खोल दो बन्धन इनके, हर मंज़िल पा जाएँगी!

टीम डायरी, 8/3/2021

माँ अब बदल रही है। पर कितनी, कहाँ। और कहाँ नहीं। वक़्त के साथ उसका बदलना कितना ज़रूरी है। इस कविता में ऐसे कुछ पहलू छूने की कोशिश की गई है। कविता के साथ ही महिलाओं की तरफ़ एक महिला की महात्वाकाँक्षी पुकार भी है.. ..‘खोल दो बन्धन इनके, हर मंज़िल पा जाएँगी!

इन लाइनों को भोपाल, मध्य प्रदेश से रैना द्विवेदी ने पढ़ा है। उन्हें भी किसी और ने ये लाइनें भेजीं। इस आवाज़ाही की प्रक्रिया में लिखने वालों के नाम तो #अपनीडिजिटलडायरी​ तक नहीं पहुँचे। पर उनकी भावनाएँ ज़रूर पहुँची। इसीलिए उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए ख़ास ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस ’ पर इनको ‘डायरी’ के पन्नों में दर्ज़ किया जा रहा है। क्योंकि महिला ही तो ‘माँ’ है और ‘माँ’ भी महिला है आख़िर।

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(रैना द्विवेदी, गृहिणी हैं। उन्होंने अपनी आवाज़ में इस कविता को रिकॉर्ड कर व्हाट्सएप सन्देश के रूप में इसे #अपनीडिजिटलडायरी​ को भेजा है।)

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