अनुज राज पाठक, दिल्ली
प्राय: हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति के प्रतीकों और मान्यताओं को ही नहीं अपितु संस्कृति से जुड़े छोटे-छोटे विचारों, कथनों, वाक्यों और यहाँ तक कि शब्दों तक की आजकल के विद्वान आलोचना करते हैं। या कहें कि उनकी निन्दा करने में अपनी विद्वत्ता समझते हैं। अभी का ताज़ा उदाहरण है। आज ‘ईद की मुबारकवाद’ कहते हुए एक युवा स्थापित विद्वान ने “वादे वादे जायते तत्त्वबोध:” वाक्य में उल्लिखित ‘वाद’ का अर्थ ‘बहस’ से मान लिया और इस कथन को वे ग़लत बताने लगे। इससे मैं एक बात निश्चित रूप कह सकता हूँ कि विद्वान लेखक को ‘वाद’ का अर्थ पता होगा। लेकिन उन्होंने अपनी सुविधा के अनुरूप अर्थ निकाला।
इन विद्वान लेखक ने शायद जानबूझकर ऐसा किया होगा। सम्भव है, इसके पीछे उनके राजनैतिक, सामाजिक कारण रहे हों। उपयुक्त लाभ उठाने की कोई मंशा छिपी हो। मेरे ऐसा मानने का कारण यह है कि जिस तरह उन्होंने ‘वाद’ का अर्थ लिखा, बताया, उससे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसीलिए प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने लाभानुसार अर्थ किया और ‘वाद’ का सही अर्थ बताने का साहस नहीं दिखा सके।
इस सन्दर्भ में मुझे गीता का एक श्लोक याद आता है….
“सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।।”
इस श्लोक में ‘वाद’ का अर्थ देखिए। श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सर्गों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का (तत्त्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला) वाद मैं हूँ।
दरअसल, परस्पर शास्त्रार्थ तीन प्रकार का होता है- (1) जल्प – युक्ति-प्रयुक्ति से अपने पक्ष का मण्डन और दूसरे का खण्डन करना। यानि अपने पक्ष की जीत और दूसरे की हार करने की भावना से जो शास्त्रार्थ किया जाता है, उसे ‘जल्प’ कहते हैं। (2) वितण्डा– अपना कोई पक्ष न रखकर केवल दूसरे का खण्डन-ही-खण्डन करने के लिए जो शास्त्रार्थ किया जाता है, उसे वितण्डा कहते हैं। (3) वाद– बिना किसी पक्षपात के केवल तत्त्व-निर्णय के लिए आपस में जो शास्त्रार्थ (विचार-विनिमय) किया जाता है, उसे वाद कहते हैं।
उपर्युक्त तीनों प्रकार के शास्त्रार्थों में ‘वाद’ श्रेष्ठ है। इसी वाद को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। भारतीय दर्शनों में ‘वाद’ का अर्थ कहीं भी ‘बहस’ के रूप में सुनने-पढ़ने में नहीं आता। अर्थात् उक्त विद्वान ने ‘ईद की मुबारक’ देते हुए अपने मन के अनुरूप बिना प्रसंग सिर्फ ‘वितण्डा’ खड़ा करने हेतु अनर्थ लिया।
वे और उनके जैसे लाेग ऐसा कर सकते हैं और तब तक कर सकते हैं जब तक कि हम स्वाध्याय से अपने शास्त्रों के अर्थ और तात्पर्य न समझने लगें। इसीलिए हमारे आचार्यों ने वेद मंत्रों के वास्तविक अर्थ और तात्पर्य समझने पर जोर दिया है। इस हेतु आचार्य यास्क ‘निरुक्त’ पढ़ने का आदेश करते हैं, ताकि वेद मंत्रों का तत्त्व समझा जा सके। ‘निरुक्त’ के बारे में हम इसी श्रृंखला की पिछली कड़ियों में बात कर चुके हैं। उन्हें देखा जा सकता है।
#SanskritKiSanskriti
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ
21- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : “अनर्थका: हि मंत्रा:” यानि मंत्र अनर्थक हैं, ये किसने कहा और क्यों?
20 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : उदाहरण रूप वैदिक शब्दों की रूढ़ संज्ञा को क्या कहते हैं?
19 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : सुनना बड़ा महत्त्वपूर्ण है, सुनेंगे नहीं तो बोलेंगे कैसे?
18 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी कैसे हो सकती हूँ?
17 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण में ‘गणपाठ’ क्या है?
16 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बच्चे का नाम कैसा हो- सुन्दर और सार्थक या नया और निरर्थक?
15 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?
14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है?
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!