महाकवि शूद्रक के कालजयी नाटक पर विशेष श्रृंखला।
अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 11/10/2022
‘माथुर’ और ‘संवाहक’ के मध्य जुए में हारे सोने के सिक्कों के लिए लड़ाई होती है। ‘माथुर’ अपने सिक्के पाने के लिए बेचने के उद्देश्य से ‘संवाहक’ को सड़क पर ले आता है।
‘संवाहक’ लोगों से स्वयं कहता है, “मुझे दस सोने के सिक्कों के बदले में इस द्यूताध्यक्ष (माथुर) से खरीद लो। जो खरीदेगा उसके घर में सेवक का कार्य करूंगा।” फिर रोते हुए कहता है, “आर्य चारुदत के दरिद्र हो जाने से मैं अभागा हो गया हूँ।” और फिर ‘संवाहक’ ऐसा कहते हुए गिर पड़ता है।
“जुआ मनुष्य का बिना सिंहासन का राज्य है। जुआ किसी प्रकार की हार और अपमान की चिन्ता नहीं करता।” ऐसा कहता हुआ रंगमंच पर अब ‘दर्दुरक’ का प्रवेश होता है। वह एक जुआरी है।
दर्दुरक : यह क्या हो रहा है? ओह! द्यूतक्रीड़ाध्यक्ष इस व्यक्ति को पीड़ा दे रहा है। इसे कोई नहीं बचा रहा, तो यह दर्दुरक बचाएगा।
थोड़ा पास जाकर दोनों को देखते हुए कहता है, “तो ये धूर्त माथुर है। और यह बेचारा संवाहक।”
माथुर : यह सोने के सिक्के दे दे तो इसको छोड़ दूँगा।
दर्दुरक: धूर्त माथुर, तू क्षणभंगुर सोने के सिक्कों के लिए इस व्यक्ति को मारे डाल रहा है?
‘दर्दुरक’ इस तरह ‘माथुर’ से उलझ जाता है। धीरे-धीरे दोनों में हाथापाई शुरू हो जाती है। ‘दर्दुरक’ तभी ‘माथुर‘ की आंखों में धूल फेंक देता है और संवाहक को भाग जाने का संकेत करता है।
खुद भी यह सोचते हुए भाग जाता है कि “मैंने जुआरियों के मुखिया का विरोध किया है। अब यहाँ रुकना ठीक नहीं। तो अपने मित्र ‘शर्विलक’ के पास जाता हूँ।
‘संवाहक’ तभी देखता है कि किसी घर का दरवाजा खुला है। तो धीरे से वह उसमें प्रवेश कर जाता है। अन्दर ‘वसंतसेना’ को देखकर कहता है “ओह यह आप का घर है, मैं आप की ही शरण में आया हूं”
वसंतसेना : शरणगत को अभयदान। और अपनी सेविका को द्वार बन्द करने का आदेश देती है।
संवाहक से पूछती है ” तुम्हें किसका भय?”
संवाहक : धनी व्यक्ति का भय।
वसंतसेना : चेटी अब द्वार खोल दो।
संवाहक (अपने मन में) : क्या ‘वसंतसेना’ ने धनी व्यक्ति से भय का कारण जान लिया? निश्चय ही, जो मनुष्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार बोझ उठाता है, वह कहीं नहीं गिरता, वह दुर्गम रास्तों पर भी विपत्ति में नहीं फँसता है। (य आत्मबलं ज्ञात्वा भारं तुलितं वहति मनुष्य:। सत्य स्खलनं न जायते न च कन्तारगतो विपद्यते।।) इसका उदाहरण मैं स्वयं हूँ।”
माथुर अपनी आँखें साफ करता हुआ उठता है। जुआरी माथुर से कहता है : संवाहक और दर्दुरक दोनों भाग गए हैं।
माथुर : संवाहक की नाक पर चोट लगी है, खून पड़े हुए रास्ते का अनुसरण करते हुए उसका पीछा करो।
जुआरी : देखिए खून यहाँ तक आया है, यह तो ‘वसंतसेना’ का घर है। ‘संवाहक’ यहीं है।
माथुर : अब सोने के सिक्के गए। यह ठग यहाँ से निकल कर जाएगा। यहाँ से जाने का मार्ग रोक कर रखते हैं।
‘मदनिका’ तब ‘संवाहक’ से पूछती है : आप कहाँ से आए हैं? किसके पुत्र हैं? आपकी आजीविका क्या है? आपको किससे डर है?
संवाहक कहता है, “मान्या सुनिए! आर्ये ! मेरा जन्म पटना में हुआ है। ग्राम प्रधान का पुत्र हूँ। दूसरों की देह मालिश कर के इस समय आजीविका चला रहा हूँ।”
वसंतसेना : आप ने बहुत कोमल कला सीखी है।
मान्ये इसे सीखा तो कला मानकर ही था लेकिन अब आजीविका का साधन बन गई है।
चेटी: आप ने बड़े उदासीभाव से उत्तर दिया, कोई कारण?
संवाहक : मान्ये! इसके बाद अपने घर आने वालों के मुख से इस अद्भुत उज्जयिनी नगरी का वर्णन सुना। तो इसे देखने आ गया। यहाँ आकर एक श्रेष्ठ व्यक्ति की सेवा की। जो दूसरों का उपकार सदैव करने को तत्पर रहने वाले थे।
‘चेटी’ पूछती है : ऐसा कौन है? जो आर्य चारुदत्त के गुणों को चुरा कर उज्जयिनी को सुशोभित कर रहा है?
इसके बाद वे निर्धन हो गए? ‘वसंतसेना’ पूछती है।
संवाहक : आप ने कैसे जान लिया? कि वे निर्धन हो गए।
वसंतसेना : इसमें जानने की क्या बात है? सद्गुण और धन एक जगह होना दुर्लभ है, दूषित तालाबों में जल बहुत ज्यादा होता है। (दुर्लभा गुणाविभवाश्च, अपेयेषु तडागेषु बहुतरमुदकं भवति)
‘चेटी’ तब ‘संवाहक’ से उस श्रेष्ठ पुरुष का नाम पूछती है। ‘संवाहक’ उसे चारुदत्त का परिचय देता है।
‘चारुदत्त’ का नाम सुनकर संवाहक से कहती हैं, “आप आराम से रहिए। डरिए मत, यह आप का ही घर है। चेटी इनके लिए आसन दो, हवा करो”…
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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पिछली कड़ियाँ
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