JAIN-DHARM

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 10/5/2022

वेदों में देवता से कई प्रकार के भाव लिए गए हैं। साधारणतः वेदमंत्रों के जितने विषय हैं, वे देवता कहलाते हैं। नैरुक्तकार यास्क ने देवता शब्द को ‘दान देने वाला’ के अर्थ में निकाला है। देवताओं के संबंध में प्राचीन चार मत पाए जाते हैं—ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक और आध्यात्मिक। ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न-भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है। याज्ञिक लोग मंत्र को ही देवता मानते हैं, जैसा जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का रूपविग्रह आदि नहीं, वे मंत्रात्मक हैं। नैरुक्तक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते हैं।

ऋग्वेद में कुछ ऐसे मंत्र भी हैं, जिनमें भिन्न देवताओं के अनेक नाम कहे गए हैं। जैसे इंद्र को मित्र और वरुण कहते हैं। ऐसे ही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष या वेदान्त के मूल बीज हैं। उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गई है। प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारी देख पड़ीं, उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रों द्वारा किया। देव या देवता शब्द अगोचर सत्ताओं के भाव में समझा जाने लगा। देवता मनुष्यों से भिन्न अमर प्राणी माने जाते थे। बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं को साधारण आदमी मानते हैं और इसी पौराणिक रूप में। भेद केवल इतना ही है कि वे देवताओं को बुद्ध, बोधिसत्व या तीर्थकरों से निम्न श्रेणी का मानते हैं।

ईश्वरवादी दर्शन जहाँ देवताओं में मनुष्यत्व का आरोप कर देते हैं, वहीं जैन दर्शन मनुष्य पर देवत्व आरोपित कर देता है। वह मनुष्य को ईश्वर के तौर पर देखता है। जहां मनुष्य की सहज शक्तियाँ पूर्ण विकसित अवस्था में होती हैं। जीव का सम्यक् स्वरूप ही मनुष्य का आदर्शभूत है। अगर ऐसा कहा जाए कि मनुष्य ही मनुष्य का पूर्ण आदर्श रूप है। वही पूर्ण शक्तियों से संपन्न मनुष्य देवताओं से उत्कृष्ट है, तो अनुचित न होगा।

जैन दर्शन मनुष्य को ही देवता बनने का निमंत्रण देता प्रतीत होता है। देवता नहीं, बल्कि देवता से उत्कृष्ट, पूर्ण शक्ति सम्पन्न मनुष्य के रूप में विकसित होने का आह्वाहन करता दिखाई देता है। सम्भवत: जैन दर्शन की सामाजिक स्वीकार्यता में इस आह्वान का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप तीर्थंकरों को आमजन ने ईश्वर रूप में मंदिरों में स्थापित कर दिया।

हालाँकि उसके बाद भी अगर हम देखें तो कहीं न कहीं जैन दर्शन पर ‘अहम् ब्रह्म अस्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ, उस परम शक्ति का अंश हूँ आदि उपनिषद वाक्यों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ साधक स्वयं को ईश्वर का अंश, भाग, हिस्सा होने की घोषणा करता हुआ स्वयं के पूर्ण होने की वकालत करता दिखाई देता है।

इस प्रकार जैन दर्शन ईश्वर की अवधारणा का निराकरण करते हुए, मानव को ही ईश्वर रूप में स्थापित करने का उद्घोष करता है। प्रत्येक मानव में ईश्वर और अनन्त शक्तियों का वास है, ऐसे मानते हुए मानव को ईश्वर बनाने का कार्य करता है। ईश्वर में मानव का आरोप या मानव में ईश्वर का आरोप दोनों ही प्रकार में मानव केन्द्र में रहता ही है।

रही बात ईश्वर की तो मानव मन अपनी-अपनी भावना से ईश्वर के स्वरूप को मान ही सकता है और ईश्वर वैसे ही रूप में दिखाई दे जाता है, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 56वीं कड़ी है।) 

श्रृंखला की पिछली कड़ियााँ 
55. जो दिख रहा हो वास्तव में उतना ही सच नहीं होता
54. सिक्के के कितने पहलू होते हैं.. एक, दो या ज्यादा.. जवाब यहाँ है! 
53. हम सब कुछ पाने के लिए ही करते हैं पर सुख क्यों नहीं मिलता?
52. कर्म केवल शरीर से कहीं होना नहीं है….
51. जो जीव को घुमाता रहता है, जानिए उस पुद्गल के बारे में
50. यह ज्ञान बड़ी विचित्र चीज है! जानते हैं कैसे…
49. संसारी और मुक्त जीव में क्या भेद है, इस छोटी कहानी से समझ सकते हैं
48. गुणवान नारी सृष्टि में अग्रिम पद धारण करती है…
47.चेतना लक्षणो जीव:, ऐसा क्यों कहा गया है? 
46. जानते हैं, जैन दर्शन में दिगम्बर रहने और वस्त्र धारण करने की परिस्थितियों के बारे में
45. अपरिग्रह : जो मिले, सब ईश्वर को समर्पित कर दो
44. महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी? 

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *