संदीप नाईक, देवास मध्य प्रदेश से, 23/4/2022
जीवन के उत्तरार्ध में हम सब का मूल्याँकन रुपए-पैसे से होता है। कितनी पेंशन बनी, कितनी बचत थी, फंड कितना मिला, बच्चों को सैटल कर उनके शादी ब्याह से मुक्त होकर कितना बचा। और जो भी बचा, हम उसे 10-20 साल के लिए रख देना चाहते हैं, पता नहीं क्यूँ। सारी उम्र दो जोड़ी कपड़ों में निकाल दी। बच्चे साइकिल पर और आप पैदल घूमते रहे। बीवी को कभी हार तो दूर, एक मरियल सी अँगूठी न बनवाकर दी। ढँग का खाना खाने को तरस गए। और अब जब सब जगह से मोह छूट गया तो इफ़रात रुपया सामने है, चमचमाता हुआ। लेकिन उसे भी फिर एक बार मीठे सपनों की भूल-भुलैया में रख रहे हैं?
पता है, कभी भी मौत दबोच लेगी। कभी भी कोमा में चले जाओगे। किडनी, हार्ट या लिवर फेल हो जाएगा। लकवा मार जाएगा। कैंसर हुआ तो सब ख़त्म। तब वो लॉकर में या एफडी में बन्द पड़ा रुपया किस काम का? ज़ाहिर है मरने के समय हजार रुपए तो कोई भी लगा देगा लकड़ी-कंडे के। पर तुम्हारे तो वो सम्पत्ति काम न आएगी? इसीलिए जी लो। अपने मन की वो सब छोटी इच्छाएँ पूरी कर लो – फुल्की खाना हो सड़क पर खड़े होकर, एक ब्रांडेड शर्ट पहनना हो या जूते की जोड़ ख़रीदनी हो। कोई महँगी शराब पीनी हो या किसी होटल में जाकर भोजन करना हो। अपने पूर्वजों के गाँव जाना हो, कुलदेवी के दर्शन करने हों या गोवा के समुद्र तट पर फ़ेनी पीनी हो। नियाग्रा जल प्रपात देखना हो, हारमोनियम खरीदना हो या गिटार। हवाई जहाज में बैठना हो या समुद्र की सैर करनी हो, कर लो।
इस गठरी को बाँधकर उनके हवाले मत करो जो जीवन भर मौत और हादसों का डर दिखाकर तुम्हारे सपनों और इच्छाओं पर डाका डालकर अतृप्त रखते रहे। हर कदम उठाने के पहले तुम्हें बारूदी सुरंगों का ख़ौफ़ दिखाते रहे। तुम ख़ुद भी जी नहीं सके। अपने वंशज को भी असुविधाओं में रखा। तो अब इस बचत की गठरी का क्या करोगे? औलादें कहेंगी – “कंगाल था बाप, एक जूता नहीं पहना सका और मरते समय सिर्फ़ 10-20 लाख ही छोड़ गया कम्बख़्त”, क्या सुन पाएगी आत्मा यह सब?”
इसलिये जी लो, आज ही जी लो, कर लो अपने मन की, निकलो बाहर। निकालो उन दबी इच्छाओं को अवचेतन से और आज, अभी जो करना है वो कर लो, यह धन तुम्हें कुछ नहीं दे सकता। पर सांसारिक सुख देने का माध्यम तो बन ही सकता है। इसलिए इसे भोग लो क्योंकि तुम्हें या मुझे पता नहीं है कि इस जीवन के बाद क्या है आगे। तुम किससे चरित्र प्रमाणपत्र चाहते हो? और यह मिल भी गया तो कहाँ ठोकोगे, किसको दिखाओगे? क्या नोबल पुरस्कार की आकांक्षा है? है भी, तो क्यों है वह? छोड़ो सब भूलकर अपनी गठरी खोलो और जी लो, बस। सिर्फ़ एक बार जी लो। जन्म के बाद से मरते तो रहे हो हर पल, अब जी लो। जिस धन को बचा-बचाकर अपने कल के लिए रखा, वो कल आज ही तो है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 52वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
51. भीड़ में अपना कोना खोजकर कुछ किस्से कहानियाँ सुनना, सुनाना… यही जीवन है
50. लड़ना न पड़े, ऐसी व्यवस्था आज तक हम किसी सभ्यता में बना नहीं पाए हैं
49. मार्च आ गया है, निश्चित ही ब्याज़ आएगा, देर-अबेर, उम्मीद है, फिर…
48. एक समय ऐसा आता है, जब हम ठहर जाते हैं, अपने आप में
47. सब भूलना है, क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं
46. एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?
45. मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44. ‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38. जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!