देवेश, दिल्ली से, 18/4/2021
रोज़ाना की तुलना में आज मेट्रो सूनी है। इतना सूनापन डराता है। हालाँकि आज दिल्ली में कर्फ्यू है। लेकिन ज़िन्दगी तो चल ही रही है। कुछ ज़िन्दगियाँ लड़खड़ा रही हैं, तो उन्हें सम्भालने की कोशिश में कई ज़िन्दगियाँ लगी हैं। इस क्रूर समय में यही एक ख़ूबसूरत बात है।
मेट्रो में एक लड़का हैरान-परेशान है। बार-बार पानी पी रहा है। लगातार कहीं फ़ोन मिलाने की कोशिश कर रहा है। खीझ रहा है। बात नहीं हो पा रही है। एकाध जगह बात हुई तो “सलाम अलैकुम” से आगे नहीं बढ़ पाई। मास्क के ऊपर आँखें गीली हैं। माथे पर पसीने की सीलन है।
अबकी बार फ़ोन पर बात होने लगी। लड़के के स्वर में घबराहट, गिड़गिड़ाहट थी। “सलाम अलैकुम भाई! आकिब बोल रहा हूँ। एक काम था भाई! हाँ! अम्मी दिल की मरीज़ हैं ना… हाँ, तो आज साँस लेने में दिक्कत हो रही है। डॉक्टर ने कहा है, घर पर ही रखो, पर ऑक्सिजन सिलेंडर का इन्तज़ाम करो। ऐसे वक़्त में कहीं ले जाने में भी ख़तरा ही है। हाँ भाई। नहीं…! हमारी तरफ तो सात-आठ हज़ार देने पर भी नहीं मिल रहा सिलेंडर। ना… अरे उस वक़्त तो साढ़े चार में ही हो गया था। नहीं भाई…कुछ करो…प्लीज़…मैं इन्तज़ार करूँगा!”
इस फ़ोन के बाद उसके माथे की एक-दो लकीरें कम ज़रूर हुईं, पर आँखों में उतनी ही फ़िक्र बरक़रार रही। उसने फिर पानी पीया और मोबाइल में ही कुछ टाइप करने लगा। सामने बैठे एक चाचाजी लगातार उसे नोटिस कर रहे थे। उन्होंने थोड़ी देर तक देखने के बाद कहीं फोन मिलाया। “हेलो! रजत भाई! और बता कैसा है यार… अच्छा सुन! ऑक्सिजन सिलेंडर का इन्तज़़ाम कर देगा क्या? है कोई ज़रूरतमन्द। हाँ…!”
सामने बैठा आकिब चौंक गया। और उम्मीद भरी निगाहों से उन चाचा की तरफ देखने लगा। चाचा ने पाँचों उँगलियों से इशारा कर कहा, “पाँच हज़ार का एक पड़ेगा।” आकिब ने हाथ जोड़कर हामी भर दी। चाचा ने फ़ोन पर कहा, “ठीक है। दो मिनट में कॉल करता हूँ। चल, ओके!”
आकिब हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। चाचा बोले, “बेटा! मैं पता देता हूँ। चला जा। अपना नाम और नम्बर दे दे मुझे। मैं रजत को बोल देता हूँ। जाकर माँ की सेवा कर। भगवान सब ठीक करेगा!”
आकिब की आँखों में आँसू हैं। वह हाथ जोड़े खड़ा है। चाचा उठकर उसके हाथ पकड़ते हैं। और कहते हैं – “बेटा! मुश्किल समय है। गुज़र ही जाएगा!”
आकिब ने अपना नम्बर और पता बताया। चाचा ने रजत को मैसेज भेजकर फ़ोन कर दिया और आकिब की हथेली पर अपनी जेब से सैनिटाइज़र निकालकर टपकाया। खुद भी लगाया। और बोले, “हिम्मत रख बेटे। ये कोरोना जाएगा ही कभी ना कभी!”
आकिब ने शुक्रिया अदा किया तो चाचा बोले, “अरे तू फ़ोन पर बात न करता तो पता ही नहीं चलती तेरी परेशानी। इस मास्क के पीछे सबने अपनी-अपनी समस्या, अपने-अपने दर्द छुपा रखे हैं।” मेट्रो में पसरे सूनेपन को ज़िन्दगी ने मानो ठोकर मार दी।
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(देवेश दिल्ली में रहते हैं। अध्यापन कार्य से जुड़े हैं और फेसबुक पर दिल्ली मेट्रो के अनुभवों पर आधारित #मेट्रोनामा शृंखला लिखते हैं। यह आलेख उन्होंने फेसबुक पर 17/4/2021 को लिखा था। चूँकि यह #अपनीडिजिटलडायरी के सामाजिक सरोकार से मेल खाता है, इसलिए इसे उनकी सहमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।)
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