तर्क से कुछ भी प्रतिष्ठित नहीं, उत्तम ज्ञान सारे तर्क समाप्त हो जाने पर मिलता है

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से

पहले तीन दिन पुराने दो उदाहरणों का उल्लेख करना बेहतर रहेगा। फिर इस शीर्षक के बारे में बात, जो भारतीय महाकाव्य ‘महाभारत’ के सन्दर्भों से लिया गया है। तो मामला यूँ है कि वॉट्स-एप के दो समूहों पर चर्चाएँ चल रही हैं। पूरी तरह सच्ची। मनगढ़न्त नहीं। पहला समूह संगीत के विद्यार्थियों का है। इसमें गुरुजी ने एक कहानी साझा की है। इसके अनुसार, एक शिक्षक की कहानी इस बात से बेहद प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं उनके पढ़ाए और प्रोत्साहित किए हुए ‘औसत दर्ज़े के विद्यार्थी’ भी जीवन में बहुत उपलब्धि हासिल कर रहे हैं। इस कहानी को साझा करते हुए संगीतज्ञ गुरुजी ने अपने विद्यार्थियों से सवाल किया, “शिक्षण का मेरा तौर-तरीक़ा मेरे विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करता है, या नहीं?” फिर उन्होंने अपने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते हुए यह भी कहा, “कोई भी अपनी राय खुलकर रख सकता है। और मैं सिर्फ़ अपनी प्रशंसा सुनने की अपेक्षा नहीं कर रहा हूँ, आप लोगों से।” 

क्या लगता है? क्या हुआ होगा? इसका ज़वाब है कि सिर्फ़ एक विद्यार्थी ने सच्ची, सधी हुई और मर्यादित राय दी। वह भी समूह में नहीं बल्कि निजी सन्देश भेजकर। लिखा, “गुरुजी, मेरा ख़्याल है कि आपको सही ज़वाब तभी मिल सकेगा, जब आप समूह में चर्चा के बजाय स्व-चिन्तन करेंगे। पिछली घटनाओं की स्व-समीक्षा करें।” लेकिन गुरुजी चर्चा की ही तैयारी में थे। हालाँकि उस विद्यार्थी ने इतना कहकर अपनी बात को विराम दे दिया कि, “गुरुजी, तर्क-वितर्क से, इस तरह की सामूहिक चर्चा से, आपको आपके प्रश्न का उत्तर मिलता तो काफ़ी पहले मिल चुका होता। आपके मन से प्रश्न ख़त्म हो जाता। क्योंकि इससे पहले भी आप कई मौक़ों पर इस तरह की सामूहिक चर्चाएँ कर चुके हैं।”

और सच में उस विद्यार्थी की बात सही साबित हुई। हर बार की तरह इस बार भी समूह में किसी ने गुरुजी के प्रश्न का सही उत्तर नहीं दिया। चार-पाँच लोगों ने प्रशंसा-सन्देश ज़रूर लिखे। जैसा कि पहले उल्लेख किया। इस कक्षा में पहले भी ऐसे प्रसंग आए। कभी कुछेक विद्यार्थियों ने साहस जुटाकर गुरुजी से प्रश्नोत्तर करने की क़ोशिश की। पर नतीज़ा नहीं निकला। क्योंकि गुरुजी को संगीत के साथ ही उच्च स्तर की तर्कशक्ति में भी महारत है। सो, उन्होंने हर बार सभी तर्क ध्वस्त कर अपना मत सही सिद्ध कर दिया। बावज़ूद इसके कि उन्हीं की कक्षा में कई विद्यार्थी किसी न किसी कारण से हतोत्साहित होकर ही संगीत छोड़ चुके हैं। ये एहसास गुरुजी को भी है। इसीलिए उनके मन में जब-तब सवाल भी उठता रहता है। हालाँकि बाहरी तर्क-वितर्क से वह सवाल हमेशा निरुत्तरित, निष्कर्षहीन रह जाता है। 

अब बात दूसरे समूह की। इस समूह में दो मित्र भाषा के मसले पर बात कर रहे हैं। एक हिन्दी की शुद्धता का समर्थक। दूसरी हिन्दी की उदारता का। शुद्धता के समर्थक मित्र का तर्क है कि किसी भाषा से आयातित शब्द को हिन्दी की शैली, उसके वातावरण के अनुरूप ढालकर इस भाषा में जगह दी जानी चाहिए। या फिर नहीं ही दी जानी चाहिए। जैसे- उर्दू के लफ़्ज़ ‘ज़रूरत’ को अगर हिन्दी में लिखना है तो उसे नुक़्ते के बिना ‘जरूरत’ लिखा जाना चाहिए। वहीं दूसरे मित्र का तर्क रहा कि ऐसा करने से अर्थ का अनर्थ होने लगता है। उदाहरण के लिए, अगर ‘सज़ा’ काे नुक़्ते के साथ लिखें तो उसका अर्थ हुआ दंड। लेकिन अगर उसे ही नुक़्ते के बिना लिखें तो फिर मतलब ‘सजावट’ से भी लगाया जा सकता है। सो, ऐसे तर्कों के आधार दोनों अपने मत पर दृढ़ रहे और तर्क-वितर्क यहाँ भी निष्कर्षहीन रहा।

वास्तव में निष्कर्ष निकल भी नहीं सकता। क्योंकि ऊपर बताए दोनों ही मामलों में अपनाए गए तरीक़े से अधिकांशत: किसी एक मत की तुष्टि, पुष्टि ही सम्भव है। ज़ाहिर है, तार्किकता में सबल पक्ष के मत की ही। यानी सर्वसम्मत निष्कर्ष हासिल होने की सम्भावना न्यूनतम रहती है। तो अब क्या करें? इस प्रश्न का ज़वाब महाकाव्य ‘महाभारत’ में कई जगहों पर मिलता है। मिसाल के तौर पर ‘महाभारत’ के ‘वनपर्व’ में एक श्लोक है, “तर्कः अप्रतिष्ठः, श्रुतयः विभिन्नाः, एकः ऋषिः न यस्य मतं प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं गुहायाम् निहितं, महाजनः येन गतः सः पन्थाः।।” मतलब- तर्क से कुछ भी प्रतिस्थापित नहीं है। श्रुतियाँ भी भाँति-भाँति की बातें करती हैं। ऐसा कोई ऋषि, चिन्तक भी नहीं है, जिसके वचन को सर्वसम्मत प्रमाण माना जा सके। ऐसे में धर्म का मर्म समझना बहुत ही गूढ़ हो जाता है। इसीलिए श्रेष्ठ तरीक़ा ये है कि महान् लोग जिस रास्ते पर चले हों, उसी का अनुकरण किया जाए (बिना तर्क-वितर्क के)। 

अब सवाल हो सकता है कि महान् लोग कौन? तो महान् वे जिन्होंने अपनी अन्तरात्मा को सर्वोपरि रखा हो, उसकी सुनी हो, उसी के बताए अनुसार सत्य, धर्म, कर्म का अपने लिए निर्धारण किया हो। इसी तरह, ‘अनुशासन पर्व’ में दो मिलते-जुलते उल्लेख हैं। पहला- “हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम्।” अर्थात्- उत्तम ज्ञान तभी प्राप्त होता है, जब सारे तर्क समाप्त हो जाते हैं। और दूसरा- “जिज्ञासा न तु कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात्।” मतलब- तर्क का सहारा लेकर धर्म को जानने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्यों? क्योंकि बात फिर वही कि अपने-अपने ज्ञान के आधार पर किए गए शास्त्रार्थ से, तर्क-वितर्क से सर्वसम्मत, सर्वस्वीकार्य निष्कर्ष निकलने की सम्भावना बहुत कम होती है। और जो सर्वसम्मत नहीं, सर्वस्वीकार्य नहीं, वह एकपक्षीय हुआ। इसीलिए उसकी प्रतिष्ठा भी नहीं। 

समझने की बात बस, इतनी ही है। अलबत्ता है ‘रोचक-सोचक’। इसलिए विचार सभी से अपेक्षित है।

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