अनुज राज पाठक, दिल्ली
जेठ की दोपहरी में ईख खोदना।
तवे सी तप्त जमीं पर हल जोतना।
गोबर की गन्ध
ज़मी की सुगन्ध
महकते आम्रवृक्ष की छाया में
क्षण भर विश्राम करना।
पैरों की फटी विबाइयाँ
और
पथरीली हथेलियाँ
शरीर से निकलती पसीने
की तेज गन्ध
और
धूप में सूख रहा रक्त
फिर भी अनवरत श्रम करना
हर कष्ट सहन करना।
किसलिए?
सिर्फ
मेरे सुनहरे भविष्य की ख़ातिर।
हे कृषक पिता !
तुझे कोटिशः नमन ।
-अनुज
#father’sday
—-
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
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