समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
पूर्व के दो भागों में हमें सृष्टि-विकास और स्वास्थ्य की दृष्टि से जीवों के सूक्ष्मजैविक तंत्र के स्तर पर पारस्परिक विनिमय के महत्त्व का अवलोकन किया। मानव जीवन में इसकी उपादेयता को भी समझा। प्रस्तुत अन्तिम कड़ी में हम इस सूक्ष्मजैविक तंत्र के साथ समन्वय को मानव सभ्यता के नैतिक सदाचार मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में समझेंगे। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि आधुनिक विज्ञान को प्रेरित करने वाले उपभोगवादी और मानवकेन्द्रित मूल्यों की आलोचना तो पर्याप्त होती है, लेकिन उन मूल्यों की असम्यकता को, संकीर्णता को मानवीय सभ्यता के वृहद् दार्शनिक प्रस्थान से कम ही जाँचा-परखा जाता है।
विज्ञान की उपभोगवादी मुख्यधारा की यह लघुदृष्टि मानव जाति और जीव सृष्टि के लिए घातक भी है। हमने शरीर में रहने वाले माइक्रोबायोम और माइक्रोबायोटा का मानव स्वास्थ्य से सम्बन्ध को देखा। साथ ही यह भी देखा कि विवादास्पद और छद्म विज्ञान के शोधों द्वारा प्रायोजित स्वास्थ्य के मानक और उनके अनुरूप पैसा कूटने वाले औद्योगिक उत्पाद कृत्रिम तंत्र बना रहे हैं। इस कारण सबको नित नए रोग झेलना पड़ रहे हैं।
साफ-सफाई के नाम पर साबुन, क्रीम के विज्ञापन सारे बैक्टीरिया, यीस्ट, फंगी को नुकसानदेह बताकर रसायनों से उनके खात्मे को स्वास्थ्य का उपाय बताते हैं। बचपन से अब तक हमने लाइफबॉय, डेटॉल, सावलॉन जैसे सैकड़ों उत्पादों के विज्ञापन देखे हैं। लेकिन इस एकपक्षीय अधूरे दावे से बड़ा झूठ कुछ नहीं क्योंकि यदि आप दही, दूध, बेसन, मिट्टी या राख जैसी वस्तुओं का उपयोग नहाने धोने के लिए करते हैं, तो वह कहीं अधिक स्वास्थ्यकारक होगा।
हम में से कुछ लोगों ने मल–प्रत्यारोपण (फेकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लान्ट) और मल की गोली पर खबरें भी पढ़ी होंगी। सम्भव है, इन्हें मजाक में उड़ा दिया हो। लेकिन क्या कभी सोचा है कि ऐसा करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? जवाब गम्भीर है। हालाँकि इसे कोई मीडिया गम्भीरता से नहीं उठाता। दरअसल, आधुनिक विज्ञान जो औद्योगिक खाद्य पदार्थ, स्वच्छता से परिपूर्ण जीवनशैली आदि की बातें प्रचारित कर रहे हैं, उस पर अमल करने से मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से बसने वाला माइक्रोबायोटा पनप नहीं रहा। इस कारण फार्मा कम्पनियों ने मानव मल से वह बेक्टीरिया निकाल कर उसकी गोलियाँ बनाकर बेचना शुरू कर दिया है। अस्पतालों ने मल प्रत्यारोपण तक शुरू कर दिया है।
आजकल हम में से अधिकांश लोग खनिज-लवण, विटामिन की कमी से पीड़ित हैं। मसलन विज्ञान के शोध से यह प्रचारित किया जा रहा है कि शाकाहारी आहार में बी-12 जैसे विटामिन नगण्य ही होते हैं। लेकिन यह अर्धसत्य है। इससे विज्ञान की उथली और संकीर्ण सोच उजागर होती है। सच्चाई यह है कि गाय जैसे चार पैर वाले जानवरों के पेट में ऐसे सूक्ष्मजीवी पाए जाते हैं, जो शाकाहारी आहार से बी-12 बना लेते हैं। ये सूक्ष्मजीवी मानव के पाचनतंत्र में भी बखूबी रह सकते हैं। इसलिए पंचगव्य बी-12 की कमी पूरी करने का नैसर्गिक उपाय है। इसी तरह माइक्रोबायोटा मानव शरीर में के2 भी पैदा कर सकता है। प्रमाण हैं कि जीव जन्तुओं के पारस्परिक सहजीवन से उत्पन्न होने वाले मूल्य संकीर्ण विज्ञान की पकड़ से बाहर है। गौवंश के साथ रहने वालों में चेचक, टीबी आदि के प्रति नैसर्गिक प्रतिरोधक क्षमता बन जाती है। मानव द्वारा पालित पशु यदि करुणा अहिंसा आधारित मूल्यों पर हो तो यह अलग आयाम प्रस्तुत करता है।
यहाँ लगभग 70-80 साल पुरानी एक घटना याद आती है। वृन्दावन में यमुना जी में बड़ी भारी बाढ़ आई। बाढ़ की चपेट में बड़ी संख्या में गौवंश भी आ गया। गाय-बैल, बछड़े कीचड़-गाद में फँस गए और प्राण त्यागने लगे। लोग अपनी गायों को भी छोड़कर भागने लगे। तब ज्ञान-गुदड़ी, पानीघाट के आश्रमों के साधुओं को दया आई और वे गायों को कीचड़ से निकालकर बचाने लगे। यह प्रयास कई दिनों तक चलता रहा और बड़ी संख्या में गौमाता की रक्षा हुई। बाढ़ कम होने के बाद बीमारियाँ फैली और फिर महामारी। हर घर, आश्रमों में लोग मरने लगे। लेकिन आश्चर्य की बात थी कि जिन आश्रमों के साधु-सन्तों ने गौ रक्षा की थी, उनमें न कोई बीमार पड़ा और न किसी का शरीर छूटा। यह पारस्परिक सहजीवन के सदाचार से उत्पन्न होने वाले नैतिक तंत्र को समझने का सरल विज्ञान सम्मत उदाहरण है। बाढ़ में गौ सेवा के दौरान साधु –सन्त और सेवकों में एक नैसर्गिक प्रतिरोध भी बनता गया। जब जीव-जन्तुओं की मृत्यु के बाद विषाणुओं ने महामारी का रूप लिया तो इस घटना के हमारे नायक साधु-सन्त अपनी सेवा के प्रभाव से सहज ही उनसे बच गए।
जीव-जन्तुओं के साथ मिलजुल कर जीवन की नैतिकता हमारे सनातन दर्शन में पूर्णता से दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए हमारी परम्परा में यहाँ किसी पेड़-वनस्पति को, कीट-पतंगों को या चूहा-शूकर जैसे जीवों सहित किसी को बेकार या नुकसानदेह खरपतवार नहीं माना जाता। खेतों में फसल के साथ उगने वाले अन्य पौधों का भी उपयोग खोजा गया है। इस दृष्टि ने हमारे यहां जैव-विविधता की रक्षा की है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे लम्बे समय से लगातार सबसे सघन आबादी वाले देश में सबसे अधिक जैव विविधता रही। जबकि विज्ञान के पास इंसेक्टिसाइट्स, पेस्टीसाइट्स, कृत्रिम रासायनिक खाद हैं, तो भारतीय भाषाओं में पेस्ट या वर्मिन जैसे शब्दों के समकक्ष शब्द है ही नहीं। यही नहीं, फसलों पर पड़ने वाले कीट, टिड्डी हो या भीषण मृत्यु का कारण बनने वाली प्लेग, चेचक आदि महामारियों को हमारे यहाँ एक दैविक आपदा के रूप में ही देखा गया है। दैविक आपदा यानी एक ऐसी घटना, जो जीव-जन्तुओं के पारिस्थितिकीय तंत्र में फिर से सन्तुलन स्थापित करती है।
सार संक्षेप में कहें तो विज्ञान की रसायन आधारित कृत्रिमता ने लघुअवधि में तात्कालिक फायदे दिए हैं, तो साथ ही इसी कृत्रिमता से रोग-बीमारी, स्वास्थ्य और जीवन में विकृतियाँ भी पैदा कर दी है। आधुनिक विज्ञान जिस संकीर्ण भोगवादी निरीश्वरवादी पृष्ठभूमि से आता है, वह हर विकृति के इलाज के लिए एक नई कृत्रिमता ही ला पाता है। इसके परिणाम में नई विकृति पनपती है। ऐसे में, यह समझने की जरूरत है कि सूक्ष्म-जैविक तंत्र के साथ समन्वय में निहित नैतिक सदाचार ही मानव सहित जीव सृष्टि काे स्वस्थ जीवन दे सकता है।
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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। विशेष रूप से धर्म-कर्म और वैश्विक मामलों पर वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। समीर ने सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा पर हाल ही में डायरी पर सात कड़ियों की अपनी पहली श्रृंखला भी लिखी है।)
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