समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
नैसर्गिक और स्वस्थ जीवन सरल और सुलभ है। बिना किसी प्रयास के यह सहज उपलब्ध है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगे, जलचर, वृक्ष-वनस्पति सभी जीवन को सहज स्वास्थ्य के साथ जीते आए हैं। विकास क्रम की अपनी एक अंत:प्रज्ञा है, जो समस्त सृष्टि में व्याप्त है। इसका ज्ञान लेने के लिए यूनिवर्सिटी नहीं जाना पड़ता। कोई शोध नहीं करना पड़ता।
हालाँकि विज्ञान के विकास के साथ हम जिस ओर बढ़ रहे हैं उसकी वजह से सहज नैसर्गिक स्वास्थ्य एक ऐसी अपवादस्वरूप स्थिति लगने लगी है, जिसकी प्राप्ति कृत्रिम पोषक तत्व, औषधियों से होती है। इसके पीछे विज्ञान में व्याप्त स्वास्थ्य और जीवन के प्रति अज्ञानजनित कृत्रिम दृष्टिकोण है, जो उसके त्रुटिपूर्ण नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों से आता है। विज्ञान की शोध और नीति जिस भोगवादी औद्योगिक संस्थाओं से प्रेरित होती है, उसमें नि:शुल्क उपलब्ध प्राकृतिक रूप से पोषण करने वाले सूक्ष्मजीवियों की उपयोगिता नहीं।
उदाहरण के तौर पर त्वचा। त्वचा में एक महत्वपूर्ण सूक्ष्मजीवी पारिस्थितिकी तंत्र होता है – त्वचा माइक्रोबायोटा। यह अपने मेज़बान के साथ होमोस्टैसिस में होता है और मानव स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। लेकिन मेडिकल शोध के जाली दावों और लुभावने विज्ञापन के अजब मिश्रण की ताकत से साबुन, क्रीम, डिओड्रंट जैसे कॉस्मेटिक उत्पाद को एक आवश्यकता बना दिया गया है। इसे हम स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए जरूरी समझने लगे हैं। जबकि अध्ययनों से यह साबित हो रहा है कि कॉस्मेटिक्स अवयवों में त्वचा माइक्रोबायोटा सन्तुलन को खतरनाक तरीके से बाधित भी करते हैं। इनसे सिर्फ त्वचा रोग ही नहीं होते, प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का विनियमन भी बाधित होता है।
ऐसे ही आहार की चर्चा करें, तो खान-पान अब बाजार रेस्त्रां से होते हुए औद्योगिक खाद्य प्रसंस्करण ईकाइयों से आ रहा है। भ्रामक दावों और लुभावने विज्ञापनों से सहज प्राकृतिक खान-पान का स्रोत भी बदल रहा है। ऐसे पदार्थ बेचने के लिए रसायनों की मदद से स्वाद को व्यसनकारी लत बनाया जा रहा है। कारखानों में बन रही कृत्रिम खाद्य सामग्री में स्वच्छता, शेल्फलाइफ और आवश्यक कहे जाने तमाम विटामिन्स-मिनरल्स उपलब्ध है, किन्तु यह आहार सामग्री हमारे पेट में सम्यक रूप से अवशोषित होकर मानव को स्वस्थ्यकर पोषण देने में असमर्थ साबित हो रही है। इसके उलट यह कई तरह के विकार पैदा कर रही है।
विज्ञान द्वारा अधिक उत्पादन करने वाली खोजें आर्थिक तंत्र का औजार बन गई है। अनाज, दाल, तेल, फल-फूल, हरी पत्तेदार भाजी, दुग्ध पदार्थों का कई स्तरों पर औद्योगीकरण हो रहा है। इसका मतलब है कि प्राकृतिक पदार्थ यानि बीज, कृत्रिम खाद, रसायन, तकनीकी, प्रसंस्करण आदि अब अधिक उत्पादनशील, लम्बे समय तक खराब न होने वाले, राेग-कीट प्रतिरोधक तकनीकी की जद में आ रहा है। लेकिन इस रासायनिक औद्योगिक कृषि का परिणाम यह है कि कृषि उत्पादन बढ़ तो रहा है। बाजार भी बड़े आकार के, चमकदार फसलों से पटे पड़े है। लेकिन उपजों में पोषक तत्व तेजी से घट ही रहे हैं। इन उत्पादों से भी पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है, जिससे कैंसर, अल्सर, श्वास-पाचन से जुड़े, जेनेटिक विकार और अन्यान्य बीमारियां और रोग बेतहाशा बढ़ रहे हैं।
कृत्रिम रासायनिक औद्योगिक तकनीकी धरती के स्वास्थ्य के लिए जहर है। निसर्ग से उपलब्ध होने वाले पदार्थों के स्वाभाविक गुणों को नष्ट करने वाली है। लेकिन संकीर्ण तात्कालिक सोच और अल्पदृष्टि से प्रेरित विज्ञान इस तथ्य को समझने की योग्यता नहीं रखता। पृथ्वी के पारिस्थितिकीय तंत्र का स्वास्थ्य भी सूक्ष्मजीवियों पर आधारित है, ठीक उसी तरह जैसे कि मानव स्वास्थ्य माइक्रोबायोम और माइक्रोबायोटा पर निर्भर है। प्राकृतिक खान-पान, दिनश्चर्या, श्वास-प्रश्वास, आचार-विचार जिस निसर्ग से परिचालित होते हैं, उसमें में समग्रता, सम्पूर्णता और सम्यकता होती है। स्वस्थ जीवन एक गहरा पारिस्थितिकीय तंत्र है, जिसमें सभी जीव-जन्तुओं की भूमिका और उपयोगिता है। जब तक इस तथ्य के आधार पर जननीति नहीं बनती, स्वास्थ्यपरक जीवन सम्भव नहीं।
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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। विशेष रूप से धर्म-कर्म और वैश्विक मामलों पर वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। समीर ने सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा पर हाल ही में डायरी पर सात कड़ियों की अपनी पहली श्रृंखला भी लिखी है।)
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