Sanatan

सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

‘सनातन’ शब्द आजकल के बोलचाल में काफी ज्यादा प्रचलित हो गया है। यह इतना व्यापक हो गया है कि जो व्यक्ति अब्राहिमी यानी इस्लामिक, यहूदी, ईसाई नहीं है, मोटे तौर पर उसे ‘सनातनी’ मान लिया जाता है। चाहे आधुनिक हिन्दू राजनेता हो या विचारक सभी एक बौद्धिक प्रमाद, तात्कालिक उपयोगिता या विशुद्ध अज्ञान के चलते सनातन धर्म को इसी तरह की निषेधात्मक दृष्टि से देखते हैं। इसी आधार पर वे भारत के सभी दार्शनिक सम्प्रदायों को सनातन धर्म का अविभाज्य अंग बताते हैं।

अब्राहिमी परम्परा की एकल समरसता वाली परिपाटी को स्वीकार कर ऐसे भेड़िया-धसान भाईचारे को लगभग अपरिहार्य मान लिया गया है। फिर चाहे नास्तिक, अवान्तर मत-सम्प्रदायवादी छाती पीट-पीटकर प्राण ही क्यों न दे दें कि वे सनातन वैदिक परम्परा के हिस्सा नहीं! यह सनातन धर्म के साथ प्रकट अन्याय है। नास्तिक मत और अवान्तर सम्प्रदाय भी इसमें उनके मौलिक योगदान का निषेध देखते हैं।

ऐसे लोकप्रिय मिथकीय-ऐक्य के आधार त्रुटिपूर्ण और कारण ऐतिहासिक हैं। यह अध्यात्मिक, दार्शनिक और नैतिक दृष्टि से दोषपूर्ण तो है ही, सनातन परम्परा के लिए घातक है। ऐसी एकता की ज़रूरत औपनिवेशिक कथ्य, उससे उत्पन्न परिस्थितियाँ एवं तात्कालिक व्यावहारिक राजनीति के चलते पैदा हुई हैं। सनातन परम्परा के लिए यह स्थिति तीन शठों द्वारा एक ब्राह्मण से उसके छाग को ठग लेने की पंचतंत्र कथा के समान है।

सनातन को लेकर दूसरी प्रचलित समझ को हम ‘चलनवाद’ कह सकते हैं। कुछ आधुनिक विचारों के अनुसार सनातन परम्परा एक ऐसी वैयक्तिक स्वतंत्रता की व्यवस्था है, जहाँ सब कुछ चलता है। यानी ऐसा चरित्र जिसकी कोई चारित्रिक प्रवृत्ति ही नहीं। तात्कालिक परिस्थितियों में सनातन धर्म का कथित मानने वाला जो करता है, वही सनातन होता है। बकौल एके रामानुजन, “एक किसान जो अपना हँसिया सनातन काल से चलाता आ रहा बताता है। बस, कभी उसकी फाल या कभी हत्था बदला गया है, तो हँसिया सनातन है।” कहने की जरूरत नहीं, स्वच्छन्दतावादियों के लिए तो यह लोच या चिमड़ापन आदर्श स्थिति है।

कुल मिलाकर हम निवेदित करना चाहते हैं कि भारत जो साभ्यतिक और सांस्कृतिक राष्ट्र है, उसका पुनरोदय सनातन वैदिक धर्म के मूल्य, आचार और दर्शन के बिना सम्भव नहीं। दूसरा- इसके लिए हमें श्रौत परम्परा का परिरक्षण एवं संवर्धन अपरिहार्य है। संकीर्ण नास्तिक और साभ्यतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भ्रान्त रुढ़ियों के निस्तार की यही विधि है। नि:संदेह ऐसे कथन की सीमा और उसके पीछे की तर्कणा सुस्पष्ट करना आवश्यक है।

अत: इस विचार को प्रस्तुत करने के लिए चार प्रश्न रखे गए हैं :-
• सनातन धर्म क्या है?
• सनातन धर्म में वैदिक श्रौत परम्परा क्यों अपरिहार्य है?
• नास्तिक एवं अवान्तर आस्तिक मतों की लोक में मान्यता ने सनातन सभ्यता और संस्कृति को कैसे प्रभावित किया है?
• अद्यतन वेद-निन्दक नास्तिक और अवान्तर आस्तिक मतों को किस अंश में सनातनी धार्मिक कहा जा सकता हैं?

अगले भागों में हम इन्हीं प्रश्नों के माध्यम से सनातन से सम्बन्धित स्थिति को समझने का प्रयास करेंगे। 

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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। पाँच कड़ियों की यह श्रृंखला है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)

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