अनुज राज पाठक, दिल्ली
भारतीय निशानेबाज़ मनु भाकर ने मंगलवार, 30 जुलाई को पेरिस ओलम्पिक में एक और पदक जीत लिया। उन्होंने अपने साथी निशानेबाज़ सरबजोत सिंह के साथ मिलकर 10 मीटर एयर पिस्टल प्रतिस्पर्धा में मिश्रित युगल का कांस्य पदक जीता। इससे पूर्व वे इसी प्रतिस्पर्धा में महिला एकल का कांस्य भी जीत चुकी हैं। इस तरह वे देश के खेल इतिहास की पहली ‘भारतीय खिलाड़ी’ (अब तक के सभी पुरुष और महिला खिलाड़ियों में से) बन गईं, जिन्होंने एक ओलम्पिक में दो पदक जीते हैं।
मनु ने अपना पहला पदक जीतने के बाद अपने जीवन में “श्रीमद् भगवत गीता” के प्रभाव की चर्चा की थी। तब से बहुत से धर्मनिरपेक्ष तथा विविध धर्मविरोधी व्यक्तियों की नकारात्मक टिप्पणियाँ सोशल मीडिया पर तैर रहीं हैं। इसी क्रम में लोग रघुवीर सहाय की कुछ पंक्तियाँ भी अपने तर्कों के समर्थन में लिख रहे हैं।
ये पंक्तियाँ कुछ ऐसी हैं…
“पढ़िए गीता बनिए सीता,
फिर इन सब में लगा पलीता,
किसी मूर्ख की हो परिणीता निज घर-बार बसाइए।
होंय कँटीली आँखें गीली,
लकड़ी सीली, तबियत ढीली,
घर की सबसे बड़ी पतीली भरकर भात पसाइए।।”
इन पंक्तियों में गीता पढ़ने वाली महिला को ‘मूर्ख-सा’ कहा गया है। इसलिए कि कवि के मुताबिक, उसे अन्त में सब किए-धरे पर पलीता लगाकर किसी ‘मूर्ख’ से शादी करके घर-बच्चे ही सँभालने हैं।
तो इस सन्दर्भ में मेरा स्पष्ट मानना है कि रघुवीर सहाय और उनके जैसे लोगों ने कितनी भी आर्थिक या अन्य सफलता अर्जित की हो लेकिन गीता जैसे ग्रन्थ के विषय में उनके विचार निश्चित ही उनकी निम्न सोच का प्रतीक हैं। इस तरह की सोच का लक्ष्य लोगों को माता सीता और कर्मयोग का उद्घोष करने वाली श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसरण से विमुख करना ही नहीं, भारतीय संस्कृति में स्त्री के महत्त्व को नकारना भी है। जिससे कि लोग ‘स्त्री’ को ‘बाजार में उत्पाद’ के रूप में प्रस्तुत कर उसका ‘यथेच्छ उपभोग‘ कर सकें।
यह सामान्य समझ की बात है कि कोई अगर किसी पुस्तक का तात्पर्य न समझ सके तो, इसमें पुस्तक का दोष नहीं? जैसे- किसी नेत्रहीन व्यक्ति को रास्ते में खड़ा पेड़ न दिखे और वह उससे टकरा जाए तो पेड़ की गलती थोड़े हुई! वह अपनी नेत्रहीनता के कारण पेड़ से टकराया। इसीलिए ऐसे लोगों की इस तरह की सोच को स्पष्ट रूप से बुद्धिशून्यता का ही मामला माना जाएगा। लिहाज़ा, इसके बाद अब तथाकथित महिला उत्थान की वक़ालत करने वालों की बुद्धिमत्ता पर भी थोड़ा विचार कर लेते हैं। क्योंकि गीता पढ़ने के कारण मनु की आलोचना करने वालों में वही लोग ज़्यादा शामिल दिखाई देते हैं, जो फेमिनिज़्म अर्थात् स्त्रीवाद के वक़ील बनते हैं।
जबकि ‘स्त्रीवाद’ के नाम पर प्राय: महिलाओं को उत्पाद के तौर पर प्रस्तुत करना अहम उद्देश्य होता है। इस तरह के लोगों के लिए महिला सशक्तिकरण का अर्थ है- कम या छोटे कपड़े पहनना, लिव इन में रहना, आदि। इसके अलावा इन लोगों को उन सभी सकारात्मक चीजों से समस्या होती है, जो इनके तुच्छ उद्देश्यों में व्यवधान डाले। वास्तव में, इस तरह के लोगों को न सीता के उज्ज्वल चरित्र से मतलब होता है, न गीता के कर्म सिद्धान्त से।
इस क्रम में हम ऐसे कई आधुनिक और पढ़े-लिखे लोगों को अपने ही आस-पास देख सकते हैं, जो महिला सशक्तिकरण की बड़ी बातें करते हैं और प्राय: अपने परिचितों के बीच महिलाओं पर अभद्र चुटकुले सुनाते हैं। यही लोग कार्यस्थल पर महिला को मिलने वाले ‘मातृत्व अवकाश’ पर दु:खी होते हैं। यही लोग ‘मासिक धर्म’ अवकाश की बहस में भी पड़े होते हैं। साथ ही महिलाओं के कार्य पर न रखने के तर्क भी दिया करते हैं।
ऐसे में, हमें समझना होगा कि इस तरह के लोगों से, उनकी बातों, उनके तर्कों से कतई प्रभावित नहीं होना है। हमें प्रभावित होना है मनु भाकर की स्वीकारोक्ति से कि श्रीमद् भगवद् गीता असल में उसकी ही नहीं, हर किसी की प्रेरणा स्रोत है। वह लक्ष्य प्राप्ति में उसकी मददगार बनी है और सभी की बन सकती है।
हमें समझना होगा कि मनु आज करोड़ों बच्चियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी है, तो इसलिए कि श्रीमद् भगवद् गीता की शिक्षा उसने आत्मसात् कर रखी है। वह सही अर्थों में भारतीय संस्कृति की वाहक है। वह सही मायनों में महिला शक्ति का प्रतीक है। इसलिए कि श्रीमद् भगवद् गीता ने उसे इस क़ाबिल बनाया है।
लिहाज़ा अन्त में, कवि न होने के बावज़ूद मैं रघुवीर सहाय की तरह तुकबन्दी का प्रयास कर उन्हीं की कविता को एक नया अर्थ देने की कोशिश करता हूँ। देखिए…
पढ़िए गीता, बनिए सीता,
करो अपाला* जैसा नाम।
दुर्गा सी तलवार उठाओ, छेड़ो दुष्टों से संग्राम।।
*(चारों वेदों की ज्ञाता अपाला महर्षि अत्री की बेटी थी। अत्रि अपने शिष्यों को जो भी पढ़ाते थे, अपाला उसे एक बार सुनकर ही सब याद कर लेती थी।)
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
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