ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
खून जमा देने वाली सर्दी में बर्फ पर चलते हुए तलाशी दस्ता धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। सर्द हवा ऐसी चुभ रही थी, जैसे शरीर पर कोई लगातार चाकू से वार कर रहा हो। यह माहौल बार-बार याद दिला रहा था कि इस इलाके में पहले कभी आदिवासी रहा करते थे। वे लोग ऐसी सर्दियों में जिंदा रहने के लिए एक-दूसरे को मारकर खा जाने को मजबूर होते थे। सर्दियों का यह मौसम तब कुछ ज्यादा ही लंबा और घने अंधेरे वाला होता था। उस वक्त मौसम जब धीरे-धीरे गर्म होता, तो बर्फ भी धीरे-धीरे ही पिघलती। लेकिन तभी फिर सर्दी लौट आती और बर्फ दोबारा जम जाती। धरती के जिस्म पर से दलदल सूख ही नहीं पाते थे। ऐसे में, वे आदिवासी भी गरीबी, भुखमरी और बीमारी के दलदल में लंबे समय तक धँसे रहते थे। उनके लिए इन हालात में एक-एक पल काटना भी ऐसा होता था, जैसे युगों का समय गुजार रहे हों।
लापता ‘हबीशी’ ग्रामीणों की तलाश में निकला तलाशी दस्ता अब धुंध के आगोश में समाई पहाड़ियों पर पहुँचने वाला था। उन लोगों के मुँह से धुआँ निकलकर बार-बार उन्हीं की आँखों के सामने छा रहा था। थकान से उनके शरीर चूर हो चुके थे। जूनियर कमांडर अंबा लड़ाकों के इस तलाशी दस्ते की अगुवाई कर रही थी। उसे इस वक़्त ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह बेजान हो चुके नकाबपोश चेहरों से घिरी हुई हो। और ये बेजान चेहरे उसके साथ-साथ बस, हवा में तैर रहे हों। चल नहीं रहे हों। वे लोग घुटनों तक कीचड़ से भरे नालों, दलदलों, पुलों को पार करते हुए पैदल ही यहाँ तक पहुँचे थे। अब तक पूरे इलाके का चप्पा-चप्पा उन लोगों ने छान मारा था। तलाशी अभियान का दूसरा दिन भी खत्म होने वाला था, पर हाथ अभी खाली थे। तलाशी दस्ता सुदूर जंगल में ‘होरी’ पहाड़ियों तक पहुँच चुका था। चारों ओर डरावने मंजर वाला ये वही इलाका था, जहाँ जरा सी भी लापरवाही उन लोगों के लिए जानलेवा साबित हो सकती थी।
हालाँकि तलाशी दस्ते के सभी सदस्य ऐसे हालात में संघर्ष करने के आदी थे। इसीलिए उन लोगों में से किसी ने भी अंबा के लिए अब तक गालियाँ निकालना शुरू नहीं की थी, जो उनकी अगुवाई करते हुए उन्हें यहाँ तक ले आई थी। इस दस्ते में सबसे आगे चलने वाला बंदूकची ‘गोरा’ अंबा का सबसे पसंदीदा शख्स था। वह अब भी पूरे जोश से भरा हुआ था और साफ-सुथरी ब्रेड तथा महँगे चावल के साथ मगुए के तेल में बढ़िया तले हुए मुर्गे की दावत उड़ाने का ख्वाब देख रहा था। अंबा के सबसे तेज-तर्रार जवान- सोलोन, रोध और कुंटा भी सही-सलामत थे। कर्नल मैडबुल की नीच और हत्यारी ‘रैड हाउंड्स’ फौज के साथ खूनी संघर्ष में उनकी कोई आँख अभी चोटिल नहीं हुई थी। शरीर का कोई अंग अब तक उन लोगों ने खोया नहीं था। खून की प्यासी कर्नल मैडबुल की फौज का एक ही मकसद था- बागी लड़ाकों की फौज से जुड़े एक-एक सदस्य को ढूँढ-ढूँढकर ठिकाने लगा देना।
अलबत्ता, बचे हुए बागियों में से वे सब सही-सलामत थे। लेकिन आगे चलकर बुरी तरह घायल होने वाले थे। वे अब तक जिंदा थे। मगर आगे मौत के मुँह में समा जाने वाले थे। अभी एक हफ्ते तक चली लड़ाई में ‘रैड हाउंड्स’ को गंभीर क्षति पहुँचाने के बाद उनकी उम्मीदों को इस वक्त पंख लगे हुए थे। उन लोगों ने ‘रैड हाउंड्स’ को आमने-सामने की गोलीबारी में ही नहीं, जमीन पर विस्फोटक बिछाकर भी खासा नुकसान पहुँचाया था। लेकिन वे लोग नहीं जानते थे कि प्रतिशोध उनका पीछा कर रहा है। और उनका अंजाम उनकी सोच भी भयानक होने वाला है। अंबा को भी अब तक ऐसे बुरे सपने नहीं आ रहे थे, जो उसके ज़ेहन में डरावनी याद की तरह हमेशा के लिए ठहर जाएँ।
तलाशी अभियान भोर तक चलता रहा और अब वे लोग उस जगह पहुँच चुके थे, जहाँ ग्रामीणों को आखिरी बार देखा गया था। यहाँ चट्टानों पर अजीब सी दरारें दिखाई दे रही थीं। दस्ते में सबसे पीछे चलने वाला जवान उन दरारों को खौफजदा नजरों से देख रहा था। क्योंकि यही वह जगह भी थी, जहाँ खूंख्वार जंगली जानवरों के हमले का जोखिम सबसे अधिक था। तभी अचानक, तलाशी दल का सबसे नया सदस्य ‘लामा’ अपनी ही परछाई देखकर डर के मारे चीखते हुए उछल पड़ा। चिंता से भरी हर किसी की चौकस निगाहें मुड़कर उसी पर जा टिकीं। लेकिन तुरंत जैसे ही सच्चाई का भान हुआ, लामा सभी के बीच हँसी-मजाक का पात्र बन गया।
हालाँकि, हँसी-ठट्टे के इस संक्षिप्त दौर के बावजूद तनाव हर चेहरे पर साफ नजर आ रहा था। और इसकी वजह थी, दैत्याकार चमगादड़ों की वे कहानियाँ जिन्हें उनके गाँवों में काफी गंभीरता से लिया जाता था। इन कहानियों में बताया जाता था कि जोतसोमा के जंगल में, पहाड़ियों पर पाए जाने वाले ये बड़े-बड़े चमगादड़ शाम होते ही झुंड के झुंड उड़ते हुए पूरा आसमान ढँक लेते हैं। फिर शिकार की तलाश करते हुए मौका देखकर घोड़ों जैसे बड़े जानवर और यहाँ तक कि इंसानों को भी पलक झपकते उठा लेते हैं। उन्हें मारकर उनका खून चूस लेते हैं।
ऐसे डर और आशंकाओं के बीच अंबा ने अब अर्धचंद्राकार आकार में घुमाते हुए अपनी मशाल की तेज रोशनी से इस नए, रहस्यमय और भयंकर इलाके का जायजा लिया। जमीन की सतह पर सामने ही गहरी खाई नजर आ रही थी। उसके ऊपर कच्ची लकड़ियों का, ऊबड़-खाबड़ सा झूलता-पुल बना हुआ था। पुल के पायदान जगह-जगह से टूटे हुए थे। उनकी लकड़ियाँ सड़ चुकी थीं। उन पर जमी हुई काई और झाड़-झंखाड़ भी साफ नजर आ रहे थे। खाई के चारों तरफ खड़ी चट्टानी दीवारों पर बड़ी-बड़ी गहरी दरारें दिखाई दे रही थीं। ऐसा लगता था जैसे ये चट्टानें किसी को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी हों। बारिश के बहते पानी की तेज धाराओं ने इन चट्टानों पर ये दरारें बना दी थीं। और इन्हीं से होता हुआ वह पानी जमीन के भीतर समंदर में कहीं समा जाता था।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ
1. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : जन्म लेना ही उसका पहला पागलपन था