Pushpendra ji

हमारे लिए होली के रंग अब हमेशा फीके रहेंगे ‘बाबा’, आपसे विदा लेना सम्भव नहीं है…!!

दीपक गौतम, सतना मध्य प्रदेश से

बाबा आपका जाना हम सबका अनाथ हो जाना है। पीपी सर के नाम से मशहूर पुष्पेंद्र पाल सिंह जी को हम स्टूडेंट्स प्यार से ऐसे ही बुलाते थे ‘बाबा। बाबा, आप इस दुनिया में नहीं हैं, इस खबर पर अब तक यकीन नहीं होता। ईश्वर इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? उसने हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी पूँजी छीन ली है। आपको ऐसे याद करना पड़ेगा कभी सोचा नहीं था। आपने हमसे विदा भी आपके सबसे पसन्दीदा त्यौहार होली पर ली। हमारे लिए अब होली के रंग हमेशा फीके ही रहेंगे।

बाबा पर लिखने के लिए शब्द अक्सर कम पड़ जाते हैं, लेकिन आज तो न शब्द साथ दे रहे हैं और न ही आंखें। उनके जाने के सप्ताह भर बाद मैं कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूँ। क्योंकि लिखते हुए आँखें पसीज जाती हैं। शब्द धुँधले दिखाई देने लगते हैं। यूँ तो बाबा को किसी लिखावट या इबारत में पूरा पिरो पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है। फिर भी, याद करता हूँ तो लगता है कि कल ही की बात है।

जब बाबा से विश्वविद्यालय में पढ़ने-समझने से इतर मध्यप्रदेश माध्यम में उनके साथ रचनात्मक लेखन का काम करने का सौभाग्य मुझे मिला। लगभग डेढ़ साल उस भीषण दबाव और चुनौतियों से भरे लेखन कार्य का मैं हिस्सा रहा, जिसमें दिन-रात या काम के घण्टे कुछ भी सुनिश्चित नहीं थे। फिर भी बाबा के स्नेह और प्रेम की छाँव तले वह काम हमेशा समय पर कब और कैसे पूरा हुआ, ये पता ही नहीं चला। ये बात और है कि बेहतर करने के जुनून में बाबा ने न दिन देखा और न ही रात। वे खुद रात-रात भर हमारे साथ बैठकर ड्राफ्ट तैयार करवाते रहते।

इस दिनचर्या ने निश्चित ही उनका स्वास्थ्य बिगाड़ दिया। बाद में उन्हें वहीं रहते हुए शुगर की शिकायत भी हो गई थी। यूँ भी अब इन सब बातों का जिक्र कोई मायने नहीं रखता, लेकिन इससे उनका काम के प्रति जुनून, सबके लिए 24×7 उपलब्ध रहना और खुद के प्रति बेपरवाह हो जाने का पता चलता है। उन्होंने कभी ‘न’ नहीं कहा। शायद इसीलिए इतना व्यस्त होते चले गए कि काम और सिर्फ काम ही उनका जीवन हो गया। लोग थोड़ा वक्त खुद के लिए और परिवार के लिए निकलते हैं। दफ्तर के इतर अपना व्यक्तिगत जीवन जीते हैं, लेकिन बाबा ने सामाजिक जीवन ही जिया। वो हमेशा पब्लिक फिगर रहे। हम सबके लिए सबके बनकर तो रहे, खुद अपने न हो सके। मुझे ये टीस सदा रहेगी।

मेरे दादा जी के देहान्त के बाद पारिवारिक कारणों से मुझे 2019 में भोपाल और उस लेखन कार्य से विदा लेनी पड़ी। मैं सतना लौट आया। लेकिन जब भी बात होती तो बाबा हमेशा कहते कि लिखना मत छोड़ना और कोशिश करो कि लिखते रहो। जिस बहाने सही, लिखो तुम अच्छा लिख सकते हो। मुझे भोपाल छोड़े हुए लगभग तीन वर्ष से अधिक हो गया। इस बीच जब भी भोपाल आना हुआ बाबा से मुलाकात होती रही। मुझसे कहते कि तुमने बिजनेस जर्नलिज्म से बिजनेस पर छलांग लगाई है, वहाँ भी अच्छा करोगे। अपना जर्नलिज्म का तजुर्बा भी इस्तेमाल करना। अभी कुछ माह पहले ही मुलाकात हुई थी, तो बिटिया और नमिता को साथ लाने की ताकीद देकर उन्होंने आशीर्वाद दिया था।

मध्यप्रदेश माध्यम में बाबा के साथ काम करने की ढेरों यादें हैं। लेकिन बाबा को याद करना हो तो विवि में उनके साथ बीते पल ही जिन्दगी की सबसे अमूल्य धरोहर हैं। बाबा अपने आप में एक चलती फिरती पाठशाला थे, जिन्होंने हजारों पत्रकार और बेहतर इंसान गढ़े। ये उनसे मिलने वाला निश्छल प्रेम ही था कि वो पुष्पेंद्र पाल सिंह या पीपी सर से कब हमारे ‘बाबा’ हो गए, पता ही नहीं चला। यकीनन उन्होंने दादा जी जितना स्नेह और प्रेम हर विद्यार्थी पर कुड़ेला है।

मुझे याद है कि मैं सबसे पहले बाबा से माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्विद्यालय (एमसीयू) के इंट्रेस एग्जाम का रिटेन क्लियर होने बाद मिला था। जब वे इंटरव्यू वाले लास्ट राउंड में पैनल के तौर पर सामने बैठे थे। उनके साथ में चौरे सर और राखी मैम सहित वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी भी पैनलिस्ट थे। सभी के सवाल होने के बाद बाबा ने ही इंटरव्यू का मुझसे आखिरी सवाल पूछा कि “पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो? ” मैंने कहा- “जी मुझे लिखने का शौक है, लगता है बस यही कर सकता हूँ। बस इसीलिए आना चाहता हूं।” वे बोले “अच्छा तो क्या लिखा है, कहाँ छपा है, दिखाओ। मैंने कहा “जी बस कविताएं लिखी हैं और स्कूल-कॉलेज के मंच पर सुनाई भी हैं, कुछ छपा तो नहीं है।” तो उन्हीने कहा- ” कुछ अपना लिखा सुनाओ।” मैंने मुम्बई 2002-03 के बॉम्बे ब्लास्ट के समय व्यथित होकर लिखी गई अपनी एक पुरानी कविता ओजपूर्ण स्वर में सुना डाली। बाबा बोले, “बहुत अच्छा, अब आप बाहर जाइए और फाइनल लिस्ट का इंतजार करिए।”

ये मेरी बाबा से पहली मुलाकात थी, उसके बाद अगली मुलाकात तो विश्विद्यालय में ही हुई। मुझे नहीं पता सेलेक्शन का आधार वो कविता रही या कुछ और परन्तु मैं विश्विद्यालय में दाखिला पा चुका था। यहाँ बाबा को नजदीक से जानने समझने का मौका मिला। पहली बार ऐसा लगा जैसे किसी अभिभावक के रूप में कोई शिक्षक मिला हो। दाखिले के ठीक बाद बाबा की एक लम्बी क्लास हुई। करीब दो-तीन घंटे की। उसमें उन्होंने खाने की ताकीद से लेकर रहने तक और पत्रकारिता के पेशे की अन्य बारीकियों से रूबरू कराया। हमें समझाया कि अब इस पेशे में आए हो तो इसकी चुनौतियों को सबसे पहले समझ लो। यहाँ डेड-लाइन के प्रेशर के बीच सटीक और सही जानकारी परोसने का जो जोखिम है, उसमें कई बार खुद के लिए वक्त न के बराबर मिलता है। ऐसी तमाम समझाइशों का दौर बाद में लगातार कोर्स होने तक चलता रहता था।

हम लोगों के लिए यह एक बूस्टर डोज था। इसके बाद जब भी बाबा को लगता कि लाइब्रेरी, परीक्षा, लैब जनरल ‘विकल्प’ छापने, ‘संगोष्ठी’-परिचर्चा सहित सेमिनार या अन्य प्रायोगिक गतिविधियों में बच्चों का प्रदर्शन गड़बड़ा रहा है, वे चार-पाँच घंटे की एक लम्बी क्लास लेते। और सब बच्चे सही दिशा में आ जाते। उनके डॉँटने या समझाने का तरीका ही ऐसा होता रहा कि लगता जैसे पिता जी डाँट-समझा रहे हैं। और दूसरी कमाल की बात ये भी रही कि जब भी मस्ती का अवसर होता या कोई सांस्कृतिक आयोजन प्रतिभा आदि होती तो बाबा का एक अलग ही मित्रवत रूप देखने को मिलता, वे हमारे साथ हँसते, गाते और नाचते थे। उन्होंने विश्विद्यालय में ही विद्यार्थियों के लिए एक घर जैसा माहौल खड़ा कर दिया था, ताकि हमें कभी घर की कमी न खले। इसी का सुखद परिणाम रहा कि सीनियर्स और जूनियर्स के बीच भाईयों की तरह रिश्ते बने, जो आज तक कायम हैं।

मुझे याद है कि 2007-09 वाला शिक्षा सत्र जुलाई के बाद ही सही से शुरू हो पाया था। क्योंकि कुछ बच्चे तो एडमीशन लेकर चले गए और कक्षाओं में आना उन्होंने सितम्बर में शुरू किया था। यह पहला साल था जब सात-नम्बर की किराए की इमारत की जगह एमसीयू एमपीनगर की प्रेस कॉम्प्लेक्स वाली इमारत में आ गया था। हालाँकि पहले सेमेस्टर तक हमें लाइब्रेरी के लिए वहीं सात-नम्बर में जाना पड़ता था, जहाँ बगल में जायका की चाय और कचौरी का लुत्फ उठाया जाता था।

मुझे याद है कि उस दौरान बाबा विद्यार्थियों की खाने, रहने, खुद को संभालने आदि से लेकर अन्य तरह की हर मुश्किलात का हल निकालते रहते थे। मसलन यूनिवर्सिटी की नई इमारत के सारे माले शाम सात तक अँधेरे में डूब जाते थे। लेकिन बाबा के दफ्तर की बत्तियाँ रात 11 बजे तक जलती दिखती थीं। वहाँ सब विद्यार्थी अपनी-अपनी समस्या लेकर बैठे रहते। फिर बाबा सबकी सुनते, सबको समझाते थे। कभी-कभी तो हमारे पुराने सीनियर्स, विश्विद्यालय और पत्रकारिता से जुड़े किस्से शुरू हो जाते, तो कब शाम से रात 11 बज गए पता ही नहीं चलता था। मुझे याद है कि ये दौर लम्बा चलता और जब तक उनके नोकिया-1600 फोन पर घर से उनकी बेटी सानू का तीन से चार बार फोन न आ जाता, सभा विसर्जित नहीं होती थी। घड़ी देखकर नौकरी करने वाले दौर में मैंने इतना समर्पण और खुलकर प्रेम, मार्गदर्शन देने वाला गुरु अब तक नहीं देखा।

अब भी 2007 की दीपावली और दशहरा मेरे जेहन में ताजा है, जो पहली बार गाँव-घर से बाहर भोपाल में ही, विश्विद्यालय में मना था। दशहरे वाले दिन हमें सीनियर्स की ओर से भोजपुर में फ्रेशर्स पार्टी मिली थी और हम वहीं से लौट रहे थे। उस रोज मैं जैसे ही थोड़ा असहज हुआ और मेरे आँसू निकल पड़े, तो बाबा ने सबकी नजरों से बचाते हुए मुझे दुलारा था। दीवाली वाले रोज भी पूजा और खाने का कार्यक्रम बाबा ने हम सबके साथ विश्विद्यालय में ही संपन्न किया। मुझे याद है कि लिट्टी-चोखा और चावल बनाया गया था। मिठाई बाजार से आई थी। हम सबने छककर खाया था। बाबा यूँ ही हर साल आने वाले नए बैच के बच्चों के साथ होली से लेकर ईद और दीवाली तक हर त्यौहार पहले विभाग में ही मनाते थे। जो विद्यार्थी इन त्यौहारों पर घर नहीं जा पाते थे, उन्हें कभी घर की कमी महसूस नहीं होती थी। ईद और होली में तो बाबा के साथ पूरा भोपाल नाप लिया जाता था। उस दौरान भोपाल में मौजूद लगभग हर सीनियर्स के यहाँ मिठाई और खीर के दौर होते थे।

मैं लिखता चला जाऊँगा तो ये लेख खत्म ही नहीं होगा शायद। क्योंकि बहुत सी बातें हैं, बहुत से किस्से हैं। साल 2007 से अब तक एक लम्बा वक्त गुजरा है। अब जब बाबा हम सबके बीच नहीं है, तब एक निजी किस्सा जाहिर करना चाहता हूँ, जो मेरे लिए भावनात्मक रूप से एक अलग अनुभव था। यह पहले सेमेस्टर की बात है, जब इंटरनल एग्जाम शुरू होने वाले थे। तीन इंटरनल देने जरूरी होते थे। मैं एक दे चुका था कि उसके अगले ही दिन अचानक अम्मा के एक्सीडेंट की खबर गाँव से आई थी। पता चला उन्हें जबलपुर में भर्ती कराया गया है, सिर पर गम्भीर चोट आई है। मैंने बाबा को फोन किया और पूरी बात बताई, तो उन्होंने कहा, “इंटरनल से तो अपन बाद में निपट लेंगे तुम अम्मा को देखो, तुरन्त ट्रेन पकड़कर जबलपुर निकलो। इस वक्त यही जरूरी है। किसी भी तरह की समस्या हो, तो फोन करना और चिन्ता मत करो सब ठीक होगा।”

लगभग अगले 15 दिनों तक मैं डॉक्टर जौहरी के अस्पताल में रहा। पिता जी भी साथ थे। उस समय बाबा हर रोज रात में फोन करते और पूरा हालचाल लेते। सभी सहपाठियों और सीनियर्स के फोन भी भोपाल से आते रहते थे। मुझे उस दौरान भावनात्मक रूप से परिवार के इतर एक इमोशनल सपोर्ट की जरूरत थी, क्योंकि मेरे लिए जीवन में यह इस तरह की बड़ी और पहली विपदा थी। उस समय सगे सम्बन्धियों के इतर विश्वविद्यालय के सीनियर्स और बाबा का इतना स्नेह और सहयोग मिला कि मैं उस मुश्किल वक्त से उबर पाया।

इसके बाद भी विश्वविद्यालय और वहाँ से निकलने के बाद जब भी कभी पेशागत या व्यक्तिगत परेशानियों से जूझता, बाबा का इमोशनल सपोर्ट कभी कम नहीं हुआ। पढ़ाई-लिखाई, डाँट-डपट के इतर ये जो प्रेम, अपनापन हमें मिला। इसने हमें व्यवहारिक और भावनात्मक तौर पर बेहतर होने में बहुत मदद की। आज विश्विद्यालय के पाँच से छः पीढ़ी के सीनियर्स और बाबा के साथ बने रिश्ते ही जीवन की असली पूँजी हैं। इसीलिए एक शिक्षक को याद करने के लिए भोपाल जैसा शहर उनकी होर्डिंग्स और बैनर से पट गया। अभी 14 मार्च को विवि के प्रांगण में उन्हें याद करने के लिए विद्यार्थियों का हुजूम इकट्ठा था।

मैं बाबा को जितना जान और समझ सका हूँ, उससे बस यही कह सकता हूँ कि अपने सगे सम्बन्धियों और परिजनों के लिए तो सब जीते हैं। यूँ विद्यार्थियों और उनसे मिलने वाले हर आम-ओ-खास के लिए अपना पूरा जीवन होम कर देने वाले विरले ही होते हैं। मुझे तो इतना निश्छल प्रेम कहीं और नहीं मिला…। आप बहुत याद आएँगे। आपकी समृतियों का संसार हम सबको जीवनभर प्रेरणा देता रहेगा। आपसे विदा लेना सम्भव नहीं है। आपसे सुखद स्मृतियों में ही सही मिलना होता रहेगा। लव यू बाबा।
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(दीपक बहुत उम्दा लिखते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी पर ‘बेटी के नाम पत्र’ जैसी लोकप्रिय श्रृंखला उन्हीं की है। वे उसके अलावा भी अपना लिखा हुआ बीच-बीच में डायरी को भेजते रहते हैं। यह लेख उन्हीं में से एक है।) 

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