मध्य प्रदेश चुनाव का नतीजा साफ, यहाँ जानता हार रही है!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए इसी 17 नवंबर को मतदान हो चुका है। आने वाली तीन दिसंबर को औपचारिक नतीज़ा भी आ जाएगा। लेकिन सही मायनों में नतीज़ा साफ हो चुका है। पार्टियों के अपने-अपने दावों के इतर इस नतीज़े में प्रदेश की आम जनता के हाथ सिर्फ़ और सिर्फ़ पराजय ही लगने वाली है। यानी जीते कोई भी। कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी। जनसामान्य को सिर्फ़ पराजित ही होना है। 

अब इसके कारणों पर ग़ौर कीजिए। जब चुनाव की घोषणा हुई तो बीते 20 सालों (2003) से राज्य की सत्ता सँभाल रही भाजपा में यह सुगबुगाहट सुनाई दी कि इस बार सरकार का नेतृत्त्व बदला जाएगा। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री के रूप में लगभग 18 साल (29 नवंबर 2005 से, बीच में 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद 15 महीने छोड़कर लगातार) हो चुके हैं। लिहाज़ा, जनता अब नया चेहरा देख सकती है। 

इस सुगबुगाहट मात्र से लोगों में एक सकारात्मक सा सन्देश जाता दिखा। लेकिन बताते हैं, राजनीति के मँझे खिलाड़ी शिवराज ने चुनाव नज़दीक आते-आते हवा का रुख़ अपने पक्ष में कर लिया। और अब मतदान के बाद तो कहा जा रहा है कि अगर नतीज़ा भाजपा के पक्ष में रहा तो कम से अगले एक-दो साल (आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भी कुछ समय तक) मुख्यमंत्री  शिवराज ही रहेंगे। यानी वही शिवराज, जिनके कार्यकाल में मध्य प्रदेश बीमारू राज्य की श्रेणी से निकलकर देश के पाँच-छह सबसे बड़े कर्ज़दार राज्यों में शुमार हो गया। 

इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश में भाजपा अपने विधायकों के चेहरे भी ज़्यादा बदल नहीं सकी। कोशिश कर के भी नहीं। इसका एक उदाहरण बालाघाट का है, जहाँ अपने वरिष्ठ नेता गौरीशंकर बिसेन की जगह पार्टी ने उन्हीं की बेटी मौसम को टिकट दिया। लेकिन पिता-पुत्री में न जाने क्या योजना बनी कि नामांकन भरने से ठीक से पहले मौसम की तबीयत ख़राब हो गई। गौरीशंकर बिसेन ने निर्दलीय पर्चा भर दिया। जबकि मौसम पर्चा ही नहीं भर सकीं। हारकर पार्टी को गौरीशंकर बिसेन का ही समर्थन करना पड़ा। यानी मुख्यमंत्री से लेकर विधायकों के चेहरों तक अधिकांश विकल्प जनता के सामने वह पेश हुए, जिनसे लोग अब बुरी तरह ऊब चुके हैं। 

फिर बात नीतियों की, तो इस बाबत आँकड़े बताते हैं कि राज्य पर इस वक़्त लगभग 3.31 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ है। इस सरकारी कर्ज़ को प्रदेश के हर नागरिक में बराबर से बाँट दिया जाए, तो प्रत्येक पर लगभग 40,000 रुपए कर्ज़ बैठेगा। यही नहीं, अपनी लोकलुभावन योजनाओं को पूरा करने के लिए शिवराज सिंह की सरकार ने अभी इसी महीने मतदान के बाद भी दो हजार करोड़ रुपए का कर्ज़ लिया है। ज़ाहिर तौर पर आगे अगर फिर यह सरकार लौटी तो और कर्ज़ लिया ही जाएगा। और यह मायाजाल जस का तस बना रहेगा। 

अब बात दूसरी पार्टी कांग्रेस की, जिसे इस बार सरकार बनाने का दावेदार कहा जा रहा है। लेकिन वहाँ भी कौन नेता और कैसी नीतियाँ? तो ज़वाब है कि दो बुज़ुर्ग नेता और उनके दो पुत्र। दिग्विजय सिंह और उनके बेटे जयवर्धन। तथा कमल नाथ और उनके पुत्र नकुल। दिग्विजय सिंह, जिनके 10 साल के कार्यकाल (1993 से 2003) को मध्य प्रदेश के लोग आज भी भूले नहीं हैं। गड्‌ढों में सड़कें, बिजली गुल, पानी की त्राहि। सबको सब याद है। मगर अब यही दिग्विजय अपने ‘मित्र’ कमल नाथ और पुत्र जयवर्धन की आड़ में प्रदेश की दशा-दिशा तय करेंगे, अगर सरकार बनी तो। साथ ही, अपने पुत्र को प्रदेश की राजनीति में जमाने की कोशिश करेंगे। 

इसी तरह, बतौर मुख्यमंत्री कमल नाथ का 15 महीने का कार्यकाल भी सबको याद है। कहते हैं, 2018 में बनी उनकी सरकार अगर गिरी तो सिर्फ़ उन्हीं के अक्खड़ व्यवहार की वजह से। बताया जाता है कि उनका व्यवहार अब तक बदला नहीं है। बल्कि अब तो उन्हें प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहते हुए, प्रदेश कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में रखते हुए लगभग छह साल  (अप्रैल 2018 से) हो चुके हैं। अब तो उनकी शक्ति इतनी हो चुकी है कि वे डंके की चोट पर कहते हैं कि छिंदवाड़ा के टिकटों की घोषणा नकुल करेंगे। छिंदवाड़ा में ही। नकुल ने यह घोषणा की भी। यानी पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्त्व की भूमिका भी उनसे जुड़े कुछ मामलों में सीमित है। तो फिर अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर वे दोबारा मुख्यमंत्री बने तो उनका व्यवहार किसके साथ कैसा होगा। 

इसके बाद बात कांग्रेस की नीतियों की। कांग्रेस ने भी इस बार अपने ‘वचन पत्र’ में लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगाई है। महिलाओं काे हर महीने 1,500 रुपए। बिजली बिल माफ़ और हाफ़। किसानों का कर्ज़ माफ़। महज़ 500 रुपए में गैस सिलेंडर, आदि ऐसा बहुत कुछ। सो, सवाल फिर वही। इन योजनाओं के लिए ज़रूरी पैसा कहाँ से आएगा? वह भी तब जबकि प्रदेश पहले ही लाखों करोड़ के कर्ज़ में डूबा है। जाहिर है, कमलनाथ की सरकार बनी तो वह भी ‘कर्ज़ लेकर ही घी पिएगी’। क्योंकि जनता को तो इस ‘घी’ का थोड़ा सा स्वाद भी बमुश्किल ही मिलना है। अलबत्ता, इस ‘घी’ से दोनों बुज़ुर्ग नेताओं और उनके पुत्रों के ज़रूर वारे-न्यारे होते रहेंगे।

तो अब सोचिए और बताइए। इस चुनाव से प्रदेश की जनता के हाथ क्या लगने वाला है? जीत या अगले पाँच साल के लिए स्थायी पराजय? 

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