अनुज राज पाठक, दिल्ली
हमने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में आचार्य के ‘निरुक्त’ में आए बहुत से विषय देखे। उसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए आज ‘समुद्र’ शब्द के अर्थों को देखेंगे। आचार्य ‘समुद्र’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं, “समुद्र अर्थात् जल जिसमें लहर और तरङ्ग आदि के रूप में रहता है। जिसमें जलीय जन्तु आनन्द से रहते हैं। जिसमें उदक अर्थात जल एकत्र है। जो अपने में से निकले हुए जल से समस्त संसार को गीला करता है।” आचार्य ‘समुद्र’ का अर्थ बनाते हुए कह रहे हैं कि जिसके जल से समस्त संसार गीला होता है अर्थात् वर्षा जल के रूप में बरसता है।
(तत्र समुद्र इत्येतत् पार्थिवेन समुद्रेण सन्दिह्यते। समुद्रः कस्मात्? समुद्रवन्ति अस्माद्-आपः। समभिद्रवन्ति-एनम्-आप:। सम्मोदन्ते अस्मिन् भूतानि। समुद्रको भवति। समुनत्ति-इति वा)।
‘समुद्र’ की व्याख्या करते हुए आचार्य समाज की विशिष्ट घटनाओं की जानकारी देने से नहीं चूकते। साथ ही, समाज में मौजूद ‘जाति’ (जो वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है।) परिवर्तन के प्रसङ्ग का वर्णन भी करते हैं। इस सन्दर्भ में क्षत्रिय वर्ण में जन्मे देवापि का प्रसंग उल्लेखनीय है। देवापि कुरुवंश के राजा शान्तनु के बड़े भाई थे। वही शान्तनु, जिनके पुत्र को हम भीष्म या भीष्म पितामह के नाम से भी जानते हैं।
तो हुआ यूँ कि देवापि अपनी युवावस्था में ही राज्य त्यागकर तप करने चले गए। इससे शान्तनु राजा बन गए। बड़े भाई के रहते छोटे के राजा बन जाने से देवता नाराज हो गए। उन्होंने शान्तनु के राज्य में बारह वर्ष तक बारिश नहीं होने दी। ऐसे में, राज्य में बारिश कराने का एक ही उपाय था कि देवापि राजगद्दी सँभालें। लेकिन वे इसके लिए राजी नहीं हुए। परन्तु उन्होंने पुरोहित बनकर वर्षा कराने हेतु यज्ञ कराने के लिए अपनी सहमति दे दी। हालाँकि इसमें भी समस्या थी कि अभी देवापि क्षत्रिय वर्ण से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे। इसलिए पुरोहिताई भी नहीं कर सकते थे। तब इसका समाधान भी देवापि ने ही निकाला। उन्होंने अब अपने तपबल से देवाताओं का आवाहन किया और उन्हीं से याचना की कि उन्हें राज्य के कल्याण के उद्देश्य से किए जाने वाले यज्ञ में पुरोहिताई करने की अनुमति दी जाए। देवता उनके निस्वार्थ त्याग और तपस्या, दोनों से प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें इसकी अनुमति दे दी। इस तरह यज्ञ का आयोजन हुआ। परिणामत: वर्षा तो हुई ही, देवापि भी अगले वर्ण में प्रोन्नत हो गए।
इस घटना से हमें ज्ञात होता है कि व्यक्ति अपने प्रयास से वर्ण का परिवर्तन करता रहा है। क्योंकि देवापि का उदाहरण कोई अकेला नहीं है। विश्वामित्र का उदाहरण भी इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध है। वे भी क्षत्रिय वर्ण में पैदा हुए। राजा बने। मगर फिर सब छोड़कर तपबल से ब्रह्मर्षि की सर्वोच्च उपाधि हासिल की।
आचार्य यास्क शब्दों की निरुक्ति करते हुए समाज की ऐसी और भी घटनाओं का वर्णन करते हैं। साथ-साथ शब्दों के प्रयोग अलग-अलग क्षेत्रों में किस अर्थ में हो रहे थे, उसका उल्लेख भी करते हैं। जैसे- कम्बोज (आज के उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान का एक क्षेत्र) देश में ‘शवति’ शब्द का अर्थ ‘जाना है’। वहीं उत्तर भारत में ‘शव’ धातु के भूत काल में मृत शरीर के लिए प्रयोग किया जाता है।
इस तरह, ‘निरुक्त’ का अध्ययन करते हुए कह सकते हैं कि आचार्य ने अपने ग्रन्थ में केवल विषय नहीं, अपितु भारतीय समाज के विविध रूपों का वर्णन भी किया है। हमें भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों से भी परिचित कराया है।
#SanskritKiSanskriti
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ
23 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ऋषि कौन, वेद क्या और मंत्र क्या?
22 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बहस क्या है… वाद या वितण्डा? जानने के लिए पढ़िए
21- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : “अनर्थका: हि मंत्रा:” यानि मंत्र अनर्थक हैं, ये किसने कहा और क्यों?
20 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : उदाहरण रूप वैदिक शब्दों की रूढ़ संज्ञा को क्या कहते हैं?
19 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : सुनना बड़ा महत्त्वपूर्ण है, सुनेंगे नहीं तो बोलेंगे कैसे?
18 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी कैसे हो सकती हूँ?
17 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण में ‘गणपाठ’ क्या है?
16 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बच्चे का नाम कैसा हो- सुन्दर और सार्थक या नया और निरर्थक?
15 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?
14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?