नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 7/3/2021
अख़बारी दफ़्तर में शनिवार-इतवार को अमूमन काम कुछ कम ही हुआ करता है। विशेष तौर पर अगर कोई घटना-दुर्घटना न हो ताे। लिहाज़ा, इसी शनीचर की रात फ़ुर्सत के पलों में बैठे-ठाले मैं कुछ कड़ियाँ जोड़ने की कोशिश कर रहा था। ये कड़ियाँ बीते दो-तीन महीनों में मेरी नज़रों के सामने से गुजरी थीं। सो, अपने ज़ेहन की तस्वीरों को थोड़ा उल्टा घुमाया तो पाया कि कड़ियाँ आपस में पहले ही जुड़ी हैं। बस, नज़र नहीं गई थी। एक शीशेनुमा महीन धागे ने उन्हें आपस में जोड़ रखा था। उस पर अब जबकि मेरी नज़र ठहरी तो ख़ुद का अक़्स दिखने लगा। सुन्दर क़तई नहीं था वह। इसलिए एकबारगी लगा कि इस कहानी को यूँ ही बिना नाम के लिख डालूँ। भला, अपनी बदसूरत तस्वीर औरों के सामने कौन रखना चाहेगा। फिर तभी दूसरी आवाज़ आई। ‘मूल प्रकृति’ की। उसने पूछा, “सत्य से सुन्दर भी कुछ होता है क्या?” ज़वाब स्वाभाविक तौर पर ‘नहीं’ में मिला और कड़ियों की ये कहानी नाम के साथ ‘डायरी’ पर आ लगी।
इन कड़ियों में क्रम के बज़ाय उनके वज़न के हिसाब ज़िक्र बेहतर होगा। सो, पहली। अभी तीन-चार रोज पहले देश के बड़े अख़बार के सबसे बड़े सम्पादक नवनीत गुर्जर ने ‘शब्द मंथन’ किया। इससे उन्होंने अपने नाम के अनुरूप जो नवनीत (मक्खन) निकाला, वह कुछ यूँ था, “सच्चा सुख वही होता है, जो किसी बाहरी चीज के सहारे खड़ा न हो। जिसमें गुलामी का सुख न हो, स्वतंत्रता की पीड़ा मिली हो।”
इसके बाद दूसरी कड़ी। तीन महीने पीछे की। दफ़्तर में एक रोज़ ‘मूर्धन्य चर्चा’ हो रही थी। ख़बरिया पेशे वाले दफ़्तरों में अक़्सर ऐसी हुआ करती हैं। मैं इनमें बस मूक श्रोता-दर्शक ही रहता हूँ। सो, उस चर्चा के दौरान भी इसी भूमिका में था। चर्चा का विषय था, ‘मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है।’ सब के अपने तर्क, अपनी दलीलें। समझने से ज़्यादा समझाने की कोशिशें। और नतीज़े में कम से कम से मेरा हासिल तो शून्य ही रहा। अलबत्ता उसी चर्चा के दो-तीन दिन बाद इत्तिफाक़न आभासी दुनिया में घूमता-फिरता एक वीडियो मेरे पास आ गिरा। कवि कुमार विश्वास का था। वे इन दिनों ‘अपने-अपने राम’ शीर्षक से व्याख्यान माला चलाया करते हैं। उसी का वीडियो। इसमें प्रसंग वही था, ‘मनुष्य और पशु में भेद क्या’ है। इसके लिए उन्होंने एक कहानी सुनाई, “दक्षिण भारत में लोग हाथी पालते हैं। जब यह विशालकाय जीव कच्ची उम्र का होता है, तभी उसके पैर में उसका मालिक एक ‘पाश’ (रस्सी या जंज़ीर) बाँध देता है। बचपन में वह कोशिश कर के भी उसे छुड़ा नहीं पाता। धीरे-धीरे वह पाश उसके ज़ेहन में जा बँधती है। यूँ कि अब मैं इसे कभी छुड़ा नहीं सकूँगा, ऐसा वह मान लेता है। इसके बाद उसकी काया कितनी भी विशाल हो जाए, उस मामूली पाश को वह कभी छुड़ा नहीं पाता। जब तक मदमत्त न हो, तब तक कोशिश भी नहीं करता। सो, इस तरह जो पाश से बँधा वह पशु।”
कितना सहज जुड़ाव है न दोनों कड़ियों में? ‘गुलामी का सुख…‘पाश’ से बँधा, सो पशु!’
पर इस कहानी में अभी तीसरी कड़ी बाकी है। दफ़़्तर में एक साथी हैं, अविनाश। अविनाशी शब्दों से दोस्ती है उनकी। उन्होंने अभी 20 फरवरी को हिन्दी साहित्य के बड़े लेखक, कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पुण्यतिथि पर उनके लिखे कुछ शब्द भेजे। सन्देश के तौर पर।
लिखा था, ‘वस्तुत: मैं जो हूँ, मुझे वही रहना चाहिए…। …मुझे अपना होना ठीक-ठीक सहना चाहिए…। ….मगर मैं कब से ऐसा नहीं कर रहा हूँ, जो हूँ, वही होने से डर रहा हूँ…।”
…और तीनों कड़ियों को जोड़ने वाले शीशेनुमा महीन धागे में दिखती मेरी जो तस्वीर है न, वह कुछ ऐसी है कि मैं अक़्सर किसी बाहरी चीज़ के सहारे टिका दिखता हूँ। बार-बार ‘स्वतंत्रता की पीड़ा’ भोगने निकलता हूँ। लेकिन फिर ‘गुलामी का सुख’ चुन लेता हूँ। क्योंकि एक पाश है, जो ज़ेहन में जा ठहरी है। वह मेरा वज़ूद अक़्सर पशु की मानिन्द पेश कर दिया करती है। मैं अपना होना ठीक-ठीक सहना चाहता हूँ। वस्तुत: जो हूँ, वही रहना चाहता हूँ। कोशिश करता हूँ….विफल होता हूँ। कोशिश करता हूँ…. नाकामयाब होता हूँ। कोशिश करता हूँ….. असफल होता हूँ।
मगर….. मगर फिर भी….. जो हूँ, वह होने से डर नहीं रहा हूँ…..सच्चे सुख की तलाश में रुक नहीं रहा हूँ।
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