Bengaluru Police

कार चलाते हुए दफ़्तर का काम, पुलिस ने किया ‘काम तमाम’!…भाई ऐसा भी क्या काम?

टीम डायरी

कार चलाते हुए दफ़्तर का काम, पुलिस ने किया ‘काम तमाम’! यह ‘रोचक-सोचक’ मामला है बेंगलुरू का। इसमें पहले बात करेंगे ‘रोचक’। वहाँ व्यस्त सड़क पर एक महिला कार चलाते हुए लैपटॉप पर काम करते देखी गई। देर शाम को जब शहर का यातायात वैसे ही कई जगह बाधित रहता है, यह महिला काम ही नहीं, लैपटॉप पर वीडियो चालू कर के भी चली जा रही थी। शायद वह दफ़्तर के साथियों के साथ बैठक में शामिल थी।

हालाँकि, इससे पहले कि वह दुर्घटना का शिकार होती या कारण बनती, उस पर यातायात पुलिस की नजर पड़ गई। पुलिस ने उसकी कार के आगे जाकर उसे रोका और उसका चालान काट दिया। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बाद में पुलिस ने उसकी तस्वीर और कार चलाने के दौरान काम करने का वीडियो (नीचे है) भी सोशल मीडिया पर साझा कर दिया। इस सन्देश के साथ कि अगर “काम करना है, तो घर से करें, कार चलाते वक़्त नहीं।”         

https://twitter.com/DCPTrNorthBCP/status/1889613713084236006

तो अब बात करें मामले के ‘सोचक’ यानी सोचनीय पहलू की। आख़िर ऐसा भी क्या काम कि ख़ुद अपनी और दूसरे लोगों की जान जोख़िम में डालकर उसे करना पड़ रहा है? इसका ज़वाब सम्भवत: अभी दो-चार महीने पहले आए कुछ बयानों में मिल सकता है। इनमें एक बयान है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी कम्पनी ‘इन्फोसिस’ के संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति का। वह कहते हैं कि भारत के नागरिकों को चीनियों की तरह ‘हफ़्ते में 70-72 घंटे काम करना चाहिए’। मतलब सप्ताह के छह दिन भी करें तो रोज 12-12 घंटे तक।

इसी तरह दूसरा बयान आया निर्माण क्षेत्र की बड़ी कम्पनी लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के प्रमुख एसएन सुब्रमण्यन का। उन्होंने कर्मचारियों से यहाँ तक कह दिया गया कि रविवार की छुट्‌टी लेकर क्या करोगे? ‘घर में रोज-रोज पत्नी की सूरत कब तक देखोगे? दफ़्तर आओ, रविवार को भी काम करो। हफ़्ते में 90 घंटे काम करो।’ यानि सप्ताह के सातों दिन रोज लगभग 13 घंटे। यही नहीं, उन्होंने फिर यह भी कह दिया गया कि भारत में लाेग काम के लिए आगे बढ़ना नहीं चाहते। दफ़्तर जाकर काम नहीं करना चाहते। घर नहीं छोड़ना चाहते।

निश्चित रूप से, ख़ास तौर पर निजी क्षेत्र में काम करने वालों पर यही सोच दरअस्ल, सबसे बड़ा दबाव है। निजी क्षेत्र के कामग़ारों में अधिकांश ऐसे लोग हैं, जिनकी रीढ़ झुकते-झुकते पूरी झुक चुकी है। जिनके पैर बड़ी कम्पनियों से मिलने वाली लाखों रुपयों की तनख़्वाह रूपी बैसाखियों के सहारे टिके हैं। उन्हें हमेशा ये डर सताता रहता है कि ये बैसाखियाँ हट गईं तो उनका पूरा अस्तित्त्व भरभराकर धूल में मिल जाएगा। और यही डर उन्हें अब जान का जोख़िम लेने या दूसरों की जान की परवा न करने के रास्ते पर भी आगे ले जा रहा है।

स्थिति चिन्ताजनक है। इस पर विचार करना होगा और शुरुआत ख़ुद से होगी। 

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