नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन…’ से जुड़ी अहम तारीख़ है, 27 दिसम्बर। सन् 1911 में इसी तारीख़ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता (कोलकाता का पुराना नाम) अधिवेशन के दौरान पहली बार इसे विधिवत् गाया गया था। राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी और कुछ स्कूली बच्चों ने तब इसे गाया था। हालाँकि तभी से हमारे राष्ट्रगान के साथ एक विवाद चस्पा है। और वह विवाद उस ‘अधिनायक’ शब्द के कारण बना है, जिसके इर्द-गिर्द ही भारत के राष्ट्रगान का पूरा अर्थ निहित है।
दरअस्ल, ‘अधिनायक’ शब्द को शामिल करते हुए राष्ट्रगान लिखे जाने और इसके ‘अर्थविशेष’ के आधार पर इसे लेकर सहमति-असहमति का सिलसिला लम्बा है। पूरी कथा है, जिसकी शुरुआत होती है दिसम्बर-1911 से। हिन्दुस्तान पर तब अंग्रेजों का शासन था। अंग्रेजों के मुल्क़ ब्रिटेन में नए राजा का राज्याभिषेक हुआ था। जॉर्ज-पंचम ने वहाँ की राजगद्दी सँभाली, जो भारत के लोगों को अपने और अपनी क़ौम के बारे में अच्छा सन्देश देना चाहते थे। सो, उन्होंने भारत आने का फ़ैसला किया। दिसम्बर-1911 में वे आए और जनवरी-1912 में लन्दन लौटे।
तो जॉर्ज-पंचम ने भारत आते ही दिल्ली के लाल किले में 12 दिसम्बर 1911 को ‘दरबार’ लगाया। उसमें घोषणा की कि 16 अक्टूबर 1905 को ब्रिटिश शासन के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने जो ‘बंगाल-विभाजन’ लागू किया था, उसे रद्द किया जाता है। यही नहीं, उन्होंने ये भी ऐलान किया कि अब आगे से ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता के बज़ाय दिल्ली होगी। यह विवरण ब्रिटेन के रॉयल कलेक्शन ट्रस्ट की वेबसाइट पर मिलते हैं। इनके अनुसार, जॉर्ज-पंचम की भारत यात्रा के अगले प्रमुख पड़ाव कलकत्ता और बम्बई जैसे शहर होने वाले थे।
लिहाज़ा, दिसम्बर-1911 के आख़िरी हफ़्ते (26 से 28 तारीख़) में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता में अधिवेशन हुआ, तो उसमें तय हुआ कि जॉर्ज-पंचम की प्रशंसा में एक प्रस्ताव पारित किया जाए। इस तरह उन्हें उनकी घोषणाओं के लिए धन्यवाद दिया जाए। अधिवेशन के दूसरे दिन 27 दिसम्बर को इस सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित हुआ भी। और उससे ठीक पहले सत्र की शुरुआत में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा गीत (जो अब भारत का राष्ट्रगान है), ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ गाया गया। इस बात का लेख के शुरू में उल्लेख हो चुका है।
इसके बाद जो अंग्रेजों के पक्षधर अख़बार थे, जिन्हें आंग्ल-भारतीय (एंग्लो-इन्डियन) समुदाय के लोग चलाते थे, उन्होंने लिखा, “अधिवेशन की कार्यवाही रबीन्द्रनाथ टैगोर के लिखे गीत से शुरू हुई। यह गीत उन्होंने ख़ास तौर पर राजा के स्वागत के लिए लिखा था।-(‘द इंग्लिशमैन- 28 दिसम्बर 1911)”, “बंगाल के कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर ने विशेष रूप से राजा के स्वागत के लिए लिखे गीत को गाया।-(‘द स्टेट्समैन-28 दिसम्बर 1911)”, “जब बुधवार, 27 दिसम्बर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यवाही शुरू हुई तो राजा के स्वागत के लिए लिखा गीत गाया गया। राजा के स्वागत का प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ।-(‘द इन्डियन’-29 दिसम्बर 1911)।”
इन ख़बरों का तुरन्त ही, आधिकारिक तौर पर, स्वयं गुरुदेव या कांग्रेस की ओर से खन्डन किया गया हो, ऐसी जानकारी कम से कम अब तक तो सार्वजनिक नहीं है। हाँ, ‘द बंगाली’ और ‘द अमृत बाज़ार पत्रिका’ जैसे हिन्दुस्तानी अख़बारों ने ज़रूर बताया, “कांग्रेस अधिवेशन में बैठक की शुरुआत बंगाली कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर की प्रार्थना से हुई। फिर जॉर्ज-पंचम के प्रति वफ़ादारी ज़ताते हुए सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया गया। इसके बाद एक और गीत गाया गया। उसे राजा की प्रशंसा में लिखा गया था।” यहाँ दो बातों पर ग़ौर करें। पहली कि वह दूसरा गीत पंडित रामभुज दत्त चौधरी ने लिखा था। इसका शीर्षक था, ‘बादशाह हमारा।’ दूसरी- एओ ह्यूम (ब्रिटिश अफसर और कांग्रेस के संस्थापक) की कांग्रेस तब तक अंग्रेजी शासन और अंग्रेज अफ़सरों के प्रभाव से पूरी मुक़्त नहीं थी।
इसके बाद कहानी के अगले पड़ाव पर जाने से पहले यहाँ उस ‘अधिनायक’ शब्द के अर्थ पर फिर ध्यान देना ज़रूरी है, जो ‘जन गण मन…’ की पहली लाइन में आता है। और आगे हर पंक्ति का अर्थ उसी के इर्द-गिर्द सिमटता जाता है। तो वैसे, इस शब्द के कई अर्थ हैं। फिर भी, सबसे अधिक प्रचलित जो अर्थ इसका लिया जाता है, वह है ‘तानाशाह’ या ‘सर्वाधिकार सम्पन्न शासक’। और ध्यान देने लायक है कि जिस दौर में ‘जन गण मन…’ लिखा गया, तब ‘सर्वाधिकार सम्पन्न तानाशाह शासक’ अंग्रेज ही थे। उनके मुखिया ब्रिटेन का राजा होता था।
अब कहानी का अगला अहम पड़ाव। साल 1913, तारीख़ 13 नवम्बर। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा होती है। वे पहले गैर-यूरोपीय साहित्यकार बनते हैं, जिन्हें दुनिया के सबसे बड़े कहलाने वाले इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हालाँकि इससे पहले जनवरी 1912 में आदि ब्रह्मो समाज की पत्रिका ‘तत्त्वबोधिनी’ में ‘जन गण मन..’ को ‘भारत भाग्य बिधाता’ शीर्षक से प्रकाशित किया जा चुका था। इस पत्रिका के सम्पादक टैगोर ही थे। उन्होंने साफ किया था, “भारत भाग्य विधाता सिर्फ़ इस देश की जनता है। या सर्वशक्तिमान् ईश्वर।” मगर जनता या ईश्वर को ‘अधिनायक’ क्यों लिखा गया, यह तब भी स्पष्ट नहीं हुआ।
इसीलिए, जिन्हें इस गान पर सवाल उठाने थे, वे उठाते रहे। यद्यपि मामले में कुछ और स्थिति साफ हुई नवम्बर 1937 को। इसी साल नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ‘जन गण मन…’ को ‘आज़ाद भारत’ का राष्ट्रगान बनाने की वक़ालत की। और तभी गुरुदेव ने अपने परिचित पुलिन बिहारी सेन को पत्र लिखा। इसमें उन्होंने बताया,
“एक ब्रिटिश अफ़सर मेरा दोस्त था। उसने मुझसे कहा कि ब्रिटिश सम्राट का गुणगान करने वाली कविता लिख डालो। इससे मुझे बहुत गुस्सा आया। युग पर युग बीत गए, पर कोई जॉर्ज, कोई पंचम या षष्ठम आज तक मानव की नियति का निर्माता नहीं बन सका।…इसीलिए मैंने यह गीत भारत की नियति को सम्बोधित करके लिखा। वही, जो उत्थान और पतन की राह बनाती है। हर किसी को रास्ता दिखाती है।”
तो, इस तरह स्पष्ट हुआ कि गुरुदेव ने भारत की नियति को भाग्य विधाता कहा है। दूसरे शब्दों में उन्होंने उसको ही ‘अधिनायक’ कहा। लेकिन क्या सच में नियति ‘अधिनायक’ है? स्वेच्छाचारी, निरंकुश, सर्वाधिकार सम्पन्न और तानाशाह भी? भारत की सनातन परम्परा में तो ऐसा नहीं कहा जाता है? उसमें तो ‘नियति’ को कर्मों के अधीन बताया जाता हैं। मानव कर्म करता है। उनसे भविष्य के जो परिणाम नियत या निर्धारित होते हैं, वे नियति की परिभाषा के दायरे में आते हैं। यही नहीं, भारतीय सनातन परम्परा तो सर्वशक्तिमान् ईश्वर को भी निरंकुश, स्वेच्छाचारी नहीं मानती। उनकी नियति को भी उनके कर्मों से बँधा हुआ माना जाता है। और ख़ुद उन्हें उनकी नियति से।
मिसाल भी लीजिए। हिन्दुस्तान के जनों, अगुवाओं (शासक वर्ग) ने कुछ ‘बेपरवाह कर्म किए, तो ‘नियति’ ने इस देश को सैकड़ों वर्षों की ग़ुलामी में धकेल दिया। फिर हिन्दुस्तानियों ने कुछ ‘सजग कर्म’ किए, तो ‘नियति’ हिन्दुस्तान को आज़ाद कालखंड में ले आई। ऐसे ही गुरुदेव ने भी जो उच्च साहित्यिक कर्म किए, उनसे उनकी ‘नियति’ उन्हें साहित्य के नोबेल तक ले गई। तो ऐसी ‘नियति’ को ‘अधिनायक’ लिखने की ज़रूरत ही क्यों थी भला?
विचार योग्य यही तथ्य और सत्य है। सोचिएगा ज़रूर!
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