टीम डायरी, 17/2/2021
नगर कीर्तन, सदियों पुरानी एक विशुद्ध भारतीय परम्परा। सुबह-सुबह कुछ लोग जब हरिनाम संकीर्तन, भक्तिपद गाते हुए हमारे दिन को ‘सुदिन’ बनाने के मकसद से गलियों, चौक-चौबारों से गुजरते हैं, तो वह ‘नगर कीर्तन’ कह दिया जाता है। यही नगर कीर्तन तब ‘प्रभात फेरी’ हो जाता है, जब समाज में जागरुकता लाने, लोगों का ध्यान किसी मसले की तरफ़ खींचने के लिए उस विषय का काव्य कहते हुए लोगों के समूह यूँ ही हमारे दरवाजों से गुजरा करते हैं। मिसाल के तौर पर बहुत लोगों को बचपन की प्रभात फेरियाँ अब भी शायद भूली न होंगी। हर 15 अगस्त की सुबह विद्यालयों की गणवेष (Uniform) पहने बच्चे आज़ादी के तराने गाते, हमें सुनाते निकला करते थे। ये जताने निकलते थे कि देश की आज़ादी हमें यूँ ही नहीं मिली है। सदियों के लम्बे संघर्ष और लाखों कुर्बानियों के बाद मिली है, इसे सहेजना है।
हालाँकि वक़्त के साथ हम सब भूलते गए। वह जज़्बा, वह प्रभात फेरियाँ, वह नगर कीर्तन, वे सारे जतन। पर कहते हैं न, दुनिया उस भीड़ से नहीं चलती जो धरती के चप्पे-चप्पे पर चस्पा है। बल्कि उन चन्द लोगों से चलती है जो उस भीड़ के आगे मिसाल की तरह पेश आते हैं। मैसूर, कर्नाटक का रघुलीला संगीत विद्यालय वही मिसाल पेश करने, कायम करने की कोशिश में है। यहाँ इस वीडियो में दिख रहे बच्चे और बड़े, इसी विद्यालय से ताल्लुक़ रखते हैं। ये लोग दक्षिण कन्नड़ जिले के अश्वथपुरा कस्बे में स्थित श्रीराम मन्दिर के इर्द-ग़िर्द नगर कीर्तन करते हुए निकल रहे हैं। इसी सात फरवरी, रविवार सुबह। उसी दौरान इनका वीडियो बना लिया गया। सामाजिक माध्यम मंचों (Social Media Platforms) पर आया और चन्द दिनों में करोड़ों निगाहों से गुज़र गया। जाहिर बात है, सबने तारीफ़ ही की।
लेकिन क्या बेहतर नहीं होगा कि हम इस प्रयास के मन्तव्य, उसके उद्देश्य से जुड़ सकें? रघुलीला विद्यालय की निदेशक डॉक्टर सुनीता चन्द्रकुमारी इस मन्तव्य पर रोशनी डालती हैं, “नगर कीर्तन, भक्ति पद गायन, संगीत-साहित्य का एक विशिष्ट अंग है। लेकिन वक़्त के साथ लोग इसे भूलते जा रहे हैं। भूल चुके हैं। हम उसे फिर लोगों तक पहुँचाने का एक प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए हम समय-समय पर आस-पास के किसी शहर, कस्बे में जाते हैं। वहाँ नगर कीर्तन का आयोजन करते हैं। इस तरह हम संगीत, साहित्य के क्षेत्र में अपना थोड़ा योगदान दे पाते हैं। और फिर संगीत विद्यालय के तौर पर यह हमारा ‘धर्म’ भी तो है।” निश्चित ही, इस विद्यालय से जुड़े लोगों को अपने ‘धर्म’ को लेकर कोई दुविधा नहीं। उसे ‘धारण करने’ में उन्हें कोई संशय नहीं। इनसे क्या बस, इतना ही सीख लेना हमारे लिए पर्याप्त नहीं?
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(आभार : रघुलीला संगीत विद्यालय, मैसुरू, कर्नाटक)