अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 4/5/2021
भौतिक उन्नति करना यानि आज के सन्दर्भ में कहें तो पैसा कमाना। सामान्य तौर पर इसे बुरा नहीं माना जाता। लेकिन हमें यह पता होना चाहिए कि जीवन का उद्देश्य क्या है। अन्यथा हम मानव नहीं रह जाते। मात्र एक जीवरूप रह जाते हैं, जो पेट भरता है। चाहे इस पेट के लिए किसी की जान ही क्यों न लेनी पड़े। कहीं-कहीं हम मानवत्व से गिरकर राक्षसत्व तक पहुँच जाते हैं, इसके लिए। यह होता कब है? जब हम केवल भौतिक उन्नति की तरफ अग्रसर रहते हैं। चार्वाक के अनुयायी अक्सर यही करते हैं। केवल भौतिक उन्नति को ध्येय मानकर अपने जीवन को कहीं न कहीं दुःख के गर्त धँसा लेते हैं।
इसे हम रामायण के प्रसङ्ग से समझने का प्रयास करते हैं।
भगवान श्रीराम से सहायता लेने महर्षि विश्वामित्र दशरथ के पास आते हैं। पुत्रमोह से पीड़ित दशरथ अपने कुल अनुरूप आचरण से विमुख हो मना कर देते हैं। तब दशरथ को समझाते हुए महर्षि वशिष्ठ कहते हैं। राजन महर्षि विश्वामित्र स्वयं राक्षसों का वध करने में समर्थ हैं। लेकिन वे आप के पुत्र का कल्याण चाहते हैं। इसलिए उन्हें लेने आए हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि जो स्वयं सभी अस्त्र-शस्त्रों के संचालन में समर्थ हैं, वे क्यों स्वयं राक्षसों का वध नहीं करते?
इसका भी उत्तर एक कहानी में है। वह यूँ है कि एक बार क्षत्रिय कुल में उत्पन्न महाराज विश्वरथ अपनी सेना के साथ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पास पहुँच गए। वहाँ दोनों का युद्ध होता है। इसमें महाराज सेना सहित हार जाते हैं। समस्त अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित महाराज ब्रह्मर्षि से युद्ध हार गए। यह देख उन्हें अपनी समस्त भौतिक शक्ति, सामर्थ्य के प्रति वितृष्णा हो उठती है। उन्हें लगता है कि ब्रह्म तेज से यह ऋषि युद्ध जीत लेते हैं, ताे क्यों न मैं ही ब्रह्मर्षि पद हासिल करूँ। यही वह क्रान्तिकारी परिवर्तन था, जिसमें विश्वरथ विश्वामित्र में बदल जाते हैं। ऋषि, राजर्षि से होते हुए ब्रह्मर्षि तक की पदवी पर पहुँचते हैं।
और उस ऊँचाई तक पहुँचकर करते क्या हैं? राक्षस मारीच जब उनके यज्ञ में विघ्न डालता है, तो सक्षम होने के बावज़ूद उसका वध स्वयं नहीं करते। श्रीराम से वध हेतु कहते हैं। स्वयं के लिए, स्वहित के लिए अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करते। अपनी शक्तियाँ श्रीराम को समर्पित कर देवाराधना में अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
वहीं दूसरी तरफ ताड़का गन्धर्व कन्या होकर भी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग समाज को कष्ट देने के लिए करती है। इसी कारण ही वह देवपद से गिरकर राक्षसत्व को प्राप्त होती है।
यही हाल, वास्तव में हमारा होता है। हो रहा है। हमारी अन्ध भौतिक उन्नति हमें जीवन के दर्शन करने से रोक देती है। वह दीवार बनकर हमें विकास नहीं, अपितु हमें विनाश की तरफ ले जाती हैं। मानव का जीवन पतित हो उठता है। हालाँकि कुछ इसके अपवाद भी होते हैं।
उदाहरण के लिए आज इस महामारी के दौर में तमाम लोग हैं, जो जमाखोरी, मुनाफ़ाखोरी कर मानवत्व से राक्षसत्व की ओर जा रहे हैं। ताे कुछ ऐसे भी हैं जो हर सम्भव त्याग, बलिदान और सेवा कर मानवत्व से देवत्व हासिल कर रहे हैं।
दर्शन हमें इस परिवर्तन की राह दिखाता है। हमें बताता है कि हम किस राह का दर्शन करें और किस मार्ग पर चलें कि मानव कल्याण हेतु जीवन अर्पित कर सकें।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की नौवीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?