बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
महाराज ने एक नौदलीय मुहिम की योजना बनाई। कारवार किनारे के बसनूर शहर पर हमला करना था। मालवन बन्दरगाह से जहाजों का काफिला लेकर महाराज जाने वाले थे। महाराज की यह पहली नौदलीय मुहिम थी। बसनूर बहुत ही धनाढ्य आदिलशाही शहर था। मालवन बन्दरगाह से फाल्गुन शुक्ल तृतीया (दिनांक 8 फरवरी 1665) को महाराज का जहाज निकला। साथ में थे नौदलीय सरखेल। यानी नौसेना प्रमुख। इस बेड़े में तीन बड़ी युद्ध-नौकाएँ एवं 85 छोटे जहाज थे। पाल फूल रहे थे। मराठी नौदलीय काफिला पानी को चीरता हुआ तेजी से आगे बढ़ रहा था।
एक सुबह (शायद 9 फरवरी 1664) यह नौदल बसनूर की बगल में कटार की तरह घुस गया। शहर के जागने से पहले ही मराठों का छापा पड़ा। इस आकस्मिक हमले के लिए शहर तैयार नहीं था। मराठे उगाही वसूलने लगे। न देनेवालों को लूटने लगे। स्वराज्य कार्य के लिए पैसे की जरूरत थी। आक्रामक शत्रु का आर्थिक पहलू कमजोर करने के लिए भी पैसा जरूरी था। इसीलिए महाराज राजधर्म और युद्धधर्म का कर्त्तव्य कठोरता से निबाह रहे थे। दिनभर महाराज ने बसनूर में धन बटोरा और दिन ढले उन्होंने शहर छोड़ दिया।
इसके बाद महाराज श्रीगोकर्ण महाबलेश्वर आए। शंकरजी के दर्शन कर अंकोला में आए। यहाँ पर उन्होंने जलयात्रा समाप्त की। नौदल को राज्य की तरफ भेज खुद भूमार्ग से जाने लगे। उन्होंने अपने साथ, चार हजार की फौज ले ली। जरूरत पड़ने पर खाड़ियाँ पार करने के लिए 12 तराफे भी रख लिए (दिनांक 21 फरवरी 1665)। दूसरे ही दिन वह कारवार आ पहुँचे। कारवार में घुसकर महाराज अंगरेजों की अच्छी खबर लेने वाले थे। लेकिन वहाँ के आदिलशाही नायब सूबेदार शेरखान ने सभी व्यापारियों से उगाही की रकम इकट्ठा कर पहले ही महाराज को अर्पित कर दी। उसमें अंगरेजों ने भी एक सौ बारह पौंड की रकम दी। इसके बाद महाराज कारवार में दो दिन रहे। पर उन्होंने शहर को कोई हानि नहीं पहुँचाई।
स्वराज्य कार्य के विस्तार एवं संरक्षण के लिए पैसे चाहिए थे। इसीलिए महाराज ने शत्रु के अमीर शहरों को लूटने की नीति अपनाई थी। यह भी एक राजनीति ही थी। लेकिन लूटपाट करते हुए भी महाराज विवेक से काम लेते थे। गरीब लोग, स्त्रियाँ, बच्चे-बूढ़े, गाय-बछड़े, मन्दिर, चर्च, मस्जिद, दरगाह या साधु-सन्त, धार्मिक ग्रन्थ, इनको वह हाथ भी नहीं लगाते थे। उगाही देने वाले अमीर को वह सताते नहीं थे। और लूट की रकम सिपाही हड़प नहीं सकते थे। राजे की कड़ी नजर से समुद्र भी थर्राता था। फिर मामूली सिपाही ऐसी जुर्रत कर सके, यह असम्भव था।
कारवार से महाराज खानपुर के पास भीमगढ़ आए (फरवरी की आखिर में 1665)। इस सागरी और सागर किनारे की मुहिम में महाराज आदिलशाली मुल्क में निडरता से संचार करते रहे थे। महाराज कोंकण किनारे की सुरक्षा के प्रति जागरूक थे। उन्होंने पहचान लिया था कि सिद्दी, समुद्री डकैत, अरब दर्यावर्दी, फिरंगी, पोर्तुगीझ और अन्य यूरोपीय लोगों से ही कोंकण किनारे को सबसे ज्यादा खतरा है। इसीलिए किनारे के सभी छोटे-बड़े थानों को जीतकर उन्हें मजबूत बनाने में वह लगे हुए थे। सिन्धुदुर्ग जैसा बलाढ्य सागरी किला बाँधने में भी उनका यही उद्देश्य था। सूरत से लाई गई अधिकतर दौलत सिन्धुदुर्ग के निर्माण कार्य में ही खर्च हुई।
सिन्धुदुर्ग की नींव के पत्थर महाराज ने शीसे में लगाए थे। इस काम में शीसे को गलाकर उसका रस चूने की जगह इस्तेमाल होता था। काफी खर्चीला पर मजबूत काम था यह। दक्षिण के आदिलशाही थानेदारों को तथा गोआ के फिरंगियों को खुली चुनौती था यह किला। इस किले का खासा दबदबा था। महाराज की तीव्र महत्वाकांक्षा थी कि इस विभाग में ऐसी प्रचंड सैनिकी तथा नौदलीय शक्ति का संगठन किया जाय कि उसकी मात्र दहशत से ही शत्रु के दक्षिण कोंकण के थाने उखड़ जाएँ। कितनी दूरदर्शिता!
सिन्धुदुर्ग में श्री भवानीदेवी की प्राण-प्रतिष्ठा की गई। किले का निर्माण कार्य जोर पकड़ रहा था। सिन्धुदुर्ग में सभी तरह की युद्ध विषयक सुविधाएँ रखी गई थीं। महाराज ने किले के धार्मिक कार्यों के लिए नित्य नैमित्तिक उपाध्याय वेदमूर्ती जानभट अभ्यंकर तथा उनके भतीजे दादभट उपाध्ये को बनाया। सिन्धुदुर्ग सही माने में कोंकण का अनमोल गहना था। आखिर दक्षिण की यह मुहिम समाप्त कर महाराज राजगढ़ आए। इसी समय मिर्जा राजा पुणे में दाखिल हुए थे (दिनांक 3 मार्च 1665)। मुगलों की यह नई मुहिम चिन्ता का ही विषय थी।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”
26- शिवाजी महाराज : कौन था जो ‘सिर सलामत तो पगड़ी पचास’ कहते हुए भागा था?
25- शिवाजी महाराज : शिवाजी ‘महाराज’ : एक ‘इस्लामाबाद’ महाराष्ट्र में भी, जानते हैं कहाँ?
24- शिवाजी महाराज : अपने बलिदान से एक दर्रे को पावन कर गए बाजीप्रभु देशपांडे
23- शिवाजी महाराज :.. और सिद्दी जौहर का घेरा तोड़ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ निकल भागे
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20- शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
19- शिवाजी महाराज : लड़ाइयाँ ऐसे ही निष्ठावान् सरदारों, सिपाहियों के बलबूते पर जीती जाती हैं
18- शिवाजी महाराज : शिवाजी राजे ने जब अफजल खान के खून से होली खेली!
17- शिवाजी महाराज : शाही तख्त के सामने बीड़ा रखा था, दरबार चित्र की भाँति निस्तब्ध था
16- शिवाजी ‘महाराज’ : राजे को तलवार बहुत पसन्द आई, आगे इसी को उन्होंने नाम दिया ‘भवानी’
15- शिवाजी महाराज : कमजोर को कोई नहीं पूछता, सो उठो! शक्ति की उपासना करो
14- शिवाजी महाराज : बोलो “क्या चाहिए तुम्हें? तुम्हारा सुहाग या स्वराज्य?
13- शिवाजी ‘महाराज’ : “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं”
12- शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…