शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

राजसभा के चबूतरे पर महाराज का सिंहासन था। नक्कारखाने से राजसभा में प्रवेश करते ही सामने शानदार ऊँचे चबूतरे पर यह चौकी दिखाई देती है। सभा में 6,000 आदमी आसानी से बैठ सकते हैं। नक्कारखाना भी विशाल है। इसका प्रवेश द्वार इतना ऊँचा है कि उसमें से महावत सहित हाथी आसानी से आ-जा सकते हैं। अन्दर दोनों तरफ सुन्दर ड्योढ़ियाँ हैं। दरवाजे पर ऊपर की तरफ, दोनों ओर खूबसूरत कमल बनाए है। हाथियों को मार गिराने वाले शेर भी उकेरे गए हैं। यह मानो हिन्दवी स्वराज्य के सामर्थ्य का ही प्रतीक है। इस नक्कारखाने में तीनों समय नौबतें बजाई जाती थीं। सिंगे, कर्णे भी गूँजते रहते। बाजे बजाने वाले, सिंहासन तथा सिंहासन के पास होने वाले दरबारी राजकाज अच्छी तरह से देख सकें, इसके लिए एक झरोखा बनाया गया था।

महाराज जब भी सिंहासन की तरफ आते, सिंहासन पर आरूढ़ होते या किसी का दरबार में सम्मान होता, तब-तब नौबतें तथा सिंगे-कर्णे बजाए जाते। सिंहासन के पास आकर, कोई रोज की आवाज में भी बोलता तो नक्कारखाने तक की सारी राजसभा को स्पष्ट रूप से सुनाई देता है। फिर महाराज के दरबार में, सोने का डंडा हाथ में लेने वाले सेवकों का उच्च स्वर का जयघोष तथा गाजे-बाजे की आवाज से राजसभा गूँज उठनी ही थी। महाराज के रहने का महल, न्यायसभा, अष्टप्रधानों की कचहरियाँ, ये सब राजसभा के पश्चिम में थीं। सारी इमारतें तराशे हुए पत्थरों से बनाई हुई थीं। मजबूत थीं। राजमहल के उत्तर में खड़े मीनार बहुत ही सुन्दर दीखते थे। इन तिमंजिले मीनारों की हर मंजिल पर फौवारे, परदे, कीमती हड़ियाँ, झाड़-फानूस, दीए रखने के लिए ताक, झरोखे सजे थे। बड़े ही शानदार थे ये मीनार। राजसभा की इस चौकी पर 32 मन सोने का नवरत्नों से जड़ा हुआ सिंहासन विराजमान था।

सिंहासन बनाया था रामाजी दत्तो चित्रे ने। इसकी दाईं, बाईं तरफ एक-एक शेर बनाया हुआ था। सिंहासन पर 32 शुभचिह्न और चित्र अंकित किए गए थे। बड़ा ही सुन्दर बन पड़ा था यह शिवसिंहासन। सिंहासन के चारों ओर आठ बढ़िया खम्भे थे और उस पर चँदोवा तना हुआ था। महाराज सिंहासन पर बैठने के लिए सामने से नहीं बल्कि पीछे से आते थे। करीब 350 साल की गुलामी के बाद महाराष्ट्र का सार्वभौम सिंहासन राजगढ़ पर प्रकट हुआ था। उसकी शान ही अलग थी। राज्याभिषेक का शुभमुहूर्त, गागाभट्टजी ने शिवाजी की जन्मपत्री अच्छी तरह से देखकर निकाला था। राज्याभिषेक समारोह के न्यौते स्वकीय, परकीय, धार्मिक, राजनीतिक, आप्त, सेवक, स्नेहियों को भेजे गए। बड़े-बड़े विद्वान्, वैदिक पंडित, सत्पुरुष आदि लोगों को तथा गुणीजनों को भी निमंत्रण गए।

समारोह के लिए हजारों लोग आने वाले थे। स्वागत की तैयारी जोर-शोर से शुरू थी। रायगढ़ पर उत्सव का शमाँ था। राज्याभिषेक की तैयारियाँ लगभग पूरी हो गई थीं। गागाभट्ट ने मुहूर्त निकाल था, शके 1596, आनन्दनाम संवत्सर को ज्येष्ठ शुद्ध त्रयोदशी का। प्रातः पाँच बजे का (दिनांक 6 जून 1674)। बारिश की शुरूआत का ही मुहूर्त था। पर शास्त्र के अनुसार महाराज को यही मुहूर्त ठीक बैठता था। हालाँकि इतने जोर-शोर में भी महाराज का ध्यान स्वराज्य विस्तार और स्वराज्य की देखरेख की तरफ था। इसी काल में महाराज ने खुद जाकर, वाई के पास का केंजलगढ़ जीत लिया (दिनांक 24 अप्रैल 1674)। केंजलगढ़ का आदिलशाही किलेदार गंगाजी विश्वासराव हमले में मारा गया। उधर, मराठी सेना की एक छावनी महाराज ने चिपलून के पास दलवटे में तैनात थी। कुछ ही समय पहले वहाँ जाकर महाराज (दिनांक आठ अप्रैल 1674) दलवटे का सैनिकी मुआयना कर आए थे। अब उन्होंने वहाँ की सेना को पत्र लिखा कि रिआया के साथ जिम्मेवारी से पेश आओ। अनुशासन का पालन करो। महाराज ने लिखा था, “अगर आप लोग रिआया को सताएँगे, उस पर अन्याय करेंगे, तो लोग कहेंगे कि इनसे तो मुगल ही अच्छे थे। मराठों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।”

राज्याभिषेक में 15 दिन बाकी थे। अब राज्याभिषेक से पहले की धार्मिक विधि शुरू होने वाली थी। तभी महाराज प्रतापगढ़ गए। किसलिए? वह गए थे श्रीभवानी देवी को सोने का जड़ाऊ छत्र अर्पण करने। अपने मस्तक पर छत्रपति की हैसियत से छत्र धारण करने से पहले, माता भवानी की महापूजा कर उसे छत्र अर्पण करना चाहते थे महाराज। भवानी देवी महाराज का सर्वस्व थी। महाराज के हृदय में महाराज के माथे पर महाराज के नेत्रों में, महाराज की जिव्हा पर और महाराज के हाथों में भी भवानी माता ही बस रहीं थीं। वही उन्हें हमेशा से प्रेरणा और यश देती रहीं थीं। इसीलिए उनका मन प्रतापगढ़ की तरफ दौड़ता रहता था। महाराज ने माता भवानी की महापूजा की। उन्हें सवा मन का सोने का छत्र चढ़ाया। इसके बाद महाराज रायगढ़ आए (दिनांक 21 मई 1674)। अब रायगढ़ पर बन्दनवार बँधने वाला था।
रायगढ़ पर मेहमान आने लगे। राजपथ पर हाथी, घोड़े, पालकियों की भीड़ लगने लगी। आकर्षक वस्तुओं से सजी दुकानें जग-मग कर रही थीं। मेहमानों के शामियाने और मंडपों से रायगढ़ की शान कई गुना बढ़ गई। रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था। 
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए

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Neelesh Dwivedi

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