रवि जोशी, नैनीताल, उत्तराखंड से, 16/ 9/2020
नैनीताल में जुलाई से सितम्बर तक लगभग ढाई-तीन महीनों की लगातार बरसात और सीलन के बाद धूप आने पर गर्म कपड़ों, गलीचों, गद्दे और रजाइयों को टीन की छत पर सुखाने का एक सिलसिला चलता है। महीनों की सीलन और उदासी के बाद चमकदार धूप आने पर उसमें सूखते कपड़ों और हवा में गायब होती गर्म सीलन को सूँघने की ख़ुशी टीन की नालीदार छतों पर संभल-संभलकर चलती उन मुदितमना गृहणियों के चेहरे पर साफ़ झलकती है। घर के पुरुषों का भी इस जरूरी काम में भरपूर योगदान होता है। कारण कि अमूमन पहाड़ी घरों में पाए जाने वाले और बरसात के मौसम में लीटरों पानी और सीलन पी चुके गाँधी आश्रम के उन 50-50 किलो रुई के गद्दे, रजाइयों को ऊपर तक पहुँचाने में अत्यधिक बल और तकनीक की जरूरत होती है।
मेरे घर में भी सभी सामान्य घरों की तरह यह अनुष्ठान होता है। फर्क ये होता है कि आस-पड़ोसियों के लिए कुछ असमान्य सी दिखने वाली वस्तुएँ भी उस दिन धूप सेंक रही होती है। मसलन- मेरे तबले, तानपुरे हार्मोनियम वगैरह। रविवार को धूप आ जाए तो लॉटरी लग गई समझो। इस हफ्ते के अनुष्ठान में कपड़े सुखाते हुए मुझे एक पुरानी चीज़ मिली, जिसने मेरे दिमाग में मेरी कराची (पाकिस्तान) यात्रा की स्मृतियाँ ताज़ा कर दीं। सितम्बर का ही महीना था वह। साल 2007, जब मुझे अपने गुरु पंडित मधुप मुद्गल जी के साथ एक सांस्कृतिक दल का हिस्सा बनकर हफ्ते भर की पाकिस्तान यात्रा पर जाने का मौक़ा मिला। कराची हवाई अड्डे पर हमें लेने के लिए पाकिस्तान के प्रसिद्ध कव्वाल भाईयों में से छोटे भाई अबू मुहम्मद आए थे। उनके साथ एक और बहुत सज्जन से व्यक्ति हमारे साज़-ओ-सामान को होटल तक ले जाने के लिए अपनी 9 -10 सीटर गाड़ी लेकर पहुँचे थे।
हमेशा बेहतरीन सिन्धी पोषाक पहनने वाले, पेशे से ड्राईवर उन सज्जन के साथ अगले कुछ दिनों में मेरी बहुत गाढ़ी दोस्ती हो गई। मैं हमेशा उनके साथ गाड़ी की सबसे अगली सीट पर बैठता था। हम दोनों खूब सिन्धी गाने सुनते और जमकर गप मारते। हिन्दी फिल्मों के बारे में उनके बहुत से सवाल होते थे। ख़ासकर अमिताभ बच्चन में तो उनकी गहरी रूचि थी। हिन्दुस्तान के बारे में बातें सुनने पर उनका चेहरा अचरज से एकदम बच्चों जैसा हो जाता था। एक बार मेरी फरमाइश पर उन्होंने मुझे कराची की भीडभाड़ वाली सड़क पर यातायात की चिन्ता किए बिना, बीचों-बीच गाड़ी रोककर बेहतरीन पान खिलाया। फिर जिस दिन हमें भारत वापस लौटना था, वे हमें छोड़ने हवाई अड्डे तक आए। उस दिन हवाई अड्डे तक के सफर में हमने बेहतरीन सिन्धी गाने सुने और रास्ते में पान भी खाया।
और आख़िर में, हवाई अड्डे पर गाड़ी से मेरा सूटकेस निकालते हुए वो मुझे गले लगाकर रोने लगे। मैं भी ख़ुद को रोक नहीं पाया। फिर उन्होंने अपनी पहनी हुई सिन्धी टोपी उतारकर बहुत इज्ज़त से मेरे सिर पर पहना दी। बताते चलूँ कि सिन्धी लोग टोपी को अपनी इज्ज़त मानते हैं। तो एक तरह से उन्होंने अपनी इज्ज़त और सम्मान की निशानी मेरे सिर पर रख दी थी। मेरा मान बढाया था। यही वज़ह है कि मैं आज तक उस पल को भूला नहीं हूँ। वह खूबसूरत टोपी अब भी मेरे पास है।
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(रवि जोशी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार हैं। वे अपने गायन के जरिए पंडित कुमार गन्धर्व की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में शुमार किए जाते हैं। साथ ही सरकारी नौकरी भी करते हैं। उन्होंने यह लेख अपने फेसबुक पेज पर लिखा है। इसे वहाँ से उनकी अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है।)