टीम डायरी
ऑनलाइन ऑर्डर लेकर घर-घर तक भोजन आदि खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति करने वाली कम्पनी ‘स्विग्गी’ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं रोहित कपूर। उन्होंने हाल ही में एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए दिन-रात काम में डूबे रहने की संस्कृति (भभ्भड़ संस्कृति या ‘हसल कल्चर’) को बक़वास बताया है। उन्होंने सभागार में मौज़ूद लोगों से ही नहीं, बल्कि भभ्भ्ड़ संस्कृति के समर्थक या मज़बूरी में इस कार्यसंस्कृति को अपनाने वालों से कहा, “सुबह तीन बजे तक काम करने की ज़रूरत नहीं है… मर जाओगे किसी दिन।”
और इत्तिफ़ाक़ देखिए कि इसी भभ्भड़ संस्कृति की वज़ा से दो लोगों ने सच में अपनी जान दे दी। लगभग उसी वक़्त जब रोहित बेंगलुरू में इस कार्यसंस्कृति की ख़ामियाँ बता रहे थे, उत्तर प्रदेश के झाँसी में 42 वर्षीय तरुण सक्सेना ने काम के दबाव में जान दे दी। बताते हैं कि जिस कम्पनी में तरुण काम करते थे, उसके वरिष्ठों ने उन पर दो महीने से दबाव बना रखा था कि या तो वे दिए गए लक्ष्य (टारगेट) पूरे करें, या फिर उनका वेतन काटा जाएगा।
तरुण ही नहीं, मुम्बई में एक सरकारी बैंक के प्रबन्धक 40 वर्षीय सुशान्त चक्रवर्ती ने भी जान दे दी। बताया जाता है कि 30 सितम्बर की सुबह सुशान्त कार से अपने दफ़्तर के लिए निकले। लेकिन अटल सेतु पर पहुँचते ही उन्होंने कार को किनारे लगाया और पुल से समुद्र में छलाँग लगा दी। उनकी पत्नी का दावा है कि सुशान्त पर काम का दबाव बर्दाश्त से बाहर हो गया था। इसी कारण उन्होंने जान दी है।
इस तरह की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। इन्हीं के मद्देनज़र रोहित कपूर की बात पूरी, सही अर्थों में, न सिर्फ़ सुनी जानी चाहिए बल्कि उसे ठीक से समझकर आत्मसात् भी करना चाहिए। रोहित कहते हैं, “कभी-कभी देर रात तक काम करना ठीक है, लेकिन जो लाेग नियमित रूप से ही तीन बजे रात तक काम करते हैं, उनके साथ कुछ गड़बड़ है। यह बहुत बड़ी समस्या है।…किसी को भी ऐसे पागलों की तरह काम करने की ज़रूरत ही क्या है? किसने बोला है? घर जाओ। पत्नी है, बच्चे हैं। कुछ तो करो (समय बिताओ), उनके साथ।…मर जाओगे किसी दिन करते-करते, उसके बाद क्या होगा? हाँ, कठोर परिश्रम ज़रूरी है। क्योंकि दुनिया में किसी को बिना मेहनत के कुछ नहीं मिलता। लेकिन कठोर परिश्रम का मतलब पागलों की तरह काम करना नहीं है!!”
ग़ौर कीजिएगा, रोहित की बात पर। यह सभी के लिए महत्त्वपूर्ण है।
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