बकासुर से जीते पांडव, एकचक्रा के ‘लोकतंत्र’ से हारे

समीर शिवाजीराव पाटिल

आज बरसों बाद एकचक्रा नगरी के रहवासियों ने राहत की साँस ली थी। अज्ञातवास के दौरान पांडवों को शरण देने वाले ब्राह्मण परिवार की सुरक्षा के लिए भीम ने बकासुर को मार दिया था। वह बकासुर, जिसने एकचक्रा के राजा को उसकी सेना सहित मार भगाया था। वह बकासुर, जो क्रमानुसार नगर के हर घर के किसी न किसी सदस्य को अपना आहार बनाया करता था। उसी बकासुर के वध की ख़बर अब चारों दिशाओं में सूर्य की रश्मियों से भी अधिक तीव्र गति से फैल रही थी। उसी बकासुर का शव आज नगर के द्वारा पर पड़ा हुआ था- निश्चेष्ट, अनाथ।

उसका खूनी आतंक ही था कि नगरवासियों को एक छकड़ा भरकर अन्न, दो बैल और गाड़ीवान मनुष्य को उसके आहार के लिए भेजना होता था। क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र, किसी वर्ण का कोई ऐसा घर-परिवार नहीं बचा था, जिसका कोई न कोई सदस्य बकासुर का आहार न बना हो। ऐसे महाबलशाली राक्षस की मृत देह को ऐसे पड़े देखना अकल्पनीय था। नागरिकों के मस्तिष्क का कोई हिस्सा ऐसा नहीं रह गया था, जिसे बकासुर के प्रभाव से मुक्त कहा जा सकता। उसकी छवि एक सम्राट, नहीं, किसी देवता की तरह हो गई थी। इसीलिए बकासुर के यकायक इस तरह चले जाने से नागरिकों के दिमाग में रिक्तता भी पैदा हो गई। इस संभ्रम की स्थिति में लोगों के विचार असामान्य हो गए। ऐसे कि उनका चिन्तन और मनन सब एक मायावी आभास से सम्मोहित लगने लगा।

नागरिकों के संभ्रम की स्थिति का फ़ायदा लोकतांत्रिक व्यवस्था ने उठाया। उसने तुरन्त बकासुर के मारे जाने के बाद पैदा हुई रिक्तता को भरते हुए लोगों मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव जमा लिया। अब वहाँ मे लोग सामूहिक रूप से मिल-जुलकर आपसी विचार-विमर्श करने लगे। प्राचीन वर्णाश्रम धर्म आदि का विच्छेद हो गया। मलेच्छ जनों के अवान्तर मत मान्य होने लगे। इसका नतीजा इस रूप में सामने आया।   

नगरजन आपस में समूह बनाकर विचार रखने लगे। वाद, प्रतिवाद और विवाद सब होने लगा। महिलाओं में कानाफूसी भी। एकचक्रा के दरवाजे पर हताश खड़ा द्वारपाल बोला, “नगर के द्वार पर इस तरह किसी को मार कर फेंक जाना अमानवीय कृत्य है। कोई किसी को कैसे इस तरह मार सकता है? बकासुर क्या कम था, कि अब यह नगर और विकट समस्याओं की ओर बढ़ चला है?” उसकी आँखों से अश्रुओं की अविचल धारा बह रही थी।

तभी मधुशाला से निकला एक कायस्थ महाजन बोल पड़ा, “नगरवासियो! इस अनपढ़ द्वारपाल की बात को गम्भीरता से लेने योग्य है। सम्राट के पलायन के बाद बकासुर ही एकचक्रा का अनाभिषिक्त राजा था। और राजा अवध्य होता है। जिसने बकासुर का वध किया है, उसे उसके कृत्य का दंड मिलना ही चाहिए।” फिर जो लोग इस घटना से खुश दिख रहे थे उन्हें देखकर वह बोला, “जो लोग इस वध को मौन सम्मति दे रहे हैं उनमें दूरदृष्टि नहीं। उन्हें इस घटना के परिणामों पर विचार करना चाहिए। माना कि बकासुर क्रूर था, पर वह एक ही था। लेकिन आज एक राक्षस मारा गया है। कल किसी और का वध होगा तो नगर में सुरक्षित कौन रहेगा? यह वध सभ्य समाज की सुरक्षा के लिए खतरा है।”

वहीं एक चांडाली के गले में हाथ रखकर द्विजबन्धु महाशय भी खड़े थे। उनसे भी नहीं रहा गया तो कहने लगे, “द्वारपाल और महाजन सही कहते हैं। बकासुर का वध सर्वथा अनुचित है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह सिर्फ उसका वध नहीं। यह उसकी निरपराध पत्नी और बच्चों के वध के समान भी है। अब हम सबका यह दायित्त्व है कि उसकी पत्नी, पुत्रों के लिए सुरक्षा, आहार और जीवन-यापन की व्यवस्था करें।”

द्वारपाल और महाजन उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे। लोगों में खुसुर-फुसुर होने लगी। वहीं एक बूढ़ा अनुभवी स्वर्णकार यह सब आश्चर्य से देख रहा था। कँपकँपाते स्वर में वह बोला, “यह हम क्या विवेचना कर रहे हैं? क्या हम सबने अपने परिजनों को इस राक्षस का आहार बनते नहीं देखा? यदि हम बकासुर का आहार बन गए होते तो यह सब करने के लिए यहाँ उपस्थित रहते? क्या उसकी पत्नी और पुत्र उसके क्रूर कर्मों के सहभागी नहीं थे? यह सब वितंडा से हमें बचना…”

बड़े नख वाली विकेशिनी वणिक की बात काटकर चीखती हुए बोली, “यह वितंडा नहीं। न्याय, शास्त्र की समझ और हमारी निष्ठा का मौका है। न्याय के लिए तर्क व्यक्तिगत और भावनात्मक नहीं होना चाहिए। परिवार का भरण-पोषण तो पति का कर्त्तव्य होता है। ये काम वह कैसे करे, यह उसी पर निर्भर है। वैसे, हिंसाचार तो पुरुष चित्त का लक्षण है। स्त्रियाँ युद्ध नहीं करतीं। वे तो घर बनाती है। स्त्रियों ने ही मानव को सभ्य बनाया है। हमें पुरुषवादी विचार का परित्याग करना चाहिए।” इस तरह चर्चा में अब ‘स्त्री-पुरुष विमर्श’ का छोंक लग गया।

इतने में सभी का ध्यान घोड़ों के यवन सौदागर की ओर गया। वह कुछ दिन पहले एकचक्रा आया था। वह सौदागर अस्खलित संस्कृत में कह रहा था, “मैंने दुनिया भर के देशों की यात्रा की है। आर्यावर्त में ही इस तरह कि निर्मम घटनाएँ हो रही है। मेरी प्रार्थना है, आप लोग बुरा न माने और खुले दिमाग से मेरी बात सुनें। मैंने यह देखा है और मैं सिद्ध भी कर सकता हूँ कि आर्यावर्त में अनार्य और मलेच्छ जातियों के साथ भेदभाव होता रहा है। बकासुर का वध भी निश्चित ही इसी भावना से प्रेरित है। आर्य अपनी संस्कृति राक्षसों पर थोपना चाहते हैं। वे अनार्यों को असभ्य और उद्दंड कहने वाले कौन है? हमारे देश में सभी मनुष्य समान होते है। यदि आर्य श्रेष्ठ हैं तो उनकी श्रेष्ठता का तकाजा दया और बड़प्पन भरे व्यवहार में दिखना चाहिए। यदि आप आर्य नागरिक कहलाना चाहते हैं तो आपको अनार्य, राक्षसों के प्रति उदारता के व्यवहार का उदाहरण रखना होगा।” तो उस यवन सौदागर ने विमर्श में ‘जाति और धर्म’ का तड़का भी लगा दिया।

ऐसे में, भला वह ब्राह्मण कैसे चूक जाता, जिसे उस रोज बकासुर की आहार शिला पर जाना था और जिसे भीम ने बचा लिया था। आखिर लोकतंत्र में सभी के पास ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ भी तो होती है। तो उसने कुछ संतप्त होकर कहा, “क्या आम निरपराध नागरिकों को राक्षस का आहार बनने देना न्यायोचित है? क्या आत्मरक्षा के लिए हिंसा अनुचित है?” जवाब में नीतिशास्त्र का एक विद्यार्थी बोला। वह ठिगने कद के कारण ठीक से दिखाई भी न देता था। लेकिन आवेश भरपूर था उसमें। सो, वह जोर से बाेला, “दंड दिया जाए अथवा नहीं, यह निर्णय केवल हम लोग ही कर सकते हैं। हम अपने क्षेत्राधिकार में किसी को निर्णय की अनुमति नहीं दे सकते। हालाँकि इससे पहले नागरिकों को बकासुर के हत्यारे को पकड़ना चाहिए। उसके बाद हम तय करेंगे कि उसे क्या और कितना दंड देना चाहिए।”

वह बात पूरी भी न कर पाया था कि दूसरा नीतिशास्त्री बोल पड़ा, “सीधी बात यह है कि इस प्रकार हत्या सही नहीं होती। हमेशा गलत होती है। प्राणदंड का अधिकार राज्य को ही है। बकासुर के कारण यह क्षेत्र दूसरे राजाओं के आक्रमण और आंतरिक विद्वेष से बचा रहा। राजा के पलायन के बाद वह राक्षस ही वस्तुत: राजा था। राजा अवध्य होता है। उसे दंड देने का अधिकार किसी राजपुरूष को ही होता है। बकासुर को पशुवत मारने वाले को पकड़ा जाना चाहिए और उसे दंड दिया जाना चाहिए।”

इस क्रम में यवन सौदागर बोला, “चूँकि यह अपराध समूची मानव सभ्यता के मूल्यों को प्रभावित करता है। हमें इस पर निर्णय के लिए विश्वभर के प्रचलित विधि नियमों को देखना होगा।” इस तरह, नगरजन अब जोर-जोर से चर्चा करने लगे। निर्णय हुआ कि सर्वप्रथम बकासुर वध के लिए जिम्मेदार अपराधी को पकड़ा जाए।

लोगों के बढ़ते शोर के बीच यह ‘लोकतांत्रिक निर्णय’ होते ही पांडवों को शरण देने वाला ब्राह्मण वहाँ से चुपचाप खिसक लिया। घर पहुँचकर उसने माता कुंती और पाँचों पांडवों को सारी बात सुना दी। इसके बाद सबकी सम्मति बनी कि नगर में खोज-ख़बर शुरू होने से पहले ही पांडवों को वहाँ से निकल जाना चाहिए। और ब्राह्मण पांडवों को एक गुप्त मार्ग से नदी पार कर एकचक्रा की सीमा से बाहर पहुँचा आया।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्य बहुमत के सामने नतमस्तक लोगों के लिए यही एक विकल्प रह जाता है।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)

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