को छोड़ कर पूरी सृष्टि को स्वरूप दिया। उसे जीवन दिया। लेकिन गणेश जी की सृष्टि उनकी माता पार्वती ने अपने मैल से की। उन्हीं ने उनमें जीवन फूँका। और फिर इसके बाद दूसरी बार, उन्हें उनके पिता भगवान शिव ने नया स्वरूप, नया जीवन दिया। वह कहानी सबको पता होगी, फिर भी उसे यहाँ प्रसंगवश दोहराया जा सकता है। 

सृजन के बाद माँ ने गणेश जी को बाहर पहरा देने का आदेश दिया और वे स्वयं भीतर स्नान करने चली गईं। कह कर गईं, ‘मेरे वापस यहाँ लौटने तक किसी को भीतर नहीं आने देना।” माँ की आज्ञा मान कर गणेश जी पहरे पर तैनात हो गए। कुछ देर बाद वहाँ भगवान शिव आ पहुँचे। भीतर जाने लगे। लेकिन श्री गणेश ने उनका रास्ता रोक दिया। शिव जी ने समझाया। गुस्सा दिखाया। परिचय भी दिया। लेकिन गणेश जी नहीं माने। तब क्रोध में महादेव ने उनकी गर्दन उतार दी। बाद में माँ के कहने पर हाथी का सिर जोड़ दिया। 

इस तरह गणेश जी ने दूसरी बार में अपने जीवन का ‘अर्जन’ भी एक तरह से स्वयं ही किया। अपनी मातृ-भक्ति के बलबूते पर। इसी तरह उन्होंने देवों में ‘प्रथम पूज्य’ का दर्जा अर्जित किया। रिद्धि और सिद्धि को अर्जित किया। बुद्धि के दाता, विध्नहर्ता के रूप में प्रतिष्ठा को अर्जित किया। ऐसा सब कुछ उन्होंने अपने पुरुषार्थ से पाया, कमाया। और फिर ‘विसर्जन’? वह भी अपना उन्होंने सहज स्वीकार किया। अपनी इच्छा से। अपनी निष्ठा से। फिर ध्यान दीजिए, ऊपर बताई गई कहानी पर। महादेव ने जब श्री गणेश की गर्दन धड़ से अलग की, तो यह एक तरह से उनका ‘विसर्जन’ ही तो था। लेकिन वे इससे किंचित् भी विचलित नहीं हुए। 

गणेश जी जानते थे, ‘न तो सृजन अन्तिम है, न अर्जन और न ही विसर्जन’। यह जीवन चक्र है। ऐसे ही चलता आया है। इसी तरह, चलता रहेगा। और देखिए, आज तक उन्हीं के सन्दर्भ को लें तो यह क्रम निरन्तर चलता आ रहा है। गणेश जी को दूसरी बार तो उन्हें उनके पिता ने स्वरूप और जीवन दिया था। लेकिन यहाँ धरती पर, हर साल उन्हें कोई मूर्तिकार नया स्वरूप देता है। उन्हें जीवन्त करता है। फिर कोई-कोई लोग उनके इन स्वरूपों को अपने घर लाते हैं। उनसे ऊर्जा, प्रेरणा, आनन्द ‘अर्जित’ करते हैं। और फिर उन्हें ‘विसर्जित’ कर देते हैं। विसर्जन करते हुए सहज भाव से बोलते जाते हैं…, ‘गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ।’  

लेकिन कितना बेहतर होता, अगर हम अपने जीवन के सम्पूर्ण क्रम को भी गणपति जैसी ही सहजता से समझ और स्वीकार कर पाते।  

पुन: श्री गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
——- 
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 

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