अनुज राज पाठक, दिल्ली से
पूर्व में हमने संस्कृत की विविध विशेषताओं को देखा। अब आगे बढ़ते हुए, कुछ प्रयोग देखेंगे। इन प्रयोगों से हम संस्कृत भाषा के प्रयोग के सुन्दर रूपों से परिचित होगें। लेकिन पहले संस्कृत की धातुओं को समझ लें। यह बड़ा रोचक है।
संस्कृत में धातु (क्रिया) के दो विभाग हैं, एक- सकर्मक, जिसमें फल का आश्रय कर्म होता है। दूसरा- अकर्मक, जिनमें यह कर्म नहीं होता। प्रत्येक धातु में दो बातें होती हैं। पहली- फल, जिस उद्देश्य से क्रिया की जाती है। इस फल का आश्रय कर्म कहलाता है। दूसरा- व्यापार, यानि वे चेष्टाएँ जो फल की प्राप्ति के लिए की जाती हैं। इस व्यापार को करने वाला कर्त्ता होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्रिया को करने में जो चेष्टाएँ हुईं, वह चेष्टा करने का वाला या क्रिया जिसके आश्रय होगी, वह कर्त्ता है।
धातुएँ या क्रियाएँ फल प्राप्ति के आधार पर तीन तरह की होती हैं।
पहली – परस्मैपदी अर्थात् जिन क्रियाओं का फल कर्म को मिलता है, वे। जैसे- अद् (खाना, अत्ति, अत्तः, अदन्ति)। भू (होना, भवति, भवतः, भवन्ति)। गम् (जाना, गच्छ, गच्छति, गच्छतः, गच्छन्ति)। पठ् (पढ़ना) आदि।
दूसरी क्रिया या धातु- आत्मनेपदी मतलब वे जिनका फल सीधे कर्त्ता पर पड़ता है। जैसे- मोद (प्रसन्न होना, मोदते मोदेते मोदन्ते)। सेव (सेवा करना, सेवते सेवेते सेवन्ते)। लभ् (लाभ उठाना), शीङ् (सोना), वृत् (होना) आदि।
तीसरी- उभयपदी, यानि जिन धातुओं के परस्मैपदी एवं आत्मनेपदी दोनों रूप होते हैं, वे उभयपदी धातुएँ कहलाती हैं। जैसे- पच् (पकाना, पचति एवं पचते)। ब्रू (कहना, ब्रवीति एवं ब्रूते)।
इसे ऐसे समझते हैं – मैं आप के घर बिना बुलाए पहुँच गया। उस समय आप खीर बना रहे हैं। खीर केवल इतनी बनाई कि बस आप खा सकें। मैनें पूछा भाई क्या बना रहे हो? उत्तर में आप कहना चाहते है कि खीर बस, खुद के लिए ही बनाई है। मुझे मना भी नहीं करना चाहते। तब संस्कृत में मात्र क्रिया के उपयोग से आप मुझे मना किए बिना यह बता सकते हैं। कैसे? वह प्रयोग देखिए….
आप कहते हैं, ‘अहं पायसं पचामि’, तो यहाँ क्रिया के परस्मैपदी प्रयोग होने से सूचित होता है, आप के लिए भी है। लेकिन अगर आपने कहा, ‘मया पायसं पच्यते’ तब यहाँ आत्मनेपदी प्रयोग से सूचित किया इतनी खीर नहीं है कि आपको भी खाने के लिए मिल सके। अर्थात् खीर बस खुद के लिए पका रहा हूँ।
इसको दूसरे उदाहरण से देखते हैं। पंडित जी जब खुद के लिए पूजा करते हैं, तब ‘यजते’ आत्मनेपद प्रयोग करते हैं। ऐसा कहने पर पूजा करने का पुण्य/लाभ खुद को मिलेगा। लेकिन जब पंडित जी दूसरे के लिए पूजा करते हैं, तब ‘यजामि’ परस्मैपद का प्रयोग करेंगे। उस स्थिति में पूजा करने का पुण्य / लाभ किसी अन्य को मिलेगा।
यह सूक्ष्म भेद केवल ‘क्रिया’ का फल किसको प्राप्त होगा, इस बात को सूचित करने के लिए हैं। इस संस्कृत में हम अपने मनोभावों को बिना लम्बे वाक्य कहे भी व्यक्त कर सकते हैं। इसीलिए संस्कृत भाषा सुन्दरतम भाषा कही जाती है।
इसमें एक और खास बात ये है कि संस्कृत भाषा में तीनों प्रकार के धातुएँ निर्धारित हैं। उनके स्वेच्छाचारी प्रयोग भी नहीं किए जा सकते। जैसे आजकल ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग करने में कर लेते हैं। यहाँ ‘हिन्दी’ की जगह ‘हिंदी’ से काम चला लेते हैं। यह प्रयोग स्वेच्छाचारी है, ना कि व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है।
वैसे, हिन्दी लिखने के स्वेच्छाचारी प्रयोग पर भी संस्कृत व्याकरण के आचार्यों ने व्यवस्था दी है। वह क्या है, कैसी है, उस पर फिर कभी चर्चा करेंगे।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है?
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!
11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10- संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
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7- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!
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