अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 6/9/2022
‘शिव, कल्याण करने वाले शिव। शिव, पूर्ण शिव। समाधिस्त शिव, जो समस्त चेतना के कारक हैं, जो समस्त विश्व का केन्द्र हैं, जो परमब्रह्म हैं, जो देवाधिदेव हैं। ऐसे देव हमारी रक्षा करें।’
भारतीय संस्कृति में किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व ईश्वर को स्मरण किया जाता है। जिससे कार्य पूर्ण हो। निर्विघ्न हो। नाटक के लेखक शूद्रक भी अपने इष्ट देव, देवाधिदेव शिव की ऐसी आराधना करते हुए नाटक का प्रारम्भ करते हैं।
अब आगे…
सूत्रधार ‘नट’ अपने घर जाकर उत्सव का वातावरण देखकर पत्नी ‘नटी’ से प्रश्न करता है, “आज क्या है?” तब ‘नटी’ उसे अपने व्रत के विषय में बताती है। यह भी कि व्रत खोलने से पहले ब्राह्मण-भोजन कराना होता है। इसलिए वह ‘नट’ से कहती है कि जाकर ब्राह्मण-देव को ले आए। ‘नटी’ के कहने पर ‘नट’ अब ब्राह्मण को ढूँढ़ने निकल पड़ा है। मन में सोचता जा रहा है कि उसके अनुरूप अर्थात् कोई निर्धन-सा ब्राह्मण इस समृद्ध उज्जयिनी नगरी में कहाँ मिलेगा? तभी कुछ दूरी पर ‘चारुदत्त’ का मित्र ‘मैत्रेय’ दिखाई देता है।
‘चारुदत्त’ नाटक का नायक है। वह कभी समृद्ध ब्राह्मण हुआ करता था। लेकिन अपनी दानप्रियता के कारण दरिद्रता को प्राप्त हुआ है। ‘विदूषक’, उसके सुख-दुख का साथी है। उसका वास्तविक मित्र है।
‘मैत्रेय’ को देखकर ‘नट’ उसे अपने घर आमंत्रित करता है। लेकिन ‘मैत्रेय’ अपनी व्यस्तता दिखाकर आमंत्रण अस्वीकार कर देता है। ‘नट’ के मन में विचार आता है, ‘कहीं यह मेरी निर्धनता के कारण तो मना नहीं कर रहे हैं।’ अत: वह मैत्रेय को दक्षिणा और भोजन की सम्पन्नता का लोभ भी देता है। लेकिन मैत्रेय फिर भी मना कर देता है।
कथानक आगे बढ़ता है…
रंगमंच पर ‘मैत्रेय’ हाथ में दुपट्टा लेकर प्रवेश करता हुआ सोच रहा है…,
“क्या मुझे सूत्रधार (नट) का निमंत्रण स्वीकार कर लेना चाहिए था? एक वक़्त था, जब मैं ‘चारुदत्त’ की सम्पन्नता के दिनों में यत्नपूर्वक लड्डू खाकर ही सन्तुष्ट हुआ करता था। सैकड़ों प्यालों को केवल छूकर छोड़ दिया करता था। नगर के चौराहे पर बैठे सांड की तरह जुगाली करता हुआ बैठा रहता था। लेकिन अब? अब चारुदत्त की निर्धनता के कारण स्थिति पूरी उलट हो चुकी है। ऐसे मैं, मुझे क्या करना चाहिए था?”
“ख़ैर! चलो पहले ‘चारुदत्त’ को यह दुपट्टा दे देता हूँ। यह उनके परममित्र ‘चूर्णवृद्ध’ ने भेजा है, उनके लिए।”
तभी देखता है कि ‘चारुदत्त’ उसी की ओर आ रहा है।
मंच पर ‘चारुदत्त’ और ‘रदनिका’ का प्रवेश हुआ है।
‘चारुदत्त’ की सेविका ‘रदनिका’ दुर्दिनों में भी श्रद्धा से उसकी सेवा करती है। उसके पुत्र ‘रोहसेन’ का पालन करती है।
‘चारुदत्त’ अपनी निर्धनता पर विचार करते हुए कहता है, “मेरे घर की दहलीज़ पर कभी रखी हुई बलि हंस खाया करते थे। लेकिन इस समय मेरी निर्धनता के कारण उन्हीं दहलीज़ों पर घास उग आई है। बिखरे हुए बीजों में अंकुर निकल आए हैं। उन अंकुरित बीजों को भी कीड़ों ने आधा खा लिया है।”
ऐसा कहते हुए दुखी मन से वहीं बैठ जाता है।
‘विदूषक’ इसी बीच ‘चारुदत्त’ को चूर्णवृद्ध द्वारा भेजा हुआ दुपट्टा देता है। चमेली के फूलों से सुगन्धित बहुमूल्य दुपट्टा देखकर ‘चारुदत’ फिर विचार करने लगता है, “घने अंधेरे में दीपक का प्रकाश भी सुखकर होता है। वैसे ही दुखों के बाद सुख का अनुभव अच्छा लगता है। लेकिन व्यक्ति वैभव के बाद निर्धन हो जाए, तो वह मृत समान है।
‘विदूषक’ तब अपने मित्र की मनोदशा को समझते हुए सवाल करता है, “बताओ मित्र, मरण और निर्धनता में तुम्हें क्या अच्छा लगेगा?”
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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