जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 10/7/2021

जब 1982 में तिरुपति बालाजी चढ़े थे, तो पैदल ही चढ़ना होता था। वहाँ बहुत लोगों को कबीट ( कैथा ) के माफिक सर मुँडवाते देखा। हिन्दी बोल रहे थे, तो खूब मार खाई। एक गंजी स्त्री ने उन सबका मुकाबला किया और भीड़ को समझाया था, तेलुगु भाषा में कि बच्चे हैं, जाने दो। हिन्दी, यही इस देश की भाषा है। इसी यात्रा में राष्ट्रपति पुरस्कार लेना था। तत्कालीन मद्रास के यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन (YMCA) के मैदान पर 15 दिन रुककर कैम्प किया था। आने में कन्याकुमारी देखा पहली बार, रामेश्वरम और मण्डपम के बीच खुलने वाला समुद्र किनारे का पुल बना ही था नया-नया। वहाँ के लोगों की हिम्मत कमाल थी। पता नहीं था कि यहाँ का कोई बन्दा राष्ट्रपति बनेगा एक दिन। 

सत्यमंगलम के घने जंगल में जब ऊपर चढ़े तो लगा कि लौट पाऊँगा या नहीं। वीरप्पन (चन्दन तस्कर) ज़िन्दा था, उस वक्त। वहाँ खेतों की बागड़ पर बिजली के तारों की लटें देखीं, ताकि फसल हाथियों से सुरक्षित रहे। एक दिन दोपहर को जंगल में भूख लग आई। तीन बजे तक कुछ मिला नहीं था। एक झोपड़ी किनारे बूढ़ी माई वड़ा बेच रही थी। गया तो बोली, “खा लो, पैसा मत देना भले, पर ये खराब न हो जाए। अकेली रहती हूँ। उस बदमाश (वीरप्पन) के कारण कोई आता नहीं।” “तो फिर”, मेरा प्रश्न था। वह बोली, “फिर क्या उम्मीद तो होती है न। जैसे तुम आ गए आज।” 

गौहाटी-जोरहाट में भयानक बाढ़ थी। खूब पानी था। एक गाँव में फँसा हुआ था, एक हफ्ते से। गृह-स्वामी सिर्फ चावल का मांड दे रहा था पीने को। क्योंकि उसके पास ही कुछ नहीं था। एक शाम जब उसकी छोटी सी बिटिया ने परेशान देखा, तो भरी बरसात में कहीं गई और शाम को मांड पीते समय अपने हाथ में दो हरी मिर्च लेकर मुझसे बोली, “बड़ी मुश्किल से मिली है। दोस्त के घर से लाई हूँ। जब मुश्किल समय हो तो मिर्च भी खा लेना चाहिए।” 

किरन्दुल, कोन्डागाँव और बस्तर में घूमते समय पेट खराब हो गया। गोपीनाथ साथ थे। बड़े चिन्तित। हल्बी-गोंडी (भाषा) दोनों को नहीं आती थी। एक पहाड़ी कोरबा (आदिवासी) ने चेहरा पढ़ लिया। जंगल से गुजर रहे थे, तो रुकने का इशारा किया और भीतर कहीं झुरमुट में घुस गया। लौटा तो हाथ में कोई जड़ी थी। मेरा हाथ पकड़कर वो जड़ी पकड़ा दी और अभिनय कर चबाने को कहा। पहले तो तैयार नहीं हुआ। फिर मैंने सोचा मरना तो है ही, आज ही सही। मुँह में उस कसैली जड़ी को रखकर चबाया। पाँच मिनिट में ऐसा लगा कि शरीर से सब रोग भाग गए हैं। उस आदमी की आँखों में चमक थी और मेरी पलकें झुकी थीं।

मंडला के मवई ब्लॉक के किसी दूरस्थ गाँव में था। रात को गाड़ी खराब हो गई। जो साथी बाइक चला रहा था, उसने घोषणा कर दी कि अब रात यहीं गुजरेगी और वह कच्ची धूल भरी सड़क पर गमछा बिछाकर सो गया। मैं घबरा रहा था। रात डेढ़ बजे के करीब दो युवा साइकिल से गुजरे तो और पसीना आ गया। वे क्या बोल रहे थे, पता नहीं। पर अचानक उन्होंने मेरा बैग उठाया और हाथ पकड़कर खींचने लगे। मेरे पास उनके साथ जाने के अलावा चारा भी नहीं था। लगभग सात किलोमीटर चलकर पहाड़ी पार एक गाँव आया। उनका घर। चूल्हा जलाया, गर्म पानी किया। एक बाल्टी में नमक डालकर मुझे इशारा किया कि पाँव डाल दूँ। थोड़ी देर में चावल बनाकर लाए और बाड़ी से दो हरे टमाटर तोड़कर मुझे खाने को दिए। अगले दिन मुझे मवई लाकर छोड़ा। जब मैंने रुपए देना चाहे तो नोट को अलट-पलट कर देखते रहे और मुस्कुराकर वापिस कर दिए। लौट गए।

तवांग, अरुणाचल में एक बार किसी गाँव में सुबह से भूखा था। काम करता रहा। शाम तक शुगर कम हो गई। चक्कर आने लगे। शक्कर तो दूर कुछ भी ऐसा नहीं था कि जल्दी से मीठा खाकर इस बीमारी को ठीक कर लूँ। लगा कि आज राम नाम का सत यहीं लिखा है। एक बुजुर्ग महिला देख रही थी। वह घर में घुसी और पता नहीं कोई पत्तियाँ ले आई और मेरे मुँह में ठूँस दीं। कड़वी थीं पर थोड़ी देर बाद मिठास घुलने लगी और चक्कर आना बन्द हो गया। भूख भी गायब थी। देर तक उसी गाँव में था। उस महिला से नाम भी पूछा पत्ती का, पर भाषा का बन्धन था। 

अमरवाड़ा, छिंदवाड़ा के दूरस्थ गाँवों में चार (चिरौंजी) बीनती आदिवासी महिलाओं से पूछा कि अस्पताल दूर है तो क्या दिक्कत होती है? वे बोलीं, “बाबू, खूब काम करते हैं। सुबह चार बजे से देर रात तक। कड़ी धूप में रहते हैं। पैदल चलते हैं। नदी-तालाब का पानी पीते हैं। कोदो-कुटकी मड़िया खाते हैं, तो बीमारी नहीं होती। जचकी घर करवा लेते हैं, बहू-बेटी की, तो अस्पताल का क्या करना है।” वे फिर चार बीनने जंगलों में घुस गईं थीं। 

पचमढ़ी में गुप्त महादेव से ऊपर चढ़कर आओ तो उस पगली को देखा ही होगा जो चट्टानों के बीच बैठी जोर-जोर से गाती रहती है या चित्रकूट में सती अनुसूया के मन्दिर जाओ तो बीच की नदी किनारे एक पगली गाती रहती है बिन्दास। इन्हें फर्क नहीं पड़ता। मांडू में रूपमती के महल की चढ़ाई पर नीचे एक बूढ़ा प्रेम के खतरों से सबको आगाह करता चिल्लाता रहता है। और उज्जैन के राम घाट पर एक अघोरी को जीवन से निराश देखा था। ट्रैफिक सिग्नल पर कई विकलांगों को गाड़ी धकेलकर भीख माँगते देखा है पर ये सब जीवन से हताश नहीं हैं। एक उदात्त भाव से लड़ रहे हैं। इन्हें कोई बड़ा संकट तो क्या, यह विषाणु भी मार नहीं पाएगा।

…अब मेरे पास सब व्यवस्थाएँ किसी मजबूत और भारी भरकम असलहे की तरह पिट्ठू बैग में रहती हैं। ज़्यादा चौकन्ना रहता हूँ। उतना ही शंकित भी। डरता हूँ कि कहीं कुछ हो न जाए। मौत का डर अब ख़ौफ़ के मानिन्द तलवार की तरह लटका रहता है। खिलन्दड़पन अब खत्म हो गया है। जोख़िम लेने से दूरी बनाकर रखता हूँ। उत्तरार्ध का समय है और चलाचली की बेला। 

राेज किसी स्कोर की भाँति मौत के आँकड़े डराते हैं। इतनी विचित्रताओं वाले देश में वे लोग अब भी सुरक्षित हैं, जो आधुनिकता के भँवरजाल में नहीं फँसे हैं। प्रपंचों से दूर हैं। वे आज भी सड़कें नाप देते हैं। पहाड़ उलाँघ जाते हैं। नदियों को पार कर जाते हैं। जंगलों की खाक छानकर जीवन का रस बटोर लेते हैं। आसमान के नीचे महज चावल का मांड पीकर सदियों से ज़िन्दा हैं। तमाम असुविधाओं में जिन्होंने जीवन को सुन्दर बनाया और निश्चल भाव से जीते हुए मुसीबतज़दा लोगों के सुख-दुख में काम आते रहे। 

मैं सोचता हूँ, क्या यही फ़लसफ़ा है? क्या उम्मीद इसी का नाम है? क्या कन्याकुमारी के समुद्र में स्टीमर में बैठकर सिक्के फेंककर, उन्हें बीनते हुए बच्चों को हम मौत का यह भय दिखा पाएँगे? उन्हें रोज गोते लगाने से रोक पाएँगे? क्या गंगा किनारे बनारस में मणिकर्णिका के डोम ( वे लोग, जो अन्तिम संस्कार कराते हैं) नहीं जानते कि एक साँस के रुकने का क्या अर्थ है? या फिर काजीरंगा, बाँधवगढ़ या कान्हा के जंगलों में ड्यूटी कर रहा वह युवा वनरक्षक, जिसने जीवन की शुरुआत ही ख़तरों से की है और जिसे मौत कभी भी दबोच सकती है? पर वो सुनहरे सपनों के साथ मुस्तैदी से तैनात है वहाँ कि जब हम में से कोई जाए, वहाँ फँसे तो वह जान जोख़िम में डालकर हमें बचा ले। 

उन सड़कों, पुलों, नावों और उस हवाई सफर को याद करता हूँ तो अब झुरझुरी होती है। हिम्मत नहीं होती कि उस सब को पुनः जियूँ। एक बार फिर दौड़ पडूँ नंगे पाँव कि सत्यमंगलम की वह बूढ़ी अन्नपूर्णा याद आती है। गरियाबन्द की वह नदी, जहाँ से निकाला था उन आदिवासियों ने, जिन्हें हम गँवार और पिछड़ा कहते हैं। पीठ पर मुक्के मार-मारकर नवजीवन दिया था हमें। 

आज मेरे अन्दर फिर पानी भर गया है भवसागर का और मैं साँसें नहीं ले पा रहा हूँ। अफ़सोस कि न उलीच पा रहा हूँ और न पीठ पर मुक्के मारने वाला कोई नज़र आता है।

इस बाजारू दुनिया के ख़ौफ़ के बज़ाय, उस अनजान भाषा की दुनिया शायद मेरी अपनी थी। 

जो सहज और सरल है, वही यह जंग भी जीत पाएगा।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 18वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 

इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!

16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?

15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..

14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…

13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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