प्रतीकात्मक तस्वीर
विकास वशिष्ठ, मुंबई
बाज़ारवाद के हिसाब ‘मदर्स डे’ या माँ का दिवस मई महीने के दूसरे रविवार (इस बार 12 तारीख़) को होता है, तो होता होगा। क्योंकि माँ और ममता ऐसे किसी एक दिन की मोहताज़ थोड़े ही होती है। यक़ीन न आए तो ये नीचे एक बानगी है, पढ़ लीजिए। अपनी माँ और उसकी ममता के लिए एक बेटे की भावनाएँ छलक आईं हैं, डायरी के पन्नों पर…
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वक़्त का सुस्वादु लम्हा
कैसी सी चीज़ होती है ममता। कुछ नहीं करने देते हुए भी कितना कुछ कराती जाती है। माँ को अखंड कीर्तन में जाने का बहुत मन था। जब से बंबई आईं हैं, उनका बहुत सारा कुछ छूट गया है। उस छूटने का अफ़सोस उन्हें होता होगा, लेकिन कभी महसूस नहीं होने देतीं। ममता ही होगी। सोचती होंगी, बच्चों को ख़राब लगेगा। हम तो अपने लिए कितना कुछ करते जाते हैं। लेकिन माँ है, जो बच्चों के लिए ही सब कुछ करती रहती है।
आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैंने माँ से कहा, “आपको कीर्तन में जाना है, तो मैं कल का टिकट करा देता हूँ, आज तत्काल में।” उन्होंने तत्काल कहा, “स्वर (मेरा बेटा) की तबीयत पीछे से कहीं और न बिगड़ जाए। फिर मेरा मन भी नहीं लगेगा कीर्तन में। इसमें ही रहेगा। ज़िंदा रही, तो अगले साल पूरे महीने के लिए जाऊँगी। अभी इसकी तबीयत ठीक रहनी चाहिए। सारा दिन मम्मी-मम्मी करता रहता है। एक मिनट भी नहीं दिखती हूँ तो पूछने लगता है।
ये सब माँ फोन पर कहती जा रही थीं। और मेरा मन था कि लगातार पसीजे जा रहा था। मेरी आँखों में सामने खिड़की से समंदर की एक पुरज़ोर लहर आ गई थी। किनारे तक आई और मैंने वक़्त का सबसे सुस्वादु लम्हा चखा। मैं अब भी सोच रहा था, ये कैसी सी चीज़ होती है ममता।
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(नोट : विकास #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। राजस्थान से ताल्लुक़ रखते हैं। मुंबई में नौकरी करते हैं। लेकिन ऊर्जा अपने लेखन से पाते हैं।)
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