वो बूढ़ी औरत… नाम उसका ‘गरीबी’

विकास, दिल्ली से, 8/2/2021

पिछले दिनों एक साक्षात्कार के सिलसिले में लोकसभा जाना हुआ। इसकी आरम्भ सीमा के पास ही एक बूढ़ी औरत बैठी रो रही थी। उन्हें देखकर मुझसे रहा नहीं गया। उनसे पूछ बैठा, “क्या हुआ माँ जी?” मगर कुछ कहने के बजाय उनकी सिसकियाँ और बढ़ गईं। मैंने फिर उनसे कहा, “देखिए मैं आपके बेटे समान हूँ। कुछ बताइए तो शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ।”

इतना कहने पर वह मुझे बताने को राज़ी हुई। कहने लगी, “बेटा! मेरे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं… आँखें अन्दर धँसे जा रही हैं…पेट कमर से लगा जाता है…हाथ-पैर कीर्तन कर रहे हैं…वो भूख से बिलख रहे हैं…और मुझसे उनका बिलखना देखा नहीं जाता। सत्तू पिलाकर सुलाने की कहानी तो अब पुरानी हो गई। यहाँ तो अब वह भी नसीब नहीं। खाने को घर में आटा, दाल कुछ नहीं है। बेटे खेती करते हैं। उससे जो फसल आती है, उसे बेचकर भी इतना पैसा नहीं मिल पाता कि सालभर का काम चल सके। पैदावार होती है तो मंडी में उसके पहुँचने से पहले साहूकार आ धमकता है। सूद समेत अपना दिया कर्जा माँगने। तब खून-पसीना बहाकर, दौड़-धूप करके, भरी सर्दी में भी रातभऱ खेतों में जागकर पैदा की फसल भी हमारी कहाँ रह जाती है।”

मैंने पूछा, “माता जी! जब सरकार ने ऋण प्रक्रिया इतनी सरल कर दी है, तो आप साहूकार से कर्ज लेती ही क्यों हैं?” वृद्धा कहने लगी, “हाँ, सुना तो था कि सरकार किसानों को बहुत सस्ते कर्ज दे रही है। और जिनसे कर्ज चुकाया नहीं गया, उनके माफ भी किए हैं। हाँ बेटा, कर्ज लेना आसान हुआ है, पर कागज़ों से कानों तक ही इसकी आसानी है। जब कर्ज लेने जाओ, तब पता लगती है इसकी ‘सरलता’! आज फॉर्म नहीं है…अगले सप्ताह आइए…जैसे-तैसे फॉर्म मिलता है तो पता लगता है कि अधिकारी महोदय 15 दिन की छुट्टी पर हैं…जब आएँगे, तो उसके बाद ही बात कुछ आगे बढ़ेगी। तब तक खाद, बीज देने का मौसम निकल जाता है। इसके बाद उस ऋण के मिलने या न मिलने कोई मतलब नहीं रह जाता। इससे तो ठीक हमारा साहूकार। उससे कर्जा माँगो तो कम से कम समय पर मिल तो जाता है। फिर हम चाहे जैसे उस ऋण को उतारते रहें।”

मैं मन ही मन सोचने लगा कि बड़ी त्रासद स्थिति है। आज निजी से लेकर सरकारी बैंक तक सभी घरों में घुस-घुस कर ज़बरदस्ती कर्ज बाँटने मसरूफ हैं। हालाँकि जिसे ज़रूरत है, उसे ही कर्ज नहीं मिलता। तभी वह बूढ़ी माँ आंखों से आँसू पोंछते हुए कहने लगी, “आजकल मार्केट के वो बड़ी-बड़ी चेन सिस्टम वाले लोग भी सब्जियों पर अपना हक जमाने आ जाते हैं। पहले कम से कम जो उगाते थे, उसे बेचकर पेट तो भर लिया करते थे। मगर अब तो अगर बाज़ार में खरीदने जाओ, तो दाम तिगुने-चौगने सुनते ही पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। सब्जियाँ तो धीरे-धीरे हर आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही हैं। सरकार बार-बार कह रही है कि महँगाई दर कम हो रही है। फिर समझ नहीं आता कि महँगाई क्यों हनुमान की पूँछ सी बढ़ती जा रही है?”

उनकी बात ख़त्म होते ही मैंने उनसे पूछा, “तो फिर यहाँ बैठकर आप इस तरह से विलाप क्यों कर रही हैं?” ज़वाब में वे लगी कहने, “चुनाव से पहले कोई ‘हाथ’ हमें थामने आया था। वादा किया था- 3 रुपए किलो के हिसाब से 25 किलोग्राम अनाज हर महीने देगा। मगर मेरे बच्चे तो आज भी सिर्फ़ पानी पीकर ही सोने को मजबूर हैं। अब वो ‘हाथ’ कहीं दिखाई नहीं देता। हमारी ज़िन्दगी के दलदल में न कोई ‘कमल’ ही खिलता है। यहाँ आकर इसलिए बैठी हूँ कि उनमें से कुछ लोग दिखाई दें तो उनसे पूछूँ- कहाँ हैं, उनके वादे। वोट माँगते वक्त तो बड़ी-बड़ी हाँकते थे। अब मुड़कर भी नहीं देखते। पर कोई फायदा न हुआ। वे तो मुझे पहचानने से ही मना करते हैं।”

इतना सुनते-सुनते सम्वेदना टूटने को थीं मेरी, तो आख़िर में, मैं उनसे पूछ बैठा, “आप आख़िर हैं कौन? नाम क्या है आपका?” मेरा सवाल उन पर जैसे हथौड़े सा पड़ा। उनकी सिसकियाँ तेज़ होने लगीं। लगा जैसे उनके किसी पुराने ज़ख्म को छेड़ दिया हो। मैं कुछ ठीक-ठीक समझ पाता, इससे पहले ही वे उलाहना सा देकर बोलीं, “तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो…मैं वो हूँ, जिसकी हमेशा से अनदेखी होती आई है। आज़ादी के बाद से ही। मैं तो भारत के हर छोटे-बड़े गाँव, कस्बे, शहर में रहती हूँ। अब तो मेरे बुढ़ापे का सहारा भी कोई नहीं है।” इतना कहकर वे कुछ ठहरीं और फिर बोलीं, “मेरा नाम ग़रीबी है और मेरे जो करोड़ों बच्चे भूख से बिलख रहे हैं वो ग़रीब हैं। इतना कहकर उनके ढाँढस का बाँध टूट गया। आँखें छलक आईं!

सुना है, इन दिनों भी दिल्ली में संसद चल रही है… और वो बूढ़ी माँ? वह भी दिल्ली की ही सड़कों पर कहीं ठिठकी हुई है…
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(विकास, दिल्ली में रहते हैं। निजी कम्पनी में काम करते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सहयोगियों में से हैं।)

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