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संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 22/1/2022
आवाजों का शोर है। इधर जीवन में एक और आवाज़ जुड़ी है, ठन- ठन-ठन, चौबीसों घण्टे गूँज रही है। हर समय सोते-जागते, यह आवाज़ पीछा नही छोड़ रही, छाती को फाड़कर, गले को चीरकर निकल रही है।
सामने मकान बन रहा है। तीन मंज़िला। एक साल से ज़्यादा समय हो गया। कभी ट्रक, कभी ट्रेक्टर, कभी डम्पर से सामान आता है। लोग ये सब भड़भड़ाकर सामान गिराकर चल देते हैं। रात हो या दिन, कोई फर्क नही पड़ता। जेसीबी की खड़खड़ हो या मजदूरों की कर्कश आवाजें। एक दुखस्वप्न है जैसे। मजदूर कभी लड़ते हैं, हँसते हैं और खूब चिल्लाते हैं। ठेकेदार की रौबदार आवाज़ भी दहाड़ती है। कभी लकड़ी चीरने की, कभी टाइल्स घिसने की। कभी मार्बल छीलने की और कभी लाल पत्थर तोड़ने की आवाज़ें हर समय गूँजती हैं यहॉं।
शाम होते-होते बारात, कीर्तन, ढोल, ताशे, बैंड, भाषण, अज़ान, मुल्लों की चीखती आवाज़ें। घर लौटते सस्ती सब्जी बेचने वाले। और न जाने क्या-क्या आवाज़ें नित नए आकार-प्रकार में गूँजती हैं। पास से वाहनों का शोर हदरम चिंघाड़ता ही है। पुलिस के सायरन, नेताओं के सायरन, एम्बुलेंस के सायरन और भारी ट्रकों के खत्म होते टायरों की आवाज़ें भी गूँजती हैं कानों में।
रात के समय तारों को निहारने बैठो तो हवाई जहाज। घर लौटते पंछी, टिटहरी का शोर। उल्लू की आवाज़, घर के कोने से दुबकी हुई बिल्ली के मिमियाने के कातर स्वर और गली के कुत्तों के सामूहिक सुरों में मेरी पालतू कुतिया लेब्राडोर चेरी का अविकल भौंकना भी इस आवाज़ के जादू में एक मिश्रित स्वर बन जाता है। सामने एक संयुक्त परिवार है जहाँ 8-10 छोटे बच्चों की हँसी-खेल देर रात तक चलते हैं। उनकी कामकाजी माँएं सो जाती हैं और स्नेहिल दादी के प्यार में पगी फटकार में दौड़ते-भागते बच्चे और शैतान हो जाते हैं। रात गहराने के साथ, सड़क पर बाइक दौड़ाते युवा और किशोर हँसी-ठट्ठा करते गुजरते हैं तो उनकी बाइक के हॉर्न उनकी हँसी के ठहाके का शोर व्युत्क्रमानुपाती होता है। सड़क पर आवारा गाय और सांड कभी लड़ पड़ते हैं तो कभी सुअर झुंड में आकर घुर्राते हैं बच्चों सहित।
ये सब जुगलबंदियाँ किसी सात रागों में गुँथी हुई सी हैं, मानो। पर इस सबकी अब इतनी आदत हो गई है कि जिन आवाजों को सुनकर हिस्टीरिया के दौरे पड़ते थे, वो बन्द हो गए हैं और इस खाँसी की ठन, ठन, ठन ने सबको रिप्लेस कर दिया है। अब आवाज़ों से बैर कैसे निकालूँ, जब अपनी ही छाती फाड़कर गला रेत कर निकली आवाज़ से इतनी हैदस बैठ गई है कि एक क्षण न खाँसूं तो हाथ सीधा दिल पर जाता है और आँखें फाड़कर देखता हूँ- कभी धरती, कभी आसमान और दूसरे हाथ से दिल की धड़कन को टटोलता हूँ कि चल रहा है या किस्सा ख़त्म।
पता नहीं छाती में इतनी ताक़त कहाँ से आ गई कि आवाज़ ने सब ओर धूम मचा रखी है। छत पर निकलता हूँ तो पड़ोसी शक से देखते है कि यह पागल जो रोज माँगने वालों, ढोल वालों को, कचरे की गाड़ी वाले को या भिखारियों को कुछ ले-देकर चुप करता रहता है, आजकल शोर की मशीन बना घूम रहा है। फिर थककर कमरे में आ जाता हूँ और पुनः अविकल खाँसी का दौर शुरू हो जाता है। शाम होते ही मौसम ठंडा हो जाता है तो इस खाँसी का पागलपन बढ़ जाता है और कुछ समझ नहीं आता मुझे।
टीवी लगाता हूँ, गाने सुनने की कोशिश करता हूँ। समाचार समझने को पुरजोर ताक़त लगा देता हूँ कि लता मंगेशकर बीमार थीं, कुछ अपडेट्स है क्या। देश में महँगाई कम हुई क्या थोड़ी भी। पेट्रोल के भाव कम हुए। रमा चाची की निराश्रित महिला पेंशन की फाइल पर विधानसभा में चर्चा हुई। दिवाकर चाचा की लड़की को कोई बिना दहेज लिए शादी करने वाला युवा मिला। मनाली के घर वाले उसे आगे पढ़ने देंगे या नही। इस प्रपंची चुनाव में किसी नेता ने स्वच्छ भाषण देकर विनम्रता से वोट की गुहार लगाई। पर कुछ सुनाई नहीं देता।
दोस्तों के फोन आते हैं तो बात नहीं कर पाता। सो, अब उठाना ही बन्द कर दिया। आज एक मीटिंग में बैठा। करीब डेढ़ घण्टे। दो बार जगह बदली कमरे में ही और पूरे समय मुँह में नेपकिन ठूँसे रहा। शर्म भी अब नहीं आती। सबके चेहरे देखना बन्द कर दिए हैं, जो देर तक दया भाव से मेरी ओर मुझे खाँसते हुए देखते हैं और फिर संवाद ही बन्द कर देते हैं, यह कहकर कि ‘आप शांत हो जाओ, पहले ठीक हो जाओ ‘
कुल मिलाकर जो शेष है, वह है शब्द और लिखने की कला, कभी यह भी ख़त्म हो गई तो?
ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 43वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
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