‘हाँ’ कहना, ‘न’ कहने से बड़ा और चमत्कारी फलसफ़ा क्यों है?

बिक्रम, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 11/3/2021

हम सबने ‘न’ कहने की ताकत (Power of saying No) के बारे में सुना है। एक बार नहीं, कई बार और निश्चित रूप से ‘न’ कहने की क्षमता, हिम्मत और ताकत होना बड़ी बात है। लेकिन मुझे लगता है कि ‘हाँ’ कहना (Power of saying YES) और भी चमत्कारी फलसफ़ा है। इसे समझने के लिए कुछ सवालों के ज़वाब सोचकर देखते हैं…
 

क्या मुश्किल वक्त में तुम मेरा साथ दोगे?
 

क्या संघर्ष के मोर्चे पर तुम मेरे लिए लड़ोगे?
 

क्या हौसला टूटने पर तुम संभाल लोगे?
 

ऐसे और भी बहुत से सवाल हैं। इनका ज़वाब ‘हाँ’ में देने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए।
लेकिन ऐसे सवालों के ज़वाब अगर हम ‘हाँ’ में देते हैं, तो अपने लिए नए आयाम खोलते जाते हैं। ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर। चाहे वह मोर्चा व्यक्तिगत और व्यक्तित्व से जुड़ा हो या पारिवारिक, सामाजिक अथवा पेशागत। हर जगह।
 

दुनिया में जाने-माने एक अरबपति कारोबारी हैं, रिचर्ड ब्रेन्सन। वे कहते हैं, “अगर कोई हमारे लिए अद्वितीय अवसर की पेशकश करे और हमें लगे कि हम वह काम नहीं कर पाएँगे, तो उसके लिए ज़रूर ‘हाँ’ कहना चाहिए। इसके बाद विचार करना चाहिए कि ये चुनौतीपूर्ण काम, जो हमने अपने हाथ में लिया है, उसे कैसे करें। इस प्रक्रिया में हम पाएँगे कि हमने न सिर्फ़ उस काम को करने का रास्ता ढूँढ़ लिया है, बल्कि उसे कर भी लिया है।”
 

मतलब साफ है। जब लगे कि मुश्किल है, तो ‘हाँ’ कहना चाहिए। असम्भव लगे, तो ‘हाँ’ कहना चाहिए। ख़तरा हो, तो ‘हाँ’ कहना चाहिए। सब ख़त्म हो जाने भय हो, तो ‘हाँ’ कहना चाहिए। क्योंकि यही वे मौके होते हैं, जब हम सुविधाजनक स्थिति (Comfort Zone) से ख़ुद को बाहर धकेलते हैं। अपनी क्षमताओं को उस स्तर तक खींचते हैं, जहाँ तक पहले कभी हमने सोचा भी नहीं था। क्योंकि मुश्किल, हम सब आसान करना चाहते हैं। असम्भव को सम्भव करने का इरादा, सबके भीतर होता है। और सब कुछ गँवा देने के भय को, सब जीतना चाहते हैं।  
 

इधर सवाल हो सकता है कि अभी ये सब बातें क्यों?
 

तो ज़वाब है, 12 मार्च से भारत और इंग्लैंड के बीच पाँच टी-20 मैचों की श्रृंखला शुरू हो रही है। इसमें हम इंग्लैंड के उस खिलाड़ी को फिर मैदान पर खेलते देखेंगे, जिसने ‘हाँ’ कहने की अपनी ताक़त को लगातार अपने खेल का सबसे मारक हथियार बनाया है।  
 

बेन स्टोक्स। क्या कमाल के खिलाड़ी हैं। उनके पास मुश्किल से मुश्किल स्थिति से निपटने के लिए ‘हाँ कहने की ताक़त’ है।
 

– टी-20 वर्ल्ड कप फाइनल में आख़िरी ओवर करेंगे? ‘हाँ’
 

– विश्वकप फाइनल में टीम के लिए अकेले लड़ेंगे? ‘हाँ’
 

– एशेज टेस्ट में अकेले संघर्ष कर पाएँगे? ‘हाँ’
 

– नाइट क्लब के बाहर दोस्त के साथ कोई बदतमीज़ी करे तो उसके लिए लड़ेंगे? ‘हाँ’
 

– फिरकी (Spin) गेंदों के लिए बनी पिच पर, बतौर तेज गेंदबाज़, देर तक गेंदबाज़ी करेंगे? ‘हाँ’
 

निश्चित रूप से बेन स्टोक्स के ज़ेहन में ये तमाम ‘हाँ’ इसलिए नहीं आए होंगे क्योंकि वे किसी को खुश करना चाहते थे। बल्कि इसलिए आए होंगे क्योंकि उन्हें लगा होगा कि वे यह कर सकते हैं। उन्हें करना चाहिए। और उन्होंने कर दिखाया।
 

उनकी इस ‘हाँ की ताक़त’ का नतीज़ा? वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हरफनमौला खिलाड़ियों में शुमार होते हैं। साथ में उतने ही अच्छे इन्सान भी गिने जाते हैं।  
 

तो इस तरह ‘हाँ’ बोलने को भले कुछ लोगों ने ‘चमचागिरी का प्रतीक’ बना दिया हो। कुछ लोग ऐसे होंगे भी, जो दूसरों को खुश करने के लिए ही हर बात पर ‘हाँ’ बोलते होंगे।
 

पर इसका दूसरा पहलू ये भी है कि ‘हाँ’, ये एक शब्द, हौसले की पराकाष्ठा का प्रतीक भी है।  
इसलिए हमें समझना और मानना चाहिए कि जितना ज़रूरी कहीं ‘न’ बोलना है, उतना ही या उससे भी अधिक ‘हाँ’ कहना हमारे लिए फायदेमन्द है। तो इससे पीछे क्यूँ हटना भला?
——–
(बिक्रम, भोपाल में एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। उन्होंने व्हाट्सएप सन्देश के जरिए यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी को भेजा है। वे ‘डायरी’ के लिए अक्सर अपने लेख भेजते हैं। )  

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