woman with drink

महिलाओं को ‘भोग्य’, ‘उपभोग्य’ की तरह पेश कर के क्या हमारे परिवार नष्ट किए जा रहे हैं?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

‘देह ही देश’! अभी तक मैंने यह पुस्तक पढ़ी नहीं है। लेकिन इसकी समीक्षाएँ पढ़कर इसे पढ़ने की उत्कंठा अवश्य है। इसीलिए पुस्तक को पढ़े बिना मैं यहाँ इसकी कोई समीक्षा लिखने नहीं बैठा हूँ। बल्कि मुझे तो अक्सर दो विपरीत स्वभाव वाली सूचनाएँ विचार-शून्य कर देती हैं और इस पुस्तक के बहाने मुझे उसी पर बात करनी है। जैसे- एक तरफ डॉक्टर गरिमा अपनी इस पुस्तक में विभिन्न युद्धों में पीड़ित महिलाओं की दुःखद विभीषिकाओं का वर्णन करती हैं। उन्हें ‘भोग्य’ की तरह पेश करती हैं। ये युद्ध तथाकथित सभ्य देशों के सैनिकों ने लड़े। उन सैनिकों ने अपने विजित क्षेत्रों की असंख्य महिलाओं को अपना ‘पुरस्कार’ माना। उन्हें अपनी ‘यौनदासी’ बनाया।

जबकि दूसरी तरफ, एक अन्य विपरीत सूचना के तहत मेट्रो शहरों की अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान से जुड़ी एक ख़बर हाल ही में मेरी आँखों से गुजरी। उसमें बताया गया कि पिछले वर्षों में महिलाओं ने शराब पीने के मामले में पिछले सभी रिकॉर्ड्स तोड़ दिए हैं। मेरे हिसाब से इन दोनों मामलों में अंत:सम्बन्ध है। वह ये कि महिलाएँ अगर युद्ध में विजेताओं की ‘भोग्य’ हैं तो अर्थव्यवथा में भी वह ‘उपभोग्य’ ही हैं। ‘भोग्य’ और ‘उपभोग्य’ दोनों दूसरों की कठपुतली मात्र। ऐसी, जो दूसरों के इशारों पर नाचने को विवश हैं। दूसरों की दिखाई राह पर चलने को मज़बूर हैं।

इन दोनों ही स्थितियों अन्तर है तो बस इतना कि पहले मामले में ‘भोग्य’ को अपनी चेतना की अनुभूति रहती है। उसे पता रहता है कि उसका दोहन, शोषण हो रहा है। वहीं ‘उपभोग्य’ या जिसे अर्थव्यवस्था की शब्दावली में ‘उपभोक्ता’ कहा जाता है, को यह भ्रम रहता है कि वह चैतन्य है। और जो कर रहा है, वह अपनी इच्छा से कर रहा है। जबकि सही मायनों में दोनों- ‘भोग्य’ और ‘उपभोग्य’ विजेताओं द्वारा विजित ही हैं। उनके ग़ुलाम हैं। एक में ग़ुलामी युद्ध जीतने वाले सैनिकों की है, तो दूसरे मामले में अर्थव्यवस्था पर हावी हुई कम्पनियों की, कारोबारियों की।

महिलाएँ दोनों ही स्थितियों में ‘भोग्य’ हैं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो पुरुषों की शेविंग क्रीम या उनके अंत:वस्त्रों के विज्ञापनों में महिलाएँ क्यों दिखाई जातीं भला? मेरे हिसाब से प्रश्न यह अधिक विचारणीय है। लेकिन आश्चर्य है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं को मात्र ‘देह’ की तरह उपयोग किए जाने और उन्हें ‘भोग्य’ की तरह पेश किए जाने को महिला सशक्तिकरण के तौर पर देखा-समझा जाता है। इस किस्म के महिला शक्तिकरण की पैरोकार स्वयं महिलाएं भी हैं। वे अपनी ‘देह को देश’ समझ कर उसके उपयोग को सशक्तिकरण का मानक मान लेती हैं।

दिलचस्प ये कि इस भ्रामक सशक्तिकरण को इतने शक्तिकरण के साथ परोसा जाता है कि इसके विरुद्ध बोलने वाले को महिला-विरोधी तक घोषित कर दिया जाता है। मेरी विचार-शून्यता का कारण यही है। ऐसी स्थिति में अक्सर मुझे एक पुरानी कही बात याद आती है। वह यूँ है, “जब आप किसी परिवार को नष्ट करना चाहते हों और उससे सीधे लड़ने में समर्थ न हों, तो उस परिवार की महिलाओं, बच्चों के चरित्र और व्यवहार को दूषित कर दो, परिवार स्वत: नष्ट हो जाएगा।” बस, यही सोचकर मैं विचलित हो जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि कलात्मक, साहित्यिक कृतियाँ हों, बड़े व्याख्यान हों या अर्थव्यवस्था से जुड़ी मार्केटिंग रणनीतियाँ, महिलाओं को ‘भोग्य’ या ‘उपभोग्य’ की तरह पेश कर के क्या हमारे परिवार नष्ट किए जा रहे हैं? प्रश्न गम्भीर है। सबको मिलकर उत्तर ढूँढना होगा।
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(नोट : अनुज #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। विभिन्न ज्वलन्त विषयों पर लगातार लिखते रहते हैं।)

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