Raja Bhoj-Lakadhaara

संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है…!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

भाषा की दृष्टि से समझने पर संस्कृत मात्र विचारों के आदान प्रदान की माध्यम प्रतीत नहीं होती। वास्तव में संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है। संस्कृत वह विधि प्रतीति होती है, जो विविध ध्वनि संकेतों को एक सुसंगत और सुगठित रूप प्रदान कर उनके अंतर्सम्बन्धों को नियमित करती है। यही विधि संस्कृत को विश्व की सबसे व्यवस्थित भाषा के रूप में अब तक कायम रखे हुए है।

हम इसे एक लोक कथा के माध्यम से समझ सकते हैं। मालव प्रदेश की राजधानी धारानगरी (आज के मध्य प्रदेश का धार शहर) में परमारवंशी राजा भोज के शासनकाल का प्रसंग है। माना जाता है कि उनका शासनकाल 1018 से 1060 ईस्वी तक रहा। हालाँकि इस कालखंड के बारे में विद्वानों की राय भिन्न है लेकिन इस तथ्य पर सभी एकमत हैं कि राजा भोज संस्कृत के महान् विद्वान् थे। उन्होंने संस्कृत भाषा में कई ग्रन्थ लिखे है। और उनके शासनकाल में संस्कृत इतनी फली-फूली कि वह जनभाषा अर्थात् आम बोल-चाल की भाषा बन गई। कहते हैं, राजा से लेकर रंक तक सब उनके शासनकाल में संस्कृत में बातचीत किया करते थे। 

इसका प्रमाण देता हुआ एक लोकप्रिय प्रसङ्ग है। उस प्रसंग में संस्कृत के नियमों की सूक्ष्मता भी निहित है। इस भाषा की महत्ता समझने के लिए इसकी ऐसी सुक्ष्मता को समझना आवश्यक है। तो प्रसंग यूँ है कि एक बार राजा भोज प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए सामान्य वेश-भूषा में अकेले राज्य के भ्रमण पर निकल पड़े। रास्ते में उन्हें एक लकड़हारा मिला। उसने सिर पर लकड़ियों का बोझ रखा हुआ था। यह देखकर राजा ने उससे पूछा, “किन्न ते भारं ‘बाधति’?” यानि “क्या इस भार से तुम्हें कष्ट हो रहा है?” इसके उत्तर में लकड़हारे ने राजा को संस्कृत भाषा में व्याकरण की गलती पर टोक दिया। उसने कहा, “भारन्न बाधते राजन्, यथा ‘बाधति’ ‘बाधते’।” अर्थात् “हे राजन्! यह भार मुझे उतना कष्ट नहीं दे रहा, जितना आपका यह ‘बाधति’(अशुद्ध) का प्रयोग कष्ट दे रहा है (बाधते)।” 

दरअसल, संस्कृत भाषा में ‘बाध्’ (कष्ट देना) धातु का प्रयोग नित्य आत्मनेपद में होता है। और इसके रूप हैं, ‘बाधते, बाधेते, बाधन्ते’। लेकिन राजा भोज ने उस लकड़हारे से जो प्रश्न किया, उसमें उन्होंने ‘बाध्’ धातु का परस्मैपदी रूप (बाधति, बाधतः, बाधन्ति) में अशुद्ध प्रयोग किया। इस कारण उस लकड़हारे को तकलीफ हो गई। क्योंकि एक श्रेष्ठ विद्वान् राजा से उसे इस तरह की गलती की अपेक्षा नहीं थी। 

यह इस भाषा की सुन्दरता है कि अगर ये एक बार समझ आ जाए, जुबान पर चढ़ जाए तो आम जन के सहज प्रयोग के लिए भी मुश्किल नहीं है। इसकी पद्धति, इसकी तकनीक, इसकी प्रक्रिया एक लकड़ी ढोने वाले को भी उसी सरलता से समझ में आती है, जितनी एक विद्वान् राजा को। यही कारण है कि बोल-चाल के प्रयोग से बाहर होने के बाद भी इस भाषा की श्रेष्ठता सदियों से आज तक स्वयंसिद्ध है। कोई इस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। 

समझने के लिए ऐसे बहुत से प्रसङ्ग और सन्दर्भ हैं, जो संस्कृत भाषा के व्याकरण-नियमों की ओर, उसकी सुंदरता की तरफ बहुत सरल रूप से हमारा ध्यान खींचते हैं। उन्हें हम आगे देखेंगे। 
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 

1. श्रावणी पूर्णिमा को ही ‘विश्व संस्कृत दिवस’ क्यों?

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