नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से
सोहबत अपना असर दिखाती ही है जनाब। माहौल भी पुरअसर हुआ करता है। अब देखिए न, अभी 20 मई को, शनीचर की रोज़ शहर भोपाल के अदीब (साहित्यकार) श्याम मुंशी जी की याद में एक महफ़िल सजी। शहर का एक जाना-माना ठिकाना है, रवीन्द्र भवन। वहाँ अदब (साहित्य) और मुसीक़ी (संगीत) की महफ़िलें बारहा (जब-तब) हुआ करती हैं। अलबत्ता, यहाँ पहले वाला जो समा’अत-खाना (सभागार) है, वह छोटा लगने लगा, तो सूबे की सरकार ने बगल में ही नया बनवा दिया। बड़ा, और वक़्ती तौर पर बदलती ज़रूरतों के मुताबिक। सवा-साल पहले जलसों, महफ़िलों के लिए इसे खोला गया है। मुंशी साहब वहीं याद किए गए, जिन्हें कोरोना ने सब से छीन लिया।
हिन्दुस्तान के मशहूर गुलू-कार (गायक) हैं हरिहरन जी। मुंशी साहब के ‘अज़ीज़ दोस्त। उन्होंने जैसे ही सुना कि ‘दोस्त’ की याद में महफ़िल होने वाली है, तो एक आवाज़ में दौड़े आए। और उनके आने की ख़बर शहर भर में महकी। शा’इर नवाज़ देवबंदी की नज़्म है न, जो जगजीत सिंह की आवाज़ से मशहूर हुई, कि “तेरे आने की जब ख़बर महके। तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके।।” वैसा माज़रा रहा। सब उनकी दीद के लिए रवीन्द्र भवन में जुट आए। इस ग़ज़ल के कुछ और शे’र हैं, ग़ौर फ़रमाइएगा, कि “शाम महके तिरे तसव्वुर से, शाम के बा’द फिर सहर महके। रात भर सोचता रहा तुझको, ज़ेहन-ओ-दिल मेरे रात भर महके। याद आए तो दिल मुनव्वर हो, दीद हो जाए तो नज़र महके।” यूँ ही, हर दिल मुनव्वर (रोशन) रहा। हर नज़र महकी रही।
माहौल में अदब के सुर लगाने के लिए रूमी जाफरी मुम्बई से ख़ास तशरीफ़ लाए, जो कई मशहूर फिल्में और डायलॉग लिख चुके हैं। वह भी मुंशी साहब के नज़दीकियों में शुमार हैं। तिस पर, शहर भोपाल से ही त’अल्लुक़ रखते हैं। सो, वे आए- ‘अपने घर, अपने के बीच, अपनों के लिए’। इस तरह मुसीक़ी के साथ अदब का माहौल पूरा बन आया। अलबत्ता, आगे की बात कहने से पहले ये बता देना लाज़िम होगा कि मुंशी साहब उर्दू और फ़ारसी अदब के अच्छे जानकारों में गिने जाते रहे। मुसीक़ी से भी ख़ूब वास्ता रहा उनका। वक़्त मिलने पर सारंगी के तार भी छेड़ते रहे। लिहाज़ा, उनकी शख़्सियत जैसा ही मेल माहौल-ए-महफ़िल में तारी हुआ।
शुरुआती रस्म-ओ-रिवाज़ से गुज़रकर महफ़िल आगे बढ़ी, तो सुनने-समझने वालों के साथ बातचीत की ग़रज़ से पहले नुमूदार (सामने आना) हुए रूमी जाफरी। बातचीत में उन्हें सिरे पकड़ाने के लिए उनकी बगल में जगह ली विनय उपाध्याय ने। ये आवाज़ के धनी हैं। शहर की महफ़िलों में शिरक़त करने वाली तमाम हस्तियाँ अक्सर इनकी आवाज़ से त’अर्रुफ़ (परिचय) पाया करती हैं। लिखने-पढ़ने का भी शु’ऊर रखते हैं। सो, इन्होंने सिलसिला शुरू किया और यादों की गिरहें खुलने लगीं। जाफरी साहब कहने लगे, “श्याम मुंशी उस शख़्सियत का नाम है, जिनके किरदार में पूरा शहर बसता है। हर शहर में कुछ किरदार ऐसे होते हैं, जो उसकी पहचान बन जाते हैं। भोपाल मुंशी साहब जैसे किरदारों से पहचान पाता है।”
अब जाफरी साहब का इतना कहना था कि सोहबत और माहौल का असर देखिएगा। मेरे अपने ज़ेहन से दो लाइनें कुलबुलाकर वहीं यूँ निकल आईं। अर्ज़ है, “शहरों में किरदार, किरदारों में शहर रहते हैं। हमने सुना है, बुज़ुर्ग ऐसा कहते हैं।।” अलबत्ता इन दो लाइनों का मतलब ये क़तई नहीं कि मुझे शा’इरी का शु’ऊर हो चला है। इसे तो बस, फ़ौरी असर समझा जाए, जिसकी ज़द में और भी, यूँ ही रहे वहाँ। मिसाल देखिएगा।
महफ़िल के अगले हिस्से में राहुल रस्तोगी जी मुंशी साहब की क़िताब ‘सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए’ के सफ़्हे पलटते सुनाई दिए। हाँ, क्यूँकि रोशनी मद्धम रही उस वक़्त, इसलिए वे दिखाई सिर्फ़ उन्हें ही दिए, जिन्होंने उनकी आवाज़ के रास्ते उन पर ग़ौर किया। ये रस्तोगी साहब यूँ तो महकमा-ए-सक़ाफ़त (संस्कृति विभाग) में बड़े ओहदेदार हैं। पर अमूमन, ख़ुद को थिएटर आर्टिस्ट के साँचे में खड़ा पाते हैं। थिएटर से वाबस्तगी है भी। सो आवाज़ में लरज़ और अदा (अंदाज़, हाव-भाव), दोनों बैठी हुई है। और इनके हाथों में मुंशी साहब की क़िताब के जो चुनिन्दा सफ़्हे हैं, उनमें शहर भोपाल की ‘अदाकारी’ के क़िस्सों ने बैठक जमा रखी है। अपने अंदाज़ में नाम, पहचान बदल देने की अदाकारी।
मसलन, शहर में एक ‘ख़ास’ जगह है ‘चार इमली’। मुंशी साहब की क़िताब के हवाले से रस्तोगी जी ने बताया, “इस इलाक़े का नाम ‘चार इमली’ तो बाद में हुआ। पहले यहाँ इमली के पेड़ ख़ूब रहे और चोरों की नज़र भी उन पर उतनी ही रही। चोर अक्सर यहाँ से इमलियाँ चुरा लिया करते। लिहाज़ा, भोपाली लोगों की ‘अदाकार ज़बाँ’ पर इस इलाक़े का नाम चढ़ गया ‘चोर इमली’ के तौर पर।” अब रस्तोगी साहब का इतना कहना था कि माहौल और सोहबत की ग़िरफ़्त में गहरे तक आ चुके कई लोगों की हँसी छूट गई। क्योंकि ‘चार इमली’ में अब मंत्री, विधायक, तमाम महकमों के आला अफ़सर, और पत्रकार वग़ैरा रहा करते हैं। गुस्ताख़ी मु’आफ़ हो, पर क्या कीजै। ‘असर’ यूँ ही असर दिखाता है। बहरहाल, महफ़िल इसी तरह आगे बढ़ते-बढ़ते पहुँच गई हरिहरन जी तक।
शुरुआत में हरिहरन जी ने सुनाने के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब सरीख़े औला-तरीन शा’इर चुने। कुछ ग़ज़लें (जिसका हर शे’र ख़ुद में मुकम्मल हो), कुछ नज़्में (जिसका हर शे’र एक ही ख़याल से बँधा हो) सुनाईं। मसलन, ‘दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है’… और ‘क़ाश ऐसा कोई मंज़र होता’…, वग़ैरा। इस दौरान सुर, शे’र, मिसरे’ बख़ूबी दाद बटोरते रहे। लेकिन ज़्यादातर संज़ीदा क़िस्म के लोगों की। क्योंकि बड़ी तादाद वालों ने तो वहाँ हरिहरन जी की मक़बूलियत की झलकियाँ अपनी आँखों और कानों के रास्ते ज़ेहन में उतार लेने की चाहत पाली हुई है। सो, वह भी पूरी हुई। ये सिलसिला शुरू हुआ ‘बॉहों के दरमियाँ, दो प्यार मिल रहे हैं’…, ‘रोज़ा जानेमन…’ जैसे मशहूर नग़्मों से। इस दौरान, सोहबत और माहौल का असर ‘उरूज (चरम) पर पहुँचा। हरिहरन जी के साथ उनके चाहने वालों के भी सुर मिलने लगे। थोड़े-थोड़े अन्तर से, किसी अन्तरे तो किसी मुखड़े पे।
और फिर आख़िरी पेशकश, ‘तू ही रे, तू ही रे, तेरे बिना मैं कैसे जिऊँ’…। इस मर्तबा क़रीब-क़रीब सभी ने सुर मिलाए। किसी ने उनके लिए, जो इस दुनिया में हैं। और किसी ने उनके लिए, जो अब उनका साथ छोड़ गए हैं। इस तरह मुसीक़ी के सुरों और अदब के लफ्ज़ों से भीगी शाम हर कोने पर अपनी महक देर-पा (जो देर तक रहे) क़ायम कर गई। नवाज़ देवबंदी की जिस नज़्म का ऊपर ज़िक्र है न, उसी के आख़िरी शे’र की तरह, कि “वो घड़ी-दो घड़ी जहाँ बैठे, वो ज़मीं महके वो शजर महके।।…, तेरी ख़ुशबू से सारा घर महके…, ज़ेहन-ओ-दिल मेरे रात भर महके।।”
ख़ुदा हाफ़िज़।