शतरंज के नए विश्व चैम्पियन डी गुकेश
नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11 शब्दों में शतरंज के नए और इस खेल के अब तक के इतिहास के सबसे कम उम्र के विश्व चैम्पियन डी गुकेश की पूरी कहानी है। सिंगापुर में हुई विश्व शतरंज चैम्पियनशिप में 12 दिसम्बर को गुकेश डोमराजू ने चीन के डिंग लिरेन को हराकर यह उपलब्धि हासिल की है। गुकेश अभी महज़ 18 साल के हैं। उनसे पहले रूस के गैरी कास्पारोव वर्ष 1985 में 22 साल की उम्र में शतरंज के विश्व चैम्पियन बने थे। जाहिर तौर पर गुकेश ने उनका रिकॉर्ड तोड़ दिया है।
लेकिन ये कहानी क्या इतनी भर है? नहीं। यह तो सिर्फ़ सूचना है कि एक साधक अपने साध्य (लक्ष्य) तक पहुँच गया है। अलबत्ता, इस उपलब्धि की पृष्ठभूमि में बीता हर घटनाक्रम अपने आप में मिसाल है। प्रेरणा है, जिसके बारे में जानना हर उस व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण है, जो ऐसे लक्ष्यों को साधना चाहते हैं।
डी गुकेश की कहानी में वे ख़ुद पहले साधक हैं। तपस्वी हैं, जिन्होंने बीते आठ सालों या सही मायने में कहें तो 11 सालों से हर दिन सिर्फ़ साधना की है। छह-सात साल की उम्र में उन्होंने अपना साधन निश्चित किया और शतरंज खेलने लगे। पहले रोज एक घंटे, सप्ताह में तीन दिन। तभी एक सपना देखा विश्व ख़िताब जीतने का और 11 साल की उम्र में उन्होंने अपने साध्य की घोषणा कर दी, “मैं दुनिया में सबसे कम उम्र का विश्व चैम्पियन बनना चाहता हूँ।” उसके बाद उन्होंने सब छोड़ दिया, पढ़ाई लिखाई भी। बस, तीन काम किए। मन की एकाग्रता के लिए ध्यान। शारीरिक-मानसिक चुस्ती के लिए योग। शतरंज का अभ्यास और दुनियाभर की प्रतिस्पर्धाओं में भागीदारी।
उनकी शिद्दत (लगन) देखकर क़ायनात (सृष्टि) ने भी मानो उनकी मदद की। साल 2020 में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के डर से घरों में घुसने लगी, तभी गुकेश के लिए भविष्य के नए द्वार खुल गए। भारत के ही पूर्व शतरंज विश्व चैम्पियन विश्वनाथन आनन्द ने तब अपनी शतरंज अकादमी खोली। गुकेश का उसमें दाख़िला हुआ और योग्य, समर्पित गुरु के मार्गदर्शन में साध्य तक पहुँचने का उनका मार्ग आसान हुआ।
हालाँकि गुकेश के पीछे दो चेहरे और हैं, जो उनकी सफलता के लिए उनसे भी कठिन तपस्या कर रहे थे। उनके पिता रजनीकान्त और माँ पद्मा कुमारी। इनमें रजनीकान्त कान, नाक और गले की बीमारियों के चिकित्सक हैं। जबकि पद्मा सूक्ष्मजैविकी की विशेषज्ञ (माइक्रोबायोलॉजिस्ट) हैं। यानि ये बड़े धनी-मानी लोग नहीं हैं, जो अपनी सन्तान के भविष्य के लिहाज़ से कोई बड़ा ‘ज़ोख़िम’ ले सकें। सामान्य भारतीय परिवारों की तरह इनके लिए भी नौकरी पेशा ही आमदनी का मुख्य जरिया रहा। आम तौर पर ऐसे परिवारों में माता-पिता अपनी सन्तानों को पढ़-लिखकर नौकरी करने के लिए ही प्रोत्साहित करते हैं। बल्कि कई बार तो दबाव तक बनाते रहते हैं।
लेकिन रजनीकान्त और पद्मा ने दक़ियानूसी माता-पिताओं की तरह अपनी सन्तान पर कोई दबाव नहीं बनाया। बल्कि उसकी ख़ुशी, उसके लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपने ऊपर दबाव लिया। पिता को जमा-जमाया काम छोड़ना पड़ा क्योंकि उन्हें बेटे के साथ तमाम जगहों पर प्रतिस्पर्धाओं आदि के लिए यात्राएँ करनी थीं। ऐसे में परिवार पर आर्थिक संकट की स्थिति बनी तो ख़र्च-पानी चलाने की ज़िम्मेदारी माँ ने अपने कन्धों पर ली। अलबत्ता, उससे भी बात नहीं बनी तो बेटे को प्रतिस्पर्धाएँ जीतने से जो इनामी राशि मिलती, उसे भी इस्तेमाल किया गया। फिर भी और पैसों की ज़रूरत पड़ी तो पिता ने लोगों से वित्तीय मदद (क्राउड फन्डिंग) भी माँगी, बेझिझक।
और इस सबका नतीज़ा? वही सूचना, जो सबसे ऊपर, सबसे पहले दी गई। ऐसी सूचनाएँ, इसी तरह की तपस्या-साधना के नतीज़े में आती हैं। याद रखिएगा!
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